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वह अलौकिक दिव्य ज्योति...

कैलाश मानसरोवर यात्रा

हमें फॉलो करें वह अलौकिक दिव्य ज्योति...
कैलाश मानसरोवर का तट। रात के करीब साढ़े तीन बजे का समय। खून जमा देने वाली ठंड मगर आस्था का आवेग पूरे चरम पर। इंतजार खत्म हुआ। दूर कहीं से दिव्य ज्योति सरोवर के दूसरे किनारे से ऊपर की ओर उठती हुई दिखी, जिसका प्रतिबिंब मानसरोवर में साफ दिखाई पड़ रहा था। साक्षात, अद्भुत, ‍‍अविश्वसनीय और अलौकिक था वह दृश्य। हम सबके मस्तक श्रद्धा से स्वत: ही झुक गए। हमने नमन किया ...और कुछ ही देर में यह दिव्य ज्योति अनंत में विलीन हो गई।
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इस अद्‍भुत, अलौकिक और दिव्य रोमांच से रूबरू हुए थे इंदौर निवासी बीपी उइके और उनकी अर्द्धांगिनी श्रीमती वृंदा उइके। कुछ समय पहले ही मानसरोवर यात्रा से लौटे दंपति ने जब अपनी यात्रा का वृत्तांत सुनाया तो उनके चेहरे पर उत्साह मिश्रित प्रसन्नता थी तो आंखों में आस्था की चमक। कैलाश के बारे में मान्यता है कि वहां साक्षात आशुतोष भगवान शिव विचरण करते हैं।
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यूं तो मानसरोवर यात्रा उत्तराखंड के रास्ते भी तय होती है, लेकिन इन्होंने काठमांडू के रास्ते जाना मुनासिब समझा। उइके बताते हैं कि नेपाल-काठमांडू के रास्ते चाइना बॉर्डर (तिब्बत भी) से होकर यह यात्रा बड़ी जिज्ञासा के साथ प्रारंभ हुई। मैं इंदौर से मेरे ईष्ट शिवशंकर भोलेनाथ के निवास कैलाश पर्वत के साक्षात दर्शन और मानसरोवर के पवित्र जल में स्नान के लिए रवाना हुआ।
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ट्रेन से निजामुद्दीन पहुंचकर दिल्ली से हवाई जहाज द्वारा काठमांडू पहुंचे। काठमांडू में नेपाली परंपरा से हमारे दल का स्वागत हुआ फिर पोखरना फॉरेस्ट रिसोर्ट में सभी ने विश्राम किया। अगली यात्रा के लिए सुबह का इंतजार। सुबह नहा-धोकर तैयार, नाश्ता करके अपने-अपने लगेज (बैगेज) शेरपाओं के हवाले किए और मैनेजर मयूर भाई और पयूथ के निर्देशन में अपनी-अपनी अलग बसों में बैठकर नेपाल-‍चाइना बॉर्डर की ओर रवाना हुए।

अगले पेज पर पढ़ें .... मुश्किलें काफी थीं, मगर .....


