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हिन्दू और जैन धर्म को जानें

विश्व का प्रथम धर्म और दर्शन

हमें फॉलो करें हिन्दू और जैन धर्म को जानें

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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यह मन से निकाल दें कि जैन धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा है। जैन धर्म से प्राचीन है हिन्दू धर्म, यह कहना भी गलत है। ठीक इसके विपरीत भी नहीं। कोई इस बात पर बहस करे कि शरीर के दोनों हाथों में से कौन-सा प्राचीन और महान है तो सोचें उस बहस का क्या परिणाम होगा।

दोनों धर्म के शुरुआती दौर में न तो जैन शब्द था और न ही हिन्दू। ब्राह्मण और श्रमण शब्द जरूर प्रचलन में था। हाँ, जिन शब्द भी था लेकिन प्रचलन में नहीं। भारतभूमि पर ये दो धाराएँ शुरुआत से ही प्रचलन में रहीं। कहीं-कहीं इनका संगम हुआ तो कहीं-कहीं ये एक-दूसरे से बहुत दूर चली गईं, लेकिन दोनों का लक्ष्य एक ही रहा और वह है- मोक्ष।

जैन तथा हिन्दू धर्म और दर्शन बिलकुल अलग-अलग हैं लेकिन दोनों धर्म की संस्कृति एक है, कुल एक है, परम्परा एक है और मातृभूमि एक है। दोनों साथ-साथ आगे बढ़ते गए तो बहुत कुछ एक होगा ही, मसलन कृष्ण के चचेरे भाई जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैषठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक हैं। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे। यह सिर्फ एक उदाहरण है जिससे विचारधाराएँ अलग-अलग होने के बावजूद साम्यता के स्तर का पता चलता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

वेद विश्व की प्रथम पुस्तक होने से यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म से प्राचीन है वैदिक या हिन्दू धर्म लेकिन जिन्होंने वेद पढ़े हैं वे जानते हैं कि ऋषि और मुनि दोनों शब्द का अर्थ क्या होता है। ऋषि परम्परा और मुनि परम्परा में भिन्नता थी। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी का उल्लेख वेद में मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि उनका उल्लेख तभी हुआ जबकि वे हो चुके थे, तो 'उल्लेख होना', 'हो चुके' से कैसे प्राचीन हो सकता है?

ब्राह्मण और श्रमण परम्परा का फर्क यह कि ब्राह्मण परम्परा मानती है कि ईश्वर है और वह निराकार है जिसे ब्रह्म कहा गया है उसी से इस जगत का विस्तार है, जबकि श्रमण तत्वमीमांसा वास्तववादी और सापेक्षतावादी बहुत्ववाद है। आइंस्टीन से पूर्व ही भगवान महावीर ने इस सिद्धांत की विवेचना कर दी थी। अनेकांतवाद और स्यादवाद को समझे बगैर आप कैसे तय करेंगे कि पश्चिम का विज्ञान ही सही है? श्रमण मानते हैं कि आत्मा ही सत्य है। आत्माएँ अनेक हैं, जो इस जगत से पूर्व 'निगोद' में रहती थीं। खैर।

चाहे हिन्दू, पारसी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम हो या फिर चर्वाक, जैन, शिंतो, कन्फ्यु‍शियस या बौद्ध हो, आज धरती पर जितने भी धर्म हैं, उन सभी का आधार ब्राह्मण और श्रमण यही दो प्राचीन परम्पराएँ रही हैं। इसी परम्परा ने वेद लिखे और इसी से जिनवाद की शुरुआत हुई। क्या है इनका उद्‍गम यह कहना असम्भव है। एक चौबीसी हो चुकी है। भगवान महावीर तक यह दूसरी चौबीसी थी और अभी तीसरी बाकी है। हिन्दू धर्म के मनुओं के काल की गणना करना उतना ही मुश्किल है जिनता कि प्रथम चौबीसी की गणना करना। चौदह मनु और चौदह ही कुलकर दोनों एक ही थे।

भगवान कृष्ण के काल तक दोनों ही मार्ग अस्त-व्यस्त थे। दोनों भाइयों ने मिलकर पहली बार इसे व्यवस्था देने का प्रयास किया। वहीं से धीरे-धीरे जैन धर्म तो व्यवस्थित हो गया किंतु हिन्दू धर्म के कतिपय मनमाने संतों ने इसे और भी अस्त-व्यस्त कर दिया। भगवान महावीर दुनिया के प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को एक बेहतर व्यवस्था दी। कृष्ण के प्रयास को तो दुष्ट संतों ने असफल कर दिया। ऐसे संत जो खुद का अलग मठ या आश्रम चलाने का सोचते हैं वे सभी धर्म विरुद्ध हैं। धर्म की धारा से बाहर जो भी है वे सभी धर्म विरुद्ध हैं।

दुनिया में दो ही धर्मनिरपेक्ष मंत्र हैं- एक तो नमोकार मंत्र, दूसरा गायत्री मंत्र। इन दोनों मंत्रों से ही पता चलता है कि दोनों धर्म में क्या फर्क है। पहला है पाँच तरह की आत्माओं को नमस्कार, जो दुनिया के किसी भी धर्म या राष्ट्र में जन्मती हैं। दूसरा है उस एक निराकर सत्य को नमस्कार। यह 'निराकार सत्य' ही इस्लाम का, ईसाईयत का, सिख का और यहूदियत का भी आधार है। ।। ॐ।।

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