प्रभु शक्ति से संसार का संचालन
धर्माचार्य पूरण चन्द्र पाठक ने गीता उपदेशों में कहा संसार में जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है वह परमात्मा की अपरा और परा शक्ति से ही संचालित है। समस्त इन्द्रियाँ, पंचतत्व एवं अष्ट प्रकृतियाँ परमात्मा को प्रभावित नहीं करती, अपितु उनके प्रभाव आकर्षण से अपना-अपना कार्य करती हैं।उन्होंने कहा अर्जुन को राजविद्या का ज्ञान देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि संसार में जो भी है वह मेरे द्वारा उसी प्रकार सूत्र बद्ध है जैसे मणियों की माला धागे में पिरोई होती है। भगवान श्रीकृष्ण शब्दों में प्रणव अर्थात् ऊँ है। पृथ्वी का लक्षण रूप पुण्य गन्ध भी भगवान ही हैं। सभी प्राणियों में जीवन शक्ति एवं तपस्वियों का तप भी भगवान श्रीकृष्ण हैं।आचार्य जी ने कहा संसार के समस्त ऐश्वर्य एवं विभूतियाँ परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण है। इसका भाव यह है कि यदि ईश्वरत्व की प्राप्ति करनी है तो श्रेष्ठता का आचरण करते जाइए। श्रेष्ठ आचरण ही मनुष्य से ईश्वर बनने की सीढ़ी है। निकृष्ट आचरण मनुष्य को पतन की ओर ले जाकर अधम आसुरी वृत्ती का बना देता है।
धर्मोपदेशों में आचार्य जी ने समझाया कि अन्तमति ही गति का कारण होती है अर्थात् जीवन मुक्ति के समय जिस प्रकार का चिन्तन रहेगा उसी प्रकार की गति होती है। जीवात्मा की अतः जो लोग संसार का व्यवहार करते हुए प्रत्येक क्षण ईश्वर का स्मरण करते है। अंत समय में उनके चिन्तन में परमात्मा रहने से उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं तुम मेरा स्मरण करते हुए इस धर्म युद्ध को करो क्योंकि मुझे समर्पित मन और बुद्धि किसी भी कर्म बंधन में बाँध नहीं सकती ऐसी स्थिति में किया गया कर्म निष्काम कर्म कहलाता है।गुरु भक्ति का महत्व बताते हुए कहा गुरु की सेवा करने से सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है। सेवा भाव से अर्जित विद्या अहंकार से मुक्त होती है। शिष्य के अन्तःकरण में शब्दों के द्वारा गुरु प्रज्ञा जागृत कर देते हैं। वस्तुतः जागृत व्यक्ति ही जीवित होता है। अन्यथा संसार में भार बनकर घूमने वालों एवं पशुओं में कोई अंतर नहीं होता।