'ज्ञान के लिए संवादपूर्ण बातचीत करो, बहस नहीं, प्रवचन नहीं। बातचीत सवालों के समाधान को खोजती है, बहस नए सवाल खड़े करती जाती है और प्रवचन एकतरफा विचार है।' -जे. कृष्णमूर्ति
जर्मन विचारक और दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (1844-1900) ने 'स्पीक ऑफ जरथुस्त्र' (जरथुस्त्र की वाणी) नामक एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि ईश्वर मर चुका है और अब आदमी स्वतंत्र है। नीत्शे के इस कथन से पश्चिमी जगत में खलबली मच गई थी। दरअसल, विश्वास पर आधारित सभी धर्मों का आधार है 'ईश्वर'। ईश्वर को हटा दें तो उन धर्मों का आधार गिर जाता है। हालांकि यहां 'धर्म' लिखने से ज्यादा सही है संप्रदाय, मत या पंथ लिखना। धर्म तो है ही नहीं, वह तो कभी जन्मा ही नहीं, तो उसके मरने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ठीक यही बात ईश्वर के संबंध में भी कही जा सकती है।
जिसने सभी तरह के धर्म, विज्ञान, धर्मशास्त्र, इतिहास और समाजशास्त्र का अध्ययन किया है या जिसमें थोड़ी-बहुत तार्किक बुद्धि का विकास हो गया है वह प्रत्येक मामले में 'शायद' शब्द का इस्तेमाल करेगा और ईश्वर के मामले में या तो संशयपूर्ण स्थिति में रहेगा या पूर्णत: कहेगा कि ईश्वर का होना एक भ्रम है, छलावा है। इस छल के आधार पर ही दुनिया के तमाम संगठित धर्म को अब तक जिंदा बनाए रखा है, जो कि एक-दूसरे के खिलाफ है।
ओशो रजनीश कहते हैं कि 'आज हम दुनिया में जितने भी धर्म देखते हैं वे सभी संप्रदाय, मत, मान्यता, व्यवस्था या पंथ हैं... धर्म नहीं। हालांकि कहना चाहिए कि वे सभी धर्म का चोगा पहने राजनीतिक और आपराधिक संगठन हैं।'... दूसरी ओर तथाकथित धर्म के संबंध में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था, 'धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म।'...
ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर धर्म की सही परिभाषा क्या है?
प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अलग-अलग परिभाषा कर सकता है। विद्वान लोग ग्रंथों से परिभाषा निकालकर लोगों को बताते हैं। सभी की परिभाषा में विरोधाभास की भरमार है। हम नहीं कहेंगे कि ये सब मनमानी परिभाषाएं या व्याख्याएं हैं। हम यह भी नहीं बताना चाहते हैं कि धर्म क्या है? मूल सवाल यह है कि क्या धर्म मर चुका है?
तब तो धर्म मर ही चुका है?
दरअसल, यदि हम संवेग की बजाय संवेदना को धर्म मानें तो उसके मायने अलग हो जाते हैं। संवेदना आपकी समझ से जन्म लेती है और संवेग आपके विचार और भाव के द्वारा जन्मते हैं। संवेगी व्यक्ति अविवेकी होता है जबकि संवेदनशील व्यक्ति विवेकी (बौद्धिक नहीं) होता है।
संवेदनशील लोग कहते हैं कि धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है। जब भी हम 'धर्म' कहते हैं तो यह ध्वनित होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना। यह रहस्य जाना जा सकता है सत्य, अहिंसा, न्याय, प्रेम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्ति के मार्ग को सही तरह से समझने से।
आप लाख कितना ही किसी को भी समझाओ कि दुनिया के सारे संप्रदाय एक ही तरह की शिक्षा देते हैं। उनका इतिहास भी सम्मिलित है, लेकिन फिर भी वे दूसरे के संप्रदाय से नफरत ही रखेंगे। इसका सीधा-सा कारण है कि प्रत्येक अधार्मिक राजनीतिक व्यवस्थाओं को धर्म मान लिया गया है। ऐसे में कहना होगा कि धर्म मर चुका है और वर्तमान में जो है, वह मात्र राजनीतिक संगठन या विचारधाराएं ही हैं। सत्य को किसी एक विचारधारा से नहीं जाना जा सकता और न ही अनेक से।