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वैज्ञानिक अध्यात्मवाद ही मनुष्यता का एकमात्र लक्ष्य

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सुशील कुमार शर्मा

मनुष्य की विशेषता उसके विचार हैं। विचारों की विकास यात्रा में ही धर्म, दर्शन एवं विज्ञान उपजे एवं पनपे हैं। इन तीनों का ही मकसद मानवीय जीवन को पूर्णता तक पहुंचाना एवं समाज को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत करना है। 


 
वैज्ञानिक विकास के विभिन्न पहलुओं को तो हम रोजमर्रा के जीवन में देखते-परखते ही रहते हैं। सामान्य तौर पर पश्चिमी दृष्टिकोण को वैज्ञानिक एवं पूर्वी दृष्टि को आध्यात्मिक माना जाता है।
 
वैज्ञानिक मनोवृत्ति ज्ञान के विकास को बढ़ावा देती है। इस तरह वह दर्शन के समीप आ जाती है। आध्यात्मिकता ईश्वर के प्रति विश्वास को, श्रेष्ठता को, आदर्शों की पराकाष्ठा को कहते हैं। ऐसी आदर्श पारायण वृत्ति के प्रति जो झुकने के लिए जन-साधारण को आंदोलित करने लगे, वह आध्यात्मिक मनोवृत्ति है।
 
नीति और मर्यादा की उपेक्षा करके चल रही वैज्ञानिक प्रगति एक हाथ से सुविधा संवर्धन करती है और दूसरे हाथ से व्यक्ति की गरिमा तथा समाज की सुव्यवस्था पर भारी आघात पहुंचाती है, लेकिन विज्ञान दुराग्रही नहीं है। वह लगातार के प्रयोग-परीक्षण के बाद ही किसी तथ्य को स्वीकारता और उसे प्रामाणिक ठहराता है। इसी ठोस आधार पर सिद्धांत विनिर्मित होते हैं।
 
अध्यात्म श्रद्धा-विश्वास से शुरू होकर तर्क के दायरे से ऊपर उठ जाता है। उसे सिर्फ अनुभव किया जाता है, परखा नहीं जा सकता। विज्ञान और अध्यात्म का कार्यक्षेत्र अवश्य भिन्न है, पर कार्य-पद्धति तथा उद्देश्य दोनों में साम्य हैं। दोनों ही सत्यान्वेषण की प्रक्रिया में अलग-अलग मार्गों से प्रगतिशील हैं। 
 
आस्तिकता, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता की मान्यताओं को हमें विज्ञान के आधार पर सही सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ेगा। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की एक नई दिशा का निर्माण करना जरूरी है। 5 तत्व ही मिलकर शरीर के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों का निर्माण करते हैं। इन तत्वों की स्थिति ही क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म होती गई है। 
 
 
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पृथ्वी से शरीर का विकास होता है। अग्नि से दृश्य की अनुभूति होती है। वायु से शरीर में प्राणों का संचार होता है, गति एवं चेतनता आती है। आकाश-तत्व इन सबसे सूक्ष्म अदृश्य एवं नियंत्रक है। विचार, भावनाएं और विज्ञान उसी से प्रादुर्भूत होता है।
 
विज्ञान ने अब इतनी प्रगति कर ली है कि वह भौतिकवादी मान्यताओं को पीछे छोड़कर आध्यात्मिक तत्वों के अनुसंधान और अनुशीलन की कक्षा में जा पहुंचा है। अलबर्ट आइंस्टीन का सापेक्षतावाद (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। संसार के जितने भी पदार्थ हैं, वे 3 प्रकार के आकारों के अंतर्गत आते हैं।
 
सरल या सीधी रेखा जिसमें केवल लंबाई होती है एक विमितीय (वन डायमेंशन), आयत (रेक्टिंगल) जिसमें लंबाई और चौड़ाई होती है, द्विविमितीय (टू डायमेंशन) और इसी प्रकार कोई ठोस (सॉलिड) वस्तु लें तो उसमें लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई (थ्री डाइमेंशंस) होंगे। हम एक और चौथे डायमेंशन समय (टाइम) की तब तक कल्पना नहीं करते, जब तक कि वस्तुओं के स्वरूप को अच्छी प्रकार समझ नहीं लेते। सभी पदार्थ समय की सीमा से बंधे हैं अर्थात हर वस्तु का समय भी निर्धारित है, उसके बाद या तो वह अपना रूपांतर कर देता है या नष्ट हो जाता है।
 