हरियाली से भरे नेपाल के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच से बस हमें कोडारी बॉर्डर ले गई, जहां दिन में लंच करके आगे की यात्रा के लिए तैयारी करना थी। यहां पर चाइना का बड़ा मुख्य बॉर्डर चेक पोस्ट है। चेक पोस्ट पर सभी या‍त्रियों की सघन चेकिंग की गई। अंतत: यहां से हम सभी ने चाइना-तिब्बत क्षेत्र में प्रवेश किया।
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चाइना-तिब्बत बॉर्डर से नई बस की व्यवस्था थी। शाम होने को थी और अगले पड़ाव के लिए हम न्यालम (चीन) के लिए रवाना हुए। कुछ दूर तक वही नेपाल की हरियाली फिर न्यालम तक बगैर पेड़-पौधे के बर्फ वाले पहाड़। रात 8-9 बजे तक न्यालम पहुंचे अगली सुबह अपनी-अपनी बसों से अगले पड़ाव की ओर रवाना हुए। न्यालम के पहले से हर यात्री की शारीरिक प्रतिक्रिया थोड़ी अलग-अलग रही। ऑक्सीजन की कमी के कारण थोड़ी घबराहट, सिरदर्द, थोड़ी मिचली या उलटी जैसी स्थिति थी फिर भी सभी को अच्छा खाना और खूब पानी पीने की हिदायत दी गई थी ताकि स्वस्थ रहकर यात्रा पूरी की जा सके।
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शाम तक सागा हो‍ते हुए हम डोम्बा पहुंचे, जहां रात्रि विश्राम के बाद अगली सुबह मानसरोवर की ओर रवाना हुए। रास्ते में हिमालय व कैलाश की बड़ी-बड़ी बर्फीली पर्वत श्रृंखलाएं मन मोह रही थीं तो ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल रोमांचित कर रहा था। सामान्य जमीन या पहाड़ों पर तिनकों की भी मौजूदगी नहीं होने से यहां ऑक्सीजन की कमी थोड़ी मुश्किल तो बढ़ा रही थी, लेकिन आस्था का ज्वार था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
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बार-बार यात्रियों का ऑक्सीजन लेवल चेक किया जा रहा था। किसी-किसी को ऑक्सीजन की कमी के कारण वापस भेजने की हिदायत, फिर भी यात्रा जारी थी, हम चले जा रहे थे। हम अपनी मंजिल मानसरोवर की ओर बढ़ रहे थे, जहां हम कभी भी पहुंच सकते थे। इस बीच मिलिट्री चेक-पोस्ट पर बीस-बीस यात्रियों की चेकिंग की गई। कहीं 1 घंटा तो कहीं 2 घंटे।

जंगली कुत्तों की खौफनाक आवाजें और दिव्य ज्योति के दर्शन... अगले पेज पर...


मानसरोवर के ठीक पहले चुगोम्पा चेक पोस्ट। ऐसा लग रहा था मानो हम बर्फीले रेगिस्तान में सफर कर रहे हों। अब तक हमने जिन बसों से यात्रा की उन्हें वहीं रोककर अन्य बसों से आगे की ओर बढ़े। 2-3 घंटे के इंतजार के बाद बस आई जो मानसरोवर की परिक्रमा करते हुए मानसरोवर के उस किनारे पहुंची, जहां यात्रियों के रुकने की व्यवस्था थी। बीच में राक्षस ताल भी मिला, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे शिवभक्त रावण ने राक्षसों के लिए बनवाया था। जनसामान्य के लिए यह तालाब वर्जित माना जाता है।
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रा‍त्रि होते-होते हम मानसरोवर पहुंचे। भोजन के बाद रात्रि विश्राम करना था, लेकिन नींद कहीं दूर ही छूट गई थी क्योंकि 'दिव्य ज्योति' के दर्शन के लिए हमें डेढ़-दो बजे जो उठना था। मयूर भाई ने रा‍त डेढ़ बजे सभी को जगा दिया। अपने-अपने कंबल लेकर मानसरोवर के किनारे हम सभी लाइन में बैठे थे, दिव्य ज्योति के दर्शन के लिए। अंधेरा था, ठंड भी शरीर को सुन्न करने पर आमादा थी। कभी-कभी जंगली कुत्तों के भौंकने की आवाज सिहरन पैदा कर रही थी। कुछ लोग अपने अपने कमरों में वापस लौट गए, लेकिन कुछ फिर भी दिव्य ज्योति के दर्शन‍ के लिए डटे थे।
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आखिर इंतजार खत्म हुआ। करीब साढ़े 3 बजे दूर कहीं से दिव्य ज्योति सरोवर के दूसरे तट से ऊपर की ओर उठती हुई दिख रही थी, जिसकी परछाई भी मानसरोवर में साफ नजर आ रही थी। साक्षात, अद्भुत, अलौकिक और अविश्वसनीय दृश्य। उस दृश्य को सभी अपलक निहारते रहे। कुछ समय बाद ही दिव्य ज्योति विलीन हुई, सभी अपने-अपने कमरों की ओर लौट गए।

मानसरोवर पर से ऐसे दिखाई देते हैं कैलाश... पढ़ें अगले पेज पर...



