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गणगौर तीज : अखंड सौभाग्य प्राप्ति का व्रत

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गणगौर तीज : पति के प्रति अनुराग जगाने वाला व्रत

- नरेन्द्र देवांगन
 

 
गणगौर का यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।
 
इस दिन भगवान शिव ने पार्वतीजी को तथा पार्वतीजी ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पूर्व ही रेणुका की गौरी की स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। पश्चात गौरीजी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से स्त्रियां अपनी मांग भरती हैं। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।
 
भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गांव में पहुंच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गांव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियां उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। किंतु साधारण कुल की स्त्रियां श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुंच गईं। पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया।

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वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। तत्पश्चात उच्च कुल की स्त्रियां अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुंची। उन्हें देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा, तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब उन्हें क्या दोगी?
 
पार्वतजी ने उत्तर दिया, प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उंगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूंगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यशाली हो जाएगी। जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उंगली चीरकर उन पर छिड़क दिया जिस पर जैसा छींट पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। अखंड सौभाग्य के लिए प्राचीनकाल से ही स्त्रियां इस व्रत को करती आ रही हैं।
 
भगवती पार्वती पर ब्रह्म की नित्य शक्ति है। ब्रह्म का शयन करना ब्रह्मांडों का लय है। इस अवस्था में उसकी नित्य शक्ति उसी में लय होकर शयन करती है और जब एकोऽस्मि बहुस्याम (एक हूं बहुत हो जाऊं) का भाव जागृत होता है, तब ब्रह्मांडों की रचना होने लगती है। इसे आद्या शक्ति भी कहते हैं। अर्थात प्रारंभ काल वाली शक्ति। जबकि प्रारंभ और अंत तो किसी एक ब्रह्मांड का सीमित अवस्था में ही होता है और पार्वती तो ब्रह्म की नित्य शक्ति है।
 
इसी के आश्रय से किसी न किसी ब्रह्मांड का प्रारंभ और अंत हुआ ही करता है इसका कारण उसकी पार्वती शक्ति है। ब्रह्म के अणु अर्थात पर्व रूप में भी समाहित रहने वाली पार्वती है। इसीलिए यहां पार्वती को ब्रह्म की नित्य शक्ति कहा गया है।
 
ब्रह्मांडों का प्रकटीकरण इन दोनों की लीला है। भक्तों को अपने ब्रह्म तत्व का आभास कराने के लिए यह विविध लीलाएं किया करता है। एक लीला में ये दोनों शिव और सती हुए तथा दूसरी लीला में शिव और पार्वती हुए।
 
ब्रह्म अंशी हैं और कोटि-कोटि ब्रह्मांड उसके अंश हैं। अंशी अपने अंश को अपनी ओर सदा ही आकर्षित किया करता है ब्रह्म अपने को ब्रह्मांडों के रूप में प्रकट करके अपने को समेटता है। यह उसका स्वभाव है। जो जन इस तत्व को समझ लेते हैं, उन्हें कोई शंका, द्वंद्व या भय नहीं रहता। यह स्थिति ही परमानंद की है। भगवती पार्वती अपने ब्रह्म की इन सभी लीलाओं में समान सहभागिनी रहती हैं।


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