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ज्वालादेवी, जहां मां ने दिखाया था अकबर को चमत्कार

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक ज्वालादेवी का मंदिर भारतीय राज्य हिमाचल के कांगड़ा घाटी में स्थित है। यहां माता की जीभ गिरी थी। इसीलिए इसका नाम ज्वालादेवी मंदिर है। हालांकि इस मंदिर की एक और कथा है जो इंद्र की पत्नी शचि से जुड़ी है।
इस मंदिर में माता के मूर्तिरूप की नहीं बल्कि ज्वाला रूप की पूजा होती है जो हजारों वर्षों से प्रज्वलित है। कालांतर में इस स्थान को व्यवस्थित किया गुरुगोरख नाथ ने। यहां प्रज्वलित ज्वाला प्राकृतिक न होकर चमत्कारिक मानी जाती है। मंदिर के थोड़ा ऊपर की ओर जाने पर गोरखनाथ का मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है।
 
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सतयुग में महाकाली के परमभक्त राजा भूमिचंद ने स्वप्न से प्रेरित होकर यहां भव्य मंदिर बनाया था। बाद में इस स्थान की खोज पांडवों ने की थी। इसके बाद यहां पर गुरुगोरखनाथ ने घोर तपस्या करके माता से वरदान और आशीर्वाद प्राप्त किया था। सन् 1835 में इस मंदिर का पुन: निर्माण राजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने करवाया था।
 
अगले पन्ने पर अकबर खत्म करना चाहता था यह स्थान लेकिन...

तुर्क के अकबर ने ली माता की परीक्षा : कहते हैं कि माता के उत्सव के दौरान हिमाचल के नादौन ग्राम निवासी ज्वालादेवी के एक भक्त ध्यानू हजारों यात्रियों के साथ माता के दरबार में दर्शन के लिए जा रहे थे। इतनी बड़ी तादाद में यात्रियों को जाते देख अकबर के सिपाहियों ने चांदनी चौक दिल्ली में उन्हें रोक लिया और ध्‍यानू को पकड़कर अकबर के दरबार में पेश किया गया।
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अकबर ने पूछा तुम इतने सारे लोगों को लेकर कहां जा रहे हो? ध्यानु ने हाथजोड़कर ‍विन‍म्रता से उत्तर दिया कि हम ज्वालामाई के दर्शन के लिए जा रहे हैं। मेरे साथ जो सभी लोग हैं वे सभी माता के भक्त हैं। यह सुनकर अकबर ने कहा यह ज्वालामाई कौन है और वहां जाने से क्या होगा? तब भक्त ध्यानू ने कहा कि वे संसार का जननी और जगत का पालन करने वाली है। उनके स्थान पर बिना तेल और बाती के ज्वाला जलती रहती है। 
 
ऐसे में कुटिल अकबर ने कहा यदि तुम्हारी बंदकी पाक है और सचमुच में वह यकिन के काबिल है तो तुम्हारी इज्जत जरूर रखेगी। लेकिन यदि वह यकीन के काबