ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वट सावित्री के पूजन का विधान है। इस दिन महिलाएं दीर्घ सुखद वैवाहिक जीवन की कामना से वटवृक्ष की पूजा-अर्चना कर व्रत करती हैं।
लोककथा है कि सावित्री ने वटवृक्ष के नीचे पड़े अपने मृत पति सत्यवान को यमराज से जीत लिया था। सावित्री के दृढ़ निश्चय व संकल्प की याद में इस दिन महिलाएं सुबह से स्नान कर नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार करती हैं। वटवृक्ष की पूजा करने के बाद ही वे जल ग्रहण करती हैं।
पूजन विधि : इस पूजन में स्त्रियां चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियां अपने आंचल में रखकर बारह पूरी व बारह बरगद वटवृक्ष में चढ़ा देती हैं। वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वे वृक्ष की बारह परिक्रमा करती हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती हैं और सूत तने पर लपेटती जाती हैं।
परिक्रमा पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। फिर बारह तार (धागा) वाली एक माला को वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को गले में डालती हैं। छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब स्त्रियां ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती हैं।
इस तरह व्रत समाप्त करती हैं। इसके पीछे यह कथा है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वटवृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था।
आधुनिक संदर्भ में सोचा जाए तो कथा तो शायद सरल, सुगम तरीके से स्त्रियों को बात समझाने के लिए है और वृक्ष पूजा का अनुष्ठान वृक्ष से नाता जोड़ने के लिए। धरती पर हरे-भरे पेड़ रहें तभी तो स्त्री उनकी पूजा कर सकेगी।