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अज्ञान, अंधविश्वास और मोक्ष

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पं. हेमन्त रिछारिया

देश की राजधानी दिल्ली के बुराड़ी में हुए एक ही परिवार के 11 लोगों के निधन से पूरा देश स्तब्ध है। इन मौतों को कभी आत्महत्या तो कभी हत्या कहकर प्रचारित किया जा रहा है। वास्तविकता और सच क्या है यह तो क्राइम ब्रांच की जांच रिपोर्ट आने के बाद ही स्पष्ट होगा। लेकिन इन अस्वाभाविक हुई मौतों ने देश में धर्म और विज्ञान के मध्य एक नई बहस छेड़ दी है, जिसमें विज्ञान के जानकार धर्म को अंधविश्वास से जोड़कर विज्ञान को ही एकमेव सत्य साबित करने में लगे हुए हैं, वहीं दूसरी ओर धर्म के विद्वान विज्ञान के मानने वालों को अधार्मिक और नास्तिक कहकर धर्म ध्वजा को ऊंचा रखने की कोशिश कर रहे हैं। 
 
इन दोनों के मध्य आम जनता बेबस और लाचार सी इस ऊहापोह में है कि क्या धर्म को मानना अंधविश्वास है? या जो बात वैज्ञानिक तरीकों से साबित नहीं की जा सकती उसका इस संसार में कोई अस्तित्व ही नहीं! जनता के इन सहज प्रश्नों के समाधान का बीड़ा मीडिया चैनलों ने अपना दायित्व समझकर उठा रखा है। प्रतिदिन न्यूज़ चैनलों पर इस मुद्दे को लेकर की जाने वाली बहस के लिए विद्वान आमंत्रित किए जा रहे हैं। 
 
हाथ में माइक लेकर एक मेहमान की बात पूरी हुए बिना दूसरे मेहमान की ओर दौड़ती एंकर समाधान तलाशने की कोशिश में हैं किन्तु समाधान मिले कैसे! क्योंकि जिस प्रश्न का समाधान प्राप्त करने की कोशिश की जा रही है वह कोई सामान्य प्रश्न या जिज्ञासा नहीं है, वह तो यक्ष प्रश्न है। जिसका यदि ठीक उत्तर ना मिला तो जीवन दांव पर लगना अवश्यंभावी है। 
 
एक बात जो इस पूरे घटनाक्रम में स्पष्ट तौर पर सामने आ रही है वह है, 'मोक्ष की अभिलाषा'। तो क्या मोक्ष की आकांक्षा अंधविश्वास है? निश्चित ही नहीं, क्योंकि हमारे सनातन धर्म में मोक्ष तो चार पुरुषार्थों में से एक है और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य भी। लेकिन मोक्ष की परिभाषा क्या है, किसे हम मोक्ष कहेंगे! गूढ़ता में उतरे बिना सीधी-सादी भाषा में समझें तो इस जन्म-मरण के दुष्चक्र से बाहर हो जाना ही मोक्ष है अर्थात् आवागमन से मुक्ति ही मोक्ष है। 
 
अब प्रश्न उठता है कि मोक्ष प्राप्त कैसे हो, तो इसका समाधान तो हमारे शास्त्रों में अनेक बार बताया गया है, आदि शंकराचार्य का डिमडिम घोष है, 'पुनरपि जनमं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननि जठरेशयनं, भजगोविन्दम् भजगोविन्दम् भजगोविन्दम् मूढ़मते'। यहां स्पष्ट कर दिया गया है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर का नाम स्मरण सबसे सरल उपाय है। जैसे श्लोक में स्पष्ट कहा गया है, 'मूढ़मते', अर्थात् मूढ़ों, अज्ञानियों को यह सरलता रास नहीं आती क्योंकि इससे उनके अहंकार पर चोट लगती है वे मोक्ष भी किसी वस्तु की तरह अपने बाहुबल के सामर्थ्य से प्राप्त करना चाहते हैं। अपने इसी झूठे अहंकार को तृप्त करने के लिए वे तरह-तरह के बेबूझ व अनूठे प्रयास कर अपना जीवन तक दांव पर लगा बैठते हैं। इसमें ना धर्म का दोष है, ना शास्त्र का दोष है और ना ही आस्था का। यदि किसी का दोष है, तो वह है हमारी-आपकी अज्ञानता का। आज हम हर लक्ष्य त्वरित पाना चाहते हैं, फ़िर वह मोक्ष ही क्यों ना हो।
 