सुबह उठे तो कैलाश पर्वत के दर्शन हुए। सूर्य की आभा में हिमाच्छित पर्वत आग के गोले की मानिंद लग रहा था। जैसे ही सूरज का प्रकाश तेज हुआ तो ऐसा लगा कि मानो पर्वत पर चांदी का आवरण चढ़ गया हो। फिर हम दिन की रौशनी में मानसरोवर पहुंचे। ठंडी हवाएं और शून्य से नीचे तापमान। किसी ने भी नहाने का दुस्साहस नहीं किया। धूप निकली तो हाथ-पांव धोकर कैलाश की ओर मुख करके पूजा के लिए बैठ गए। बिल्वपत्र, धतूरा, हवन सामग्री आदि से शिव आराधना की। मैंने शंखनाद भी किया।
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यहां से निवृत्त हुए तो बसें आ गईं और हम निकल पड़े कैलाश जी की परिक्रमा और साक्षात दर्शन के लिए। यहां पर भी चीनी सेना द्वारा दो-तीन जगह सघन चैकिंग की गई। हम होरेचू पहुंचे। पास ही यमद्वार है। यहीं से होकर कैलाश स्पर्श स्थान तथा कैलाशजी की परिक्रमा शुरू करना थी। यमद्वार के पास से कुछ लोग घोड़े से और कुछ पैदल रवाना हुए। घोड़े से परिक्रमा का खर्च करीब 25000 रुपए आता है। हमारे ग्रुप में 90 लोग थे। कुल 10 लोगों ने परिक्रमा की। दो यात्री पैदल और आठ घोड़े पर सवार थे। दो पैदल यात्रियों में एक मैं और दूसरे प्रवीण जैन दिल्ली से थे।
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यमद्वार से 12 किमी की यात्रा करीब 11 बजे दिन में शुरू हुई। सुनसान रास्ते के दोनों तरफ पथरीले और बर्फ से ढंके पहाड़ दिखाई दे रहे थे। दोनों पहाड़ों के बीच बर्फ की नदी अपनी अस्तित्व का अहसास करा रही थी। रास्ते पर चीनी सेना लैंड क्रूजर से फ्लैग मार्च कर रही थी। शाम 4 बजे हम डेरापुख पहुंचे। ऐसा लग रहा था ये रहे कैलाशजी। डेरापुख वह जगह है, जहां पहाड़ियों के वी शेप से कैलाश पवर्त नजर आता है।

वह अद्‍भुत दृश्य जीवन धन्य कर गया... पढ़ें अगले पेज पर....




डेरापुख में हमने रात्रि विश्राम किया। शाम को शीतलहर चल रही थी। सुबह 5 बजे सूर्योदय के समय कैलाश पर्वत पर सुनहरी आभा बिखर रही थी। अद्भुत दृश्य शिवजी को 'ॐ नम: शिवाय' के साथ सबने नमन किया। सबको नजदीक से दर्शन हुए। कुछ देर बाद सुनहरी आभा समाप्त हुई और हिमाच्छित पर्वत नजर आने लगा।
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यहीं हमारी कैलाश मानसरोवर यात्रा का समापन हुआ क्योंकि अनुकूल मौसम नहीं होने के कारण चीनी सेना आगे जाने की अनुमति नहीं दी। यदि आगे जाते तो कैलाशजी के चरण स्पर्श कर सकते थे, गौरीकुंड जा सकते थे। मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। फिर हम यमद्वार होते हुए दारचेन पहुंचे, जहां हमारे शेष यात्री रुके थे, जो परिक्रमा पर नहीं गए थे। उन्हें लेकर फिर मानसरोवर आए।
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कुछ लोगों ने बर्फीले मानसरोवर की लहरों के बीच स्नान किया। ऐसा स्नान कि मानो खून भी जम गया हो। शरीर की हालत बयां नहीं की जा सकती। सबने मानसरोवर का पवित्र जल बोतलों में भरा और भोजन के बाद अगले पड़ाव सागा रात 10 बजे पहुंचे। रात्रि विश्राम के बाद सागा से न्यालम होते कोडारी चेकपोस्ट पहुंचे, जहां से हमने पुन: नेपाल में प्रवेश किया। इस तरह हमारी यह दिव्य और अलौकिक यात्रा संपन्न हुई। ऐसी अनुभूति हुई मानो जीवन धन्य हो गया। इस यात्रा की यादें यादें आजन्म मन में बसी रहेंगी। (सभी फोटो : बीपी उइके एवं श्रीमती वृंदा उइके)

-बीपी उइके से वृजेन्द्रसिंह झाला की बातचीत पर आधारित




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