श्री जगन्नाथ यात्रा का वृत्तांत
प्रतिवर्ष ओडिशा के पूर्वी तट पर स्थित नगरी जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथदेवजी की रथयात्रा का उत्सव पारंपरिक रीति के अनुसार आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर मंदिर के सेवक श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव और उनकी बहन श्री सुभद्राजी को मंदिर से बाहर लाकर उन्हें एक-एक विशाल रथ पर बिठाते हैं। भक्त लोग इन रथों को खींचकर गुण्डिचा मंदिर तक ले जाते हैं, जहां श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव और श्री सुभद्राजी 1 सप्ताह तक विश्राम कर पुन: श्री जगन्नाथ मंदिर लौट आते हैं। इस रथयात्रा का उद्देश्य यह है कि वे लोग, जो समूचे वर्षभर मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकते हैं, उन्हें भगवान के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो। यह तो हुआ बाह्य कारण। इसके गूढ़ रहस्य को श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रकट किया है। श्री जगन्नाथ मंदिर द्वारका अथवा कुरुक्षेत्र सदृश है और गुण्डिचा मंदिर वृंदावन का प्रतीक है।
स्कंदपुराण एवं पुरुषोत्तम महात्म्य के अनुसार सतयुग में अवंती (उज्जैन) नगरी में इन्द्रद्युम्न नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम गुण्डिचा था। नि:संतान होने पर भी वे इसे भगवन् कृपा मानते एवं उनके हृदय में भगवान के साक्षात् दर्शन की प्रबल इच्छा थी। अपने महल के अतिथिगृह में तीर्थयात्रियों के आदर-सत्कार के दौरान उन्हें श्री विग्रह नीलमाधव के बारे में पता चला जिनके दर्शन से इस दु:खमय संसार से मुक्ति हो जाती है। यह सुनकर राजा के मन में नीलमाधव के दर्शन की तीव्र उत्कंठा जाग उठी एवं राजा इन्द्रद्युम्न ने अपने पुरोहित विद्वान पुत्र विद्यापति एवं अन्य कर्मचारियों को सेनापतियों को विभिन्न दिशाओं में जाकर श्री विग्रह नीलमाधव को ढूंढने का आदेश दिया एवं 3 माह में लौटने को कहा। 3 माह पश्चात विद्यापति को छोड़कर सभी कर्मचारी, सेनापति असफल होकर लौट आए।
उधर विद्यापति नीलमाधव के श्रीविग्रह को ढूंढने हेतु निरंतर भ्रमण करने के दौरान एक समृद्धशाली गांव के प्रधान विश्वावसु के यहां बतौर अतिथि ठहरे, जहां उनकी पुत्री ललिता ने उनकी देखभाल की एवं दोनों में प्रेम हुआ एवं विद्यापति का विवाह ललिता के साथ संपन्न हो गया। विश्वावसु प्रतिदिन बाहर से लौटते तो उनकी देह से अद्भुत सुगंध आती थी। विद्यापति ने इस बारे में ललिता से पूछा तो उसने कहा कि पिताजी ने यह रहस्य किसी से भी बताने से मना किया है। विद्यापति ने कहा कि पत्नी को पति से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए तब ललिता ने बताया कि उनके पिता नीलमाधव की पूजा करने जाते हैं। विद्यापति ने भी नीलमाधव के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। तब ललिता ने पिता विश्वावसु से अपने पति को साथ ले जाने की मंशा व्यक्त की एवं न ले जाने पर प्राण त्याग ने की बात कही। परंतु विश्वावसु को चिंता थी कि अनाधिकारी व्यक्ति को वहां ले जाने पर कहीं नीलमाधव अप्रकट हो गए तो मैं अपने आपको कैसे क्षमा कर पाऊंगा?
एक और पुत्री का स्नेह था तो दूसरी ओर नीलमाधव के भावी विरह की आशंका। परंतु उन्होंने पुत्री से कहा कि उसके पति को वे साथ अवश्य ले जाएंगे, परंतु उनकी आंखों पर काली पट्टी बांधकर एवं मंदिर पहुंचने पर ही हटाऊंगा जिससे कि वे नीलमाधव के दर्शन कर सकें एवं दर्शन के उपरांत पुन: पट्टी बांध दूंगा जिससे वे वास स्थान न जान पाएंगे।
बाद में विद्यापति एवं पत्नी ने योजना बनाई कि बाद में मैं भी उनके दर्शन अकेले जाकर कर पाऊं। विश्वावसु के साथ बैलगाड़ी में जाते वक्त सरसों की पोटली से सरसों के दाने मार्ग में गिराते गए जिससे बाद में सुंदर पुष्प वाले पौधों से मार्ग का पता लग जाएगा। मंदिर पहुंचकर देखा तो नीलमाधव ने शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे।
विद्यापति नीलमाधव के दर्शन कर पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गए। इसी बीच जब विश्वावसु पुष्प व पूजन सामग्री लेने बाहर गए तो विद्यापति मंदिर के समीप एक सरोवर के पास टहलने लगे। तभी उन्होंने देखा कि पेड़ की डाली से एक कौआ सरोवर में गिर पड़ा एवं प्राण त्याग दिए एवं उसने संदर चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। उसी क्षण गरुड़जी वहां उपस्थित हुए एवं उसे बैठाकर बैकुंठ की ओर ले चले। विद्यापति ने सोचा कि एक साधारण अपवित्र कौआ। परंतु सरोवर में गिरने मात्र से इसकी श्रेष्ठ गति हुई, अत: क्यों नहीं यहीं प्राण त्यागकर में भी बैकुंठ चला जाऊं?
