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होली उत्सव भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित

- डॉ. गोविन्द बल्लभ जोशी

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धर्म आलेख

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होली का उत्सव भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित प्रीतिपूर्वक मिलन का उत्सव है। होली का पर्व वस्तुतः प्रीतिपूर्वक समन्वय का सबसे विराट पर्व भी है जिसमें छोटे-बड़े, बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष आदि भेदभाव से रहित केवल गायन-वादन एवं नृत्य के विविध रंगों के रंग में रंग जाना ही इसकी फितरत है। राजधानी दिल्ली एक लघु विश्व का रूप है जिसमें देश ही नहीं, विदेशों के नागरिक भी सैलानियों के रूप में बड़ी संख्या में चहल-कदमी करते दिखाई देते हैं। अनेक देशों के दूतावास दिल्ली में हैं। वहाँ कार्यरत स्वदेशी और विदेशी कर्मचारियों के परिवार परस्पर मिलकर सभी पर्वों पर बधाई देते हैं लेकिन होली के रंग में रंग जाना तो इन सबके लिए एक निराला ही जश्न होता है।

इसी प्रकार होली के उत्सव में दिल्ली की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ रहने वाले उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड के लोग अपनी-अपनी परंपराओं के अनुसार होली का आनंद लेते हैं जिसमें होलाष्टक को चीर ध्वजा के पूजन-बंधन के साथ ही रात्रिकालीन फाग गीतों का गायन प्रारंभ हो जाता है।

लोग रात का भोजन करने के बाद एक स्थान पर एकत्रित होकर ढोल, मृदंग, हारमोनियम, मजीरा आदि के साथ होली के विविध रागों का गायन प्रस्तुत करते हैं। इसमें मुख्यतः बृज गायन शैली ही केंद्र में होती है और उसके साथ ही कजरी, भोजपुरी, टप्पा, मैथिली शैली में भी होली के गीत प्रस्तुत किए जाते हैं। रोहिणी, जनकपुरी, डाबड़ी, रामकृष्णपुरम, पुष्पविहार, साकेत, बदरपुर, यमुनापार, विनोदनगर, लक्ष्मीनगर, भजनपुरा, नेहरू विहार, बुराड़ी आदि उपनगरों में अनेक गायन मंडलियाँ इस विद्या को वर्षों से दिल्ली में संजोए-सवारे हुए हैं।

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आजकल होली को प्रायः लोग एक दिन रंग लगाकर मौज-मस्ती एवं हुड़दंग करना ही मान बैठे हैं लेकिन यह इसका एक पक्ष है। इसका मूल उद्देश्य प्रीत के गीतों का संयोग-वियोग दोनों पक्ष गायन के द्वारा अभिव्यक्त करना है। इसका उदाहरण उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली के द्वारा दिल्ली में भी दिखाई देता है। लोग गायक शिवदत्त पंत कहते हैं कि होली एक विशेष प्रकार की गायन शैली है जिसमें राग काफी चांचर, जत, झिंझौटी, जंगलाकाफी एवं विहाग आदि रागों की प्रस्तुति होती है। आज भी हम दिल्ली में रहते हुए यह प्रयास करते हैं कि होली की गायकी शैली प्रतिवर्ष प्रस्तुत होती रहे।

होली की गायन बैठक कई दिन पूर्व से हो जाती है। जिसमें लोक गायक होली की शास्त्रीय गायन शैली को प्रस्तुत कर कृष्ण भक्ति के विविध रूपों को श्रोताओं के समक्ष रखकर आत्मविभोर कर देते हैं। कुमाऊंनी होली के बैठक एवं खड़ी होली दोनों की प्रस्तुति वर्षों से होती आ रही है। बैठक होली में राग काफी वृंदावनी सारंग, आभोग, जंगला, खमाज आदि रागों में श्रृंगार रस के वियोग एवं संयोग दोनों पक्षों का गायन होता है तो खड़ी होली में मिलन की खुशी के प्रसंगों को शब्दों से बताने वाले गायन की प्रस्तुति की जाती है। होली गाने वाली टोली को हुलारे कहा जाता है।

अतः हुलारे गोल घेरे में ढोल की थाप के साथ जब गाने लगते हैं -'लागो फागुन मास जोबन मानत नहीं,'। इसके बाद सभी उपस्थित जन मानस स्वर में स्वर ताल में ताल मिला कर नाच उठते हैं । इस प्रकार धुलैंडी को अबीर गुलाल और रंग वर्षा के बाद प्रसाद वितरण से होलिकोत्सव संपन्न होता है।

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