आज का व्यक्ति धैर्य और श्रद्धा से कोसों दूर है। सिद्धों का वचन कि यदि मोक्ष की भी आकांक्षा मन में रही तो यही आकांक्षा मोक्ष प्राप्ति में बाधक बन जाएगी। गीता में स्वयं योगेश्वर भगवान कृष्ण ने कहा है, 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' अर्थात् केवल कर्म पर मनुष्य का अधिकार है उस कर्म के फल पर नहीं। अब जिस वस्तु पर आपका अधिकार ही नहीं फिर उस वस्तु की अनाधिकार चेष्टा क्यों करनी। 
अब बात आती है विज्ञान की, तो धर्म और विज्ञान में सामंजस्य होना चाहिए, किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं। धर्म और विज्ञान के मध्य श्रेष्ठता और प्रामाणिकता की लड़ाई उसके अनुयायियों की कुचेष्टा मात्र है। विज्ञान चीजों को दो रूपों में देखता है ज्ञात और अज्ञात, जबकि धर्म की चीज़ों को देखने की एक तीसरी दृष्टि भी है, वह है अज्ञेय। यहां अज्ञेय से आशय है जिसे जाना तो जा सकता है किन्तु बताया नहीं जा सकता, जैसे आत्मा-परमात्मा आदि। 
 
बस विज्ञान को यहीं से अड़चन प्रारंभ हो जाती है क्योंकि विज्ञान उसी चीज़ को मान्यता देता है जिसे वह ना केवल जान लेता है अपितु उसे दूसरों को बताने में भी सक्षम हो। उदाहरण के तौर पर एक छोटी सी वस्तु पंखा जिसका अविष्कार तो किसी और ने किया किन्तु उसका प्रयोग हम सभी करते हैं, किन्तु धर्म में यह संभव नहीं कि ध्यान, धारणा, समाधि, बुद्धत्व किसी व्यक्ति को घटित हो और उसका पता सभी व्यक्तियों को चल जाए। उसका पता तो विरलों को चलता है जिन्हें स्वयं यह घटित हो चुका है केवल वही इसका प्रमाण दे सकते हैं अन्य दूसरा नहीं। तो विज्ञान इसकी मान्यता कैसे देगा, अब इसका आशय यह नहीं कि ध्यान, धारणा, समाधि, बुद्धत्व, आत्मा यह सब मिथ्या है, नहीं, कदापि नहीं। 
 
आत्मा ही इस संसार का एकमात्र सत्य है, शेष सभी नश्वर और मिथ्या। इसे ऐसे समझने का प्रयास करें कि जिस दौर में वायुयान, टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, मिसाइल जैसी वस्तुओं का आविष्कार नहीं हुआ था उस दौर में यदि कोई रामायण में वर्णित पुष्पक विमान या महाभारत के संजय और उस युद्ध में प्रयुक्त आग्नेय अस्त्रों की बात करता तो विज्ञान उसे मान्यता देता! कभी नहीं देता क्योंकि तब तक विज्ञान के सामने यह प्रत्यक्ष नहीं थे। आज है तो विज्ञान इन्हें सहर्ष स्वीकार कर रहा है। 
यदि किसी दिन GOD पार्टिकल खोजना सफ़ल हो गया, जिसे खोजने की कोशिश विज्ञान ने प्रारंभ कर दी है तो उस दिन विज्ञान आत्मा-परमात्मा को भी मान्यता देने लगे तो आश्चर्य नहीं है। विज्ञान की अपनी सीमा है जबकि धर्म असीम है, बस यहीं धर्म विज्ञान से दो कदम आगे निकल जाता है और विज्ञान से श्रेष्ठ हो जाता। मनुष्य अध्यात्म, धर्म या यूं कहें कि ईश्वर के जितना निकट रहेगा उतना भौतिक दुष्प्रचारों से सुरक्षित रहेगा। रही बात ईश्वर की तो ईश्वर हम सभी को जन्म से ही प्राप्त है, क्योंकि बिना ईश्वर के इस संसार में किसी का अस्तित्व होना संभव नहीं।

- ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: [email protected]


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