तभी आकाशवाणी हई कि बैकुंठ जाने के लोभ में आत्महत्या मत करो। तुम्हें जगत के हित के लिए अनेक महत्वपूर्ण सेवाएं करनी है एवं शीघ्र महाराज इन्द्रद्युम्न के पास लौटकर उन्हें नीलमाधव के यहां होने की सूचना दो। उस रात्रि को नीलमाधव ने स्वप्न में विश्वावसु से कहा कि यद्यपि तुमने अत्यधिक, बहुत समय तक मेरी सेवा की हैं और मैं तुमसे अत्यधिक संतुष्ट भी हूं तथापि अब मैं एक प्रिय भक्त महाराज इन्द्रद्युम्न से सेवा ग्रहण करना चाहता हूं।
विश्वावसु अत्यंत विचलित होकर उनसे दूर होने की कल्पना से ही परेशान हो उठे। इधर विद्यापति ने भी अवंती नगरी जाने की बात उठाई तो विश्वावसु ने विद्यापति को अपने कक्ष में ही बंदी बना लिया, परंतु पुत्री के कहने पर मुक्त होकर वे अवंती की ओर प्रस्थान कर गए एवं महाराज को सूचित किया।
इधर महाराज इन्द्रद्युम्न, सेना, प्रजा के साथ सरसों के पौधों से निर्मित पथ के माध्यम से नीलमाधव मंदिर पहुंचे, परंतु वहां देखा कि मंदिर में नीलमाधव नहीं थे। राजा ने सोचा कि विश्वावसु ने उन्हें गांव में छिपा दिया होगा। राजा ने विश्वावसु सहित सभी शबर लोगों को बंदी बना लिया एवं निराश होकर प्राण त्यागने का प्रण लिया, साथ ही स्मरण कर नीलमाधव को पुकारने लगे। इतने में आकाशवाणी हुई कि राजन, शबर लोगों को छोड़ दो। मैं इस जगत में नीलमाधव के रूप में तुम्हें दर्शन नहीं दूंगा किंतु में जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के रूपों में प्रकट होऊंगा। तुम सभी महासागर के निकट बंकिम मुहाना (चक्रतीर्थ) के समीप प्रतीक्षा करो। मैं दारूबह्न (लकड़ी के रूप में स्वयं भगवान) के रूप में वहां सागर में आऊंगा। मैं एक विशाल सुगंधित लाल वृक्ष की लकड़ी के रूप में प्रकट होऊंगा। उस पर शंख, चक्र, गदा व पद्म चिह्न होंगे। उस दारूबह्म को वहां से निकालकर तुम उससे चार विग्रह बनवाकर मंदिर में स्थापित कर पूजा-अर्चना करना।
राजा ने वहां विग्रहों की स्थापना हेतु विशाल मंदिर का निर्माण करवाया एवं ब्रह्माजी के हाथों प्रतिष्ठा करवाने का विचार किया। समुद्र में लाल वृक्ष का तना दिखाई देने पर उसे सैनिकों व हाथियों की सहायता से बाहर निकालने का प्रयास किया गया लेकिन असमर्थ रहे। तभी आकाशवाणी में बताया गया कि मेरे पुराने सेवक विश्वावसु, पुत्री ललिता और उनके दामाद विद्यापति को बुलाकर मुझे स्वर्ण रथ में ले जाओ। तत्पश्चात एक ओर से विश्वावसु एवं दूसरी ओर से ललिता एवं विद्यापति ने सहजता से उसे बाहर निकाला एवं स्वर्ण रथ पर रख दिया एवं ओडिशा के शिल्पकारों को आमंत्रित कर श्रीविग्रह का निर्माण करने पर धन-संपत्ति देने का वादा किया। परंतु उनके औजार तने को स्पर्श मात्र से ही छिन्न-भिन्न हो जाते। तब एक वृद्ध किंतु सुंदर महाराणा नामक ब्राह्मण ने विग्रह निर्माण की जिम्मेवारी ली कि 21 दिनों तक इस भवन का द्वार मेरे कार्य करने तक बंद रहेगा। उससे पूर्व द्वार खुला तो मैं कार्य अधूरा छोड़कर चला जाऊंगा।
राजा ने शर्त पालन का वचन दिया। 14 दिन बाद अंदर से कोई शब्द सुनाई नहीं देने पर राजा ने चिंतित होकर सोचा कि कहीं ब्राह्मण के बिना खाने-पीने के प्राण तो नहीं छुट गए? रानी गुण्डिचा के आग्रह पर द्वार खोल दिए गए। कक्ष में ब्राह्मण को न पाकर महाराज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। श्री जगन्नाथ देव, श्री बलदेव, श्री सुभद्रादेवी और श्री सुदर्शन चक्र इन चारों के श्रीविग्रह भी वहां असंपूर्ण अवस्था में विद्यमान थे। उनके नेत्र और नासिकाएं गोलाकार थीं। उनकी भुजाएं आधी बनी थीं। हाथ-पैर भी अभी संपूर्ण नहीं थे।
