- आचार्य डॉ. लोकेश मुनि
आज का आदमी ऐसा ही जीवन जी रहा है, वह भ्रम में जी रहा है। जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृग-मरीचिका की तरह भाग रहा है। धन-दौलत, जर, जमीन, जायदाद कब रहे हैं इस संसार में शाश्वत? पर आदमी मान बैठा कि सब कुछ मेरे साथ ही जाने वाला है।
उसको नहीं मालूम कि पूरी दुनिया पर विजय पाने वाला सिकन्दर भी मौत के बाद अपने साथ कुछ नहीं लेकर गया, खाली हाथ ही गया था। फिर क्यों वह परिग्रह, मूर्छा, आसक्ति, तेरे-मेरे के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता और स्वार्थों के दल-दल में फंसकर कई जन्म खो देता है।
चाह सुख-शांति की, राह कामना-लालसाओं की, कैसे मिले सुख-शांति? क्या धांय-धांय धधकती तृष्णा की ज्वाला में शांति की शीतल बयार मिल सकती है? धधकते अंगारों की शैय्या पर या खटमलभरे खाट पर सुख की मीठी नींद आ सकती है? क्या कभी इच्छा-सुरसा का मुख भरा जा सकता है?
सुख-शांति का एकमात्र उपाय है- इच्छा विराम या इच्छाओं का नियंत्रण। जिसने इच्छाओं पर नियंत्रण करने का थोड़ा भी प्रयत्न किया, वह सुख के नंदन वन को पा गया।