चैत्र की नवदुर्गा चल रही है। मेरा जन्म मध्यप्रदेश के जिस क्षेत्र(चम्बल) में हुआ है, वहाँ भी यह उत्सव मनाया जाता है। रह रह कर याद आने वाली, बचपन की वो जगहें खूब याद आती हैं।वहां का लोक संगीत खूब याद आता है। विशेषकर लांगुरिया।
अपने जन्मस्थान और वहाँ से जुड़ी परंपराएँ याद करूँ तो बरबस ही कुछ चलचित्र से आँखों के सामने तैर जाते हैं । सुबह सुबह कैसे वहाँ नंगे पैर, अपने धुले, (अधिकतर)लंबे लंबे बाल खोले महिलाएं एक हाथ में जल का लोटा, उसके ऊपर थाली में देवी पूजन की सामग्री ढंके हुए एकाग्रता से देवी मंदिरों को जाती दिख जाती थी। भक्ति, सौन्दर्य, और कडक मिजाज का ऐसा अनोखा संगम कहीं और देखने को शायद ही मिले।
इस पूरे क्षेत्र में शक्ति पूजा के अनेक प्रमाण भी हैं। पद्मावती में सिंघवाहिनी देवी तथा गुप्त काल की प्राप्त मातृका मूर्तियाँ भी इस क्षेत्र में शक्ति पूजा की परिचायक हैं। यहाँ के गाँव, नगरो में देवी के खूब मंदिर हैं। नवरात्रि में जवारे बोने का चलन है। जवारों का पूजन किया जाता है। नौ दिन तक देवी पूजन, व्रत, उपवास, किए जाते हैं। नौवे दिन यह जवारे निकाले जाते हैं, खूब नाच गाने होते हैं। शाम के समय इन्हें विसर्जित कर दिया जाता है। महिलाएं सर पे जवारे रख कर खूब नृत्य करती हैं।
जो भी उस क्षेत्र में रहे हैं, या कभी उस क्षेत्र में जाने का मौका मिला हो तो, वे अच्छी तरह जानते होंगे कि इन दिनों (नवरात्रि के दिनों में) गली मोहल्लों में पूरे नौ दिन लांगुरिया गाई जाती है। लांगुरिया और भेंटे रोज ही गाए जाते हैं, ये देवी की महिमा, शक्ति और चरित्र के गायन होते हैं।
ढोलक की थाप, कर्रे गले से लांगुरिया का गायन, साथ में लय-ताल-गति से नृत्य। शहरी क्षेत्रों से नदारद ऐसे दृश्य मन को मजबूत पाश में बांध लेते हैं।
विशेष तौर पर लांगुरिया महिलाएं ही गाती हैं, किन्तु पुरुष भी इससे पीछे नहीं। किसी पीपल या नीम के पेड़ के नीचे, चबूतरों पर, या मंदिरों में इकट्ठा हो कर जो लांगुरिया की तान छेड़ी जाती है, तो आस पास के लोग बिना उससे जुड़े रह ही नहीं पाते।
दरअसल इस क्षेत्र में हरेक गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर लांगुर की प्रतीक मूर्ति होती है। पीपल की जड़ में पथावरी (एक प्रतीक पत्थर) को पूजने का चलन है। वहीं बैठ कर अक्सर लांगुरिया गाई जाती हैं । लांगुरिया पे नाचते समय पुरुष नर्तक पाँव में घुँघरू बांधते हैं, और साथी लोग ढोलक, चिमटा, झांझ, मँजीरा, झींका बजाते हैं।
वहाँ से पास में सटे राज्य राजस्थान में करौली, (जो कैला देवी का स्थान है,) में लांगुरिया पूजन बहुत महत्वपूर्ण है। लांगुरिया के बारे में कहावत है कि त्रेता में जब राम और लक्ष्मण का अपहरण करके अहिरावण पाताल ले गया, उस समय हनुमान जी ने इन्हें बचाया था। देवी हनुमान से इतनी प्रसन्न हुई की वे उन्हें पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाहने लगीं। तब हनुमान ने स्वयं ही देवी की चरण भक्ति में स्वयं को समर्पित कर दिया। यही हनुमान लाँगूल(पूंछ) के कारण लांगुरिया कहलाये।
दूसरी कहावत ये भी कही जाती है कि चिरकुंवारी देवी ने पुत्र की लालसा से अपनी जटाओं से दो भैरव उत्पन्न किये। बाईं जटा से काले, और दाईं जटा से लाल भैरव हुए। ये लाल भैरव ही लांगुरिया कहलाये। देवी मंदिरों मे देवी की मूर्ति के सामने दोनों तरफ इन्ही लांगुरियों की मूर्ति होती है, जो भैरव और हनुमान हैं। ये दोनों लांगुरिया देवी के रक्षक पुत्र हैं, देवी दर्शन से पूर्व इन्हें प्रसन्न करने का प्रचलन है।
लांगुरियों की उपासना में गाए जाने वाले गीत ही लांगुरिया कहलाते हैं। गीतों में महिलायें लांगुर को अपना रक्षक कह कर गाती हैं। ये रक्षक, वे अपने पति के रूप में देखती हैं। जोगिन कहें मतलब स्त्री की बात हो रही है। जब कन्या भोजन होता है तब एक लांगुर अवश्य ही रखा जाता है, अर्थात बच्चों के लिए भी लांगुरिया का प्रयोग होता है। आधुनिक लांगुरिया व्यंग्य, रिश्तों और चुहलबाजी पर भी गाई जाती हैं।
दो दो लांगुरिया जने हैं, दो दो लांगुरिया
देवी मैया ने जने हैं एक संग दो दो लांगुरिया
एक लांगुरिया कारों कारों, दूसरों है लाल
करे सेब माता की और चले मटकनी चाल
आदि भवानी कल्याणी माँ रुद्राणी अवतार
दोऊ सुतन ए देख कें मैया...है रही खुश अपार
ऐसे ही दूसरी लांगुरिया
कैला मैया के भवन में घुटवाँ खेले लांगुरिया
घुटवाँ खेले लांगुरिया के सरपट दौड़े लांगुरिया
कैला मैया के...
मुझे अपने बचपन से अब तक लांगुरिया की दो लाइनें याद है...
आज मिलों मोय गैल(रास्ते में) में एक भैरण्ट( सुपर से बहुत ऊपर) लांगुरिया
एसो भैरण्ट लांगुरिया, एसो भैरण्ट लांगुरिया