एक अन्य घटनाक्रम के अनुसार राजा ने द्वार खोला तो अंदर ब्राह्मण मौजूद थे एवं उन्होंने कहा कि अभी तो 14 दिन हुए हैं और विग्रहों को पूर्ण करने के लिए 7 दिनों की आवश्यकता थी। संभवत: श्री जगन्नाथ देवजी की इच्छा से ही ऐसा हुआ हो, ऐसा कहकर वे अदृश्य हो गए। तब महाराज को आभास हुआ कि वे स्वयं जगन्नाथ देव ही थे।
राजा को अपने वचन तोड़ने का पश्चाताप हुआ तो वे अपना प्राण त्यागने को प्रस्तुत हुए। तभी आकाशवाणी द्वारा राजा को आदेश मिला कि चिंता मत करो, मैं स्वयं ही इसी रूप में प्रकट होना चाहता था एवं इन विग्रहों को इसी रूप में मंदिर में स्थापित करो। विद्यापति की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न पुत्र मेरी पूजा करे एवं शबर पत्नी से उत्पन्न पुत्र मेरे लिए विविध प्रकार के व्यंजन बनाए। विश्वावसु के गांव में दयिता और उनके वंशज रथयात्रा के समय 10 दिनों तक मेरी सेवा करें वे दयिता ही श्री बलदेव, सुभद्रादेवी और मुझे रथों पर बिठाकर गुण्डिचा मंदिर में ले जाए। उन दिनों प्रत्येक वर्ष रथयात्रा हेरा पंचमी आदि उत्सवों का विराट आयोजन करना है।
यह समस्त लीला (अर्थात श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव, श्री सुभद्रा और श्री सुदर्शनजी के अद्भुत रूप में आविर्भूत होने की लीला) अद्भूत रूप में रानी गुण्डिचा की प्रार्थना के परिणामस्वरूप ही प्रकाशित हुई थी। इसलिए जगन्नाथजी, बलदेवजी व सुभद्राजी रथयात्रा के समय जिस मंदिर में 1 सप्ताह तक विश्राम करते हैं, उसका नाम गुण्डिचा (रानी) के नाम पर गुण्डिचा मंदिर रखा गया। विश्वावसु के गांव के दयिता श्रीविग्रहों को मंदिर में लाकर रथों पर बिठाकर उस महोत्सव के दौरान 10 दिनों तक सेवा करते हैं। ललिता से उत्पन्न वंशज सुपकार कहलाते हैं एवं भगवान जगन्नाथ ने उन्हें भोग बनाने का दायित्व सौंपा। ये सुपकार पाक कला में दाल और अन्य व्यंजन बना लेते हैं।
रथयात्रा में बलदेव प्रभु का रथ सबसे आगे, उनके पीछे श्री सुभद्राजी का रथ और सबसे पीछे श्री जगन्नाथदेव का रथ होता है। प्रतिवर्ष रथयात्रा प्रारंभ होने से पूर्व ओडिशा के राजा रथ चलने वाले मार्ग पर झाडू लगाकर उसे साफ करते हैं। यह प्रथा प्राचीनकाल से ही है। राजा अपनी राज पोशाक त्यागकर साधारण व्यक्ति जैसे वस्त्र धारण करते हैं और अपने हाथों से मार्ग में चंदन जल छिड़ककर स्वर्ण के हत्थेवाले झाडू से मार्ग की सफाई करते हैं। पूर्व में लोगों में भगवान श्री जगन्नाथ के प्रति कोई विशेष भाव रथयात्रा में कीर्तन और नृत्य न होने से विशेष भाव उदित नहीं होते थे, किंतु बाद में कीर्तन-नृत्य के द्वारा अपने आंतरिक भावों को प्रकट कर रथयात्रा को भक्ति रसमय बना दिया गया और इस रस के आस्वादन हेतु बंगाल, ओडिशा बिहार और भारतवर्ष के अन्य स्थानों से लाखों की संख्या में भक्त लोग प्रतिवर्ष रथयात्रा में आने लगे। लगभग 50-60 लाख लोग प्रतिवर्ष।
लेखक : मनोज शर्मा ( पूर्व संयुक्त निदेशक (राभा) परमाणु ऊर्जा विभाग, नई दिल्ली। अनुवादक, स्वतंत्र लेखक और योग शिक्षक।)