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गुरु पूर्णिमा क्यों?

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महर्षि पाराशर और मछुआरे की पुत्री सत्यवती के पुत्र का नाम श्रीकृष्ण था। द्वीप पर पैदा होने के कारण उसे कृष्ण द्वैपायन कहा जाता था।
 
अपने पूर्वजों की भांति कृष्ण द्वैपायन भी अत्यंत मेधावी, तपस्वी परमात्मा की खोज में निरंतर संलग्न रहने वाले थे। वे भी उस विद्या के अभ्यर्थी थे जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई भी व्यक्ति संसार के द्वंद्वों से मुक्त हो सकता है। इसी के विषय में कहा गया है- 'सा विद्या या विमुक्तये' और इसी विद्या को 'वेद' कहते हैं। वेद अनादि और अनंत है। वेद सृष्टि से पूर्व भी था, आज भी है और प्रलय के बाद भी रहेगा। वह अविनाशी है। किंतु उसे जानने अथवा प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक की भांति कठोर साधना करनी पड़ती है। 
 
कृष्ण द्वैपायन से पूर्व सारे ऐसे साधकों ने जिन्हें हम ऋषि कहते हैं, ने इस वेद को जाना, उसे साक्षात देखा और पूर्ण रूप से मुक्त जीवन जिया। परमात्मा का साक्षात्कार करने के कारण उन्हें दृष्टा भी कहा जाता है। इन ऋषियों ने अपने जिज्ञासु शिष्यों को मौखिक रूप से सुनाकर यह विद्या प्रदान की। सुन-सुनकर यह विद्या अन्यान्य ऋषियों को प्राप्त हो रही थी और इसीलिए इस विद्या को 'श्रुति' भी कहा जाता है।
महर्षि कृष्ण द्वैपायन ने इन ऋषियों के द्वारा बतलाए गए ज्ञान को संकलित करके 4 भागों में संहिताबद्ध किया। इनके नाम- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद हैं। इनमें से प्रत्येक का विषय वेद ही है। वेद संपादन का कार्य कृष्ण द्वैपायन ने व्यास रूप से अर्थात विस्तार से किया था इसलिए अब लोग उन्हें वेदव्यास कहने लगे।
 
वेद को व्यास के रूप में संहिताबद्ध करने के पश्चात व्यासजी की इच्छा हुई कि इस विशद ज्ञान को संक्षेप में विद्वानों के लिए प्रस्तुत कर दिया जाए। इसलिए उन्होंने उस संपूर्ण विद्या को ब्रह्म सूत्र के रूप में लिख दिया। ब्रह्म सूत्र को व्यास सूत्र भी कहते हैं। इसके बाद उन्होंने इस संपूर्ण ज्ञान को एक विशिष्ट शैली में एक ग्रंथ में समाहित कर दिया।

इस ग्रंथ को पंचम वेद कहते हैं जिसे हम 'महाभारत' के रूप में जानते हैं। भगवद् गीता इसी महान ग्रंथ का एक भाग है। किंतु दूरदृष्टा महर्षि वेदव्यास वेदों के गूढ़ ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाना चाहते थे और इसलिए पहले उन्होंने अत्यंत रोचक कथाओं के माध्यम से 17 पुराण लिख डाले। फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और अंत में उन्होंने 18वां पुराण श्रीमद् भागवत की रचना की। यह ग्रंथ वास्तव में ब्रह्म अथवा श्रीकृष्ण का साक्षात शब्द विग्रह है। 

 
ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और भगवद् गीता प्रस्थानत्रयी ही कहलाते हैं और इनमें ही चारों वेदों के अंतिम भाग या ज्ञानकांड का मूल स्वरूप वर्णित है और इसलिए इसे ही वेदांत कहते हैं।
 
संपूर्ण सनातन वैदिक संस्कृति महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित इन ग्रंथों पर आधारित आदिशंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, बल्लभाचार्य आदि अनेक आचार्यों, दार्शनिकों, महात्माओं, संतों आदि ने इन्हीं के आधार पर संपूर्ण मानवता को ज्ञान का प्रकाश दिया है। ज्ञान, कर्म और भक्ति के मार्ग इन्हीं ग्रंथों से निकले हैं। षड् दर्शन इन्हीं ग्रंथों की उत्पत्ति है। चैतन्य महाप्रभु, कबीर, नानक, संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, सूरदास, तुलसीदास, मीरा आदि कई का समाज को प्रदेय वेदव्यास द्वारा रचित इन्हीं ग्रंथों का प्रसाद है।

भारत की किसी भी भाषा के लेखक, कवि, कलाकार अथवा संगीतकार का आदि स्रोत यही ग्रंथ हैं। जो कुछ सनातन वैदिक संस्कृति की मान्यताएं हैं, वे सब इन्हीं से निकली हैं। सारे विश्व में भारत की पहचान इन्हीं ग्रंथों के विचार अर्थात वेदांत से होती है।
 
चूंकि हमने सब कुछ महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रणीत ग्रंथों से सीखा और प्राप्त किया है। इसलिए वे ही सनातन वैदिक संस्कृति के आदि गुरु हैं और इसलिए युगों से हम उनके जन्मदिन आषाढ़ की पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। 
 
महर्षि वाल्मीकि और व्यास द्वारा संपादित एवं रचित ये प्राचीनतम ग्रंथ ही समस्त भारतीय वाङ्मय के आदिस्रोत हैं। भारत की किसी भी भाषा के किसी भी विद्या में लिखित साहित्य के मर्म को समझने के लिए इन ग्रंथों का सम्यक् प्रकारेण अनुशीलन नितांत आवश्यक है। 
 
साभार - देवपुत्र 

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