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सुख-दुख का दर्शन

गलत धारण से बचेगा जीवन

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आमतौर पर सुख और दुख की जो लोक-प्रचलित धारणाएँ हैं, उनमें ज्यादातर न तो तर्क संगत लगती हैं और न शास्त्र सम्मत ही। इसलिए जब कभी हम सदाचारी को दुख पाते और दुराचारी को सुख पाते देखते हैं तो यह धारणा बना लेते हैं कि सदाचार करने और सत्य के पालन से कोई फायदा नहीं है।

इसलिए वे लोग भी भ्रष्टाचार और बेईमानी पर उतर आते हैं जो सदाचार और नैतिकता में विश्वास करते हैं। ऐसे लोग जोर-जोर से शोर मचाने लगते हैं कि कलयुग में वही फूलता-फलता है जो जमाने के मुताबिक कार्य करता है। मतलब गलत तरीके से कार्य करके यदि सुख के सारे संसाधनों को हासिल किया जा सकता है तो गलत करने में कोई पाप नहीं लगता है।

बस सबेरे-सायं भगवान का दो-चार बार नाम ले लो और मंदिर में लड्डू चढ़ा आओ, काफी है। भगवान बड़ा दयालु है, वह सब माफ कर देता है। जाहिर है इसी धारणा के कारण आज बड़ा आदमी बनने और अपना दबदबा कायम रखने की इच्छा के कारण लोग बड़े-से-बड़ा गलत कार्य करने में नहीं हिचकिचा रहे हैं।

दरअसल, यह धारणा नासमझी की वजह से बनी है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं- हे अर्जुन, इंद्रिय जनित कार्य करने पर मनुष्य में आसक्ति पैदा हो जाती है।

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यह आसक्ति इंसान को धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, अपकार-उपकार और सत्य-असत्य के भेद को समझने नहीं देती है। इसलिए अधर्म और भ्रष्टाचार से पहले वह खूब फूलता-फलता है लेकिन एक समय ऐसा आता है कि उसका सर्वनाश हो जाता है। आए दिन ऐसी अनेकानेक घटनाएँ घटती रहती हैं।

मनु कहते हैं- पहले अधर्म और पाप कर्म से धनवान बनने वाला खूब फूलता-फलता है लेकिन दस वर्ष में उसका कमाया धन ब्याज के साथ सर्वनाश को प्राप्त हो जाता है। कहने का मतलब यह है कि धन के लिए अनर्थ करने वाला मनुष्य हमेशा न सुखी रहता है और न सदाचार से जिंदगी बिताने वाला हमेशा दुखी रहता है। यहाँ एक बात सबसे अधिक समझने वाली है और वह यह कि सुख-दुख महसूस करने का विषय है। धनहीन यदि वासनावृत्ति से ऊपर उठ गया है तो धन न रहने पर भी वह खुद को सुखी महसूस करेगा। यदि वासनावृत्ति वाले के पास करोड़ों रुपए है तब भी वह सुख नहीं भोग पाता है, क्योंकि उसमें हमेशा अधिक से अधिक धन कमाने की लालसा बनी रहती है।

यह वासना ही मनुष्य को गलत कर्म या पाप कर्म की तरफ ले जाती है। यदि इंद्रिय बलवान हैं, धर्म-अधर्म का भेद समझने की कूवत है तो उसके अंदर यह धारणा कभी नहीं पैदा हो सकती कि कलयुग में भ्रष्टाचार करने वाला ही हर तरह से सुखी होता है। लोग एक तर्क देने लगे हैं कि ब्राह्यण जब गलत तरीके से कार्य करने लगे हैं, तो हम तो अमुक जाति के हैं, हमें करने में क्या हर्ज है। इसी धारणा के चलते समाज में दुराचार और पापाचार बढ़ता जा रहा है।

संसार में दुराचार या पापाचार में लिप्त वही होता है जो ईश्वरीय-व्यवस्था में विश्वास नहीं करता। जो ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास करता है उसकी धारणा ऐसी कभी बन ही नहीं सकती कि कलयुग में परमात्मा का नाम लेते रहो और जैसा चाहो वैसा कर्म करो। कहने का अर्थ कि सुख-दुख का दर्शन पारंपरिक समझदारी को परे कर एक बेहतर समझदारी पैदा करता है और जो असली दर्शन है।

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