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श्रीराम श्रृंगार तो श्रीकृष्ण आत्मा

- स्वामी देवमित्रानंद गिरि

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हमें फॉलो करें श्रीराम श्रृंगार तो श्रीकृष्ण आत्मा
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श्रीराम का स्वरूपांतर श्रीकृष्ण हैं। एक त्रेता युग में आराध्य बना। दूसरा द्वापर में आस्वाद्य। त्रेता और द्वापर के मध्य दूरियाँ हैं। काल का अंतराल हैं आज की प्रचलित भाषा में इसे हम जनरेशन गैप कह सकते हैं प्रभु तो कालातीत हैं, कालातीत हैं राम और कृष्ण, तो भी सगुण साकार होने के लिए अन्य उपाधियों के साथ-साथ काल को भी स्वीकारना होता है। और जब ये काल को स्वीकारते हैं तो काल का भी श्रृंगार हो जाता है।

भगवान की अवतार लीला में काल के व्यवधान को स्वीकार करना ही पड़ता है या यों कहें कि साकार होने के कारण भगवान भी काल सापेक्ष होते हैं। इसी कारण अवतार लीलाओं में अंतर या कभी तो विरोधाभास भी प्रतीत होता है। त्रेता के राम और द्वापर के कृष्ण के बीच कुछ ऐसा ही है।

यद्यपि दोनों ही लीला चरित्रों की परिणति एक है, फलश्रुति एक है। राम मर्यादा की डोर से बंधे हैं और कृष्ण परे हैं। बंधते तो कृष्ण भी हैं, परंतु मर्यादा की डोर से नहीं। कभी तो मैया यशोदा उन्हें बाँध लेती हैं अपने वात्सल्य की भाव रज्जु से या फिर बाँध लेती हैं गोपियाँ माधुर्य रस से। और जब बंध जाता है वह नित्य मुक्त शुद्ध बुद्ध शाश्वत सनातन तो उसके चारों ओर परिधि प्रकट हो जाती है।

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वह असीम, सीमा रेखा से घिर जाता है, विराट लघु हो जाता है, अतीन्द्रिय इंद्रियों का विषय हो जाता है। बहिरंग लीलाओं में राम पूर्णतम हैं। राम सभी का आदर्श ही नहीं, आदर्श की कसौटी हैं। पुत्र पिता, राजा प्रजा, सेवक सेव्य, शिष्य गुरु, भक्त-भगवान, सभी रूपों में राम अन्यतम आदर्श हैं।

युग-युगांतर से, वर्तमान में और भविष्य में भी, एक ही चाह सबकी, आस्तिक और नास्तिक की भी कि पुत्र तो राम जैसा चाहिए, पति चाहिए तो राम जैसा। जितने संबंध हो सकते हैं, सामाजिक और व्यावहारिक जीवन में, राम सब आदर्श हैं। इसीलिए तो राम पुरुषोत्तम हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम। और ठीक इसके विपरीत श्रीकृष्ण हैं। पुरुषोत्तम तो कृष्ण भी हैं, लीला प्रधान। वे लीला पुरुषोत्तम हैं। लीला अर्थात्‌ रस। रस प्रधान हैं कृष्ण, इसीलिए आस्वाद्य हैं।

राम को देखना है आँख खोलकर क्योंकि बहिर्जगत का संचालन राम का अनुकरण करने से होगा। और कृष्ण... आँखें बंद कर कृष्ण का दर्शन करना है। कृष्ण अनुभवगम्य है, बहिर्जगत से परे। इसे यों भी कह सकते हैं कि राम तन का श्रृंगार हैं और कृष्ण आत्मा का श्रृंगार हैं। इसीलिए कृष्ण आदर्श पुत्र न बन सके और न ही पिता। कृष्ण जैसा बेटा कोई नहीं चाहता। कौन चाहेगा भला ऐसा बेटा जो चोरी करता हो, मटकी फोड़ता हो, हठीला और झगड़ालू हो और पिता के रूप में तो कृष्ण ने सारी सीमाएँ ही तोड़ दी।

आँखों के सामने द्वारिका के सागर तट पर पुत्र पौत्र, प्रपौत्र तथा अन्याय बंधु बांधवों से भरपूर छप्पन करोड़ यदुवंशियों को मदोन्मत्त परस्पर लड़ते मरते देखा और मुस्कराते रहे। और कृष्ण जैसा पति? सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियों का स्वामी। है साहस किसी में जो कृष्ण को पति रूप में वरे। और लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की विवशता है कि उसे सभी के लिए स्वीकृति का द्वार खोलना ही पड़ता है। पूर्णातिपूर्ण हैं कृष्ण महासागर की तरह।

किसी भी सागर या महासागर को यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि किसी भी सरिता का समर्पण अस्वीकार कर उसे वापस लौटा दे। और यदि कोई ऐसा सागर है जो किसी सरिता के समर्पण को इस आधार पर अस्वीकार करता है कि वहाँ तो पहले से ही अकूत जलराशि है तो वह सागर न होगा, कोई पोखर या झील ही होगी।

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