विज्ञान का अभी अत्यल्प विकास हुआ है। उसे काफी कुछ जानना बाकी है। बाह्य मन और अंतरमन की गतिविधियों के शोध से ही अभी आगे बढ़ सकना संभव नहीं है। विज्ञान लगातार बिना रुके प्रगति करता चला जा रहा है। इसका उद्देश्य एकतत्व मूलतत्व की प्राप्ति है। इस लक्ष्य की प्राप्ति अंत:प्रज्ञा से ही होगी, बौद्धिक विवेचना से नहीं। क्वांटम थ्योरी के प्रवेश के बाद अब एकतत्व का मार्ग प्रशस्त हो गया हैं जिसे 'ग्रांड सुनिफिकेशन ऑफ फोर्सेस' कहा जाता है।
 
यदि हम अधीर न हों तो आगे चलकर जब चेतन जगत में मूल तत्वों पर विचार कर सकने की क्षमता मिलेगी तो आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व भी प्रमाणित होगा। ईश्वर अप्रमाणित नहीं है। हमारे साधन ही स्वल्प हैं जिनके आधार पर अभी उस तत्व का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं हो पा रहा है। 
 
आधुनिक विज्ञानवेत्ता ऐसी संभावना प्रकट करने लगे हैं कि निकट भविष्य में ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित हो सकेगा। 13 करोड़ प्रकाश वर्ष के विराट क्षेत्र वाले इस ब्रह्मांड के मॉडल शरीर को वस्तुत: सृष्टि की सबसे विलक्षण मशीन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
 
साधनाओं के कठोर अभ्यास द्वारा चेतना के गहन अंतराल में प्रविष्ट हो तत्वदर्शी ऋषियों ने इस शरीर को ब्रह्मांड की प्रतिकृति के रूप में पाया। इसमें ऐसे-ऐसे चक्र, कोश, उपत्यिकाएं, नाड़ी गुच्छक और दिव्य क्षमता संपन्न केंद्र विद्यमान हैं जिन्हें देखकर उन्हें 'यत् ब्रह्मांडे तत्पिण्डे', जो कुछ ब्रह्मांड में है, वह सारा का सारा इस पिंड (देह) में विद्यमान है।
 
वस्तुत: यह ध्यान-प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न की गई 'अल्फा-स्टेट' होती है जिसमें मस्तिष्क से लगातार अल्फा तरंगें ही प्रस्फुटित होती रहती हैं। पाली में इस अवस्था को ज्ञान कहते हैं। चीनी साधकों का 'चान' और जापानी योग साधकों की 'जेन' भी यही प्रक्रिया है।
 
हमारे घनीभूत अनुभवों में ज्ञान के लिए उत्साह, सौंदर्य हेतु प्रेम, नैतिकता की आशा एवं दैवी संवेदनाओं को अमान्य तो नहीं किया जा सकता। विज्ञान पदार्थ से सत्य का प्रकटीकरण करता है ये ठीक है, परंतु इसमें आध्यात्मिक मूल्यों का भी समावेश भी अनिवार्य है।
 
तत्व-दर्शन और पदार्थ-विज्ञान का समन्वय ही अंतरंग उत्कृष्टता और बहिरंग संपन्नता का लाभ दे सकता है। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक एवं सहयोगी हैं। वैज्ञानिक प्रयोगवाद भी कम आवश्यक नहीं है, क्योंकि वे सब इस आधारभूत तथ्य से आरंभ करते हैं कि किस चीज का अस्तित्व है और यही धर्म को अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए सहायता करता है।
 
विज्ञानवेत्ता बुद्धिवाद तथा जड़वाद की संकीर्ण सीमाओं को तोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। अध्यात्मवेत्ताओं का कर्तव्य है कि वे भी लोक-मान्यताओं, चित्र-विचित्र प्रचलनों की विडंबनाओं में मुक्त हों, तभी इसमें सही ढंग से निखार आ सकेगा। 
 
विज्ञान को आध्यात्मिकता अपनानी होगी और अध्यात्म को वैज्ञानिक होना पड़ेगा, तभी मनुष्य और मनुष्यता का विकास संभव है।

 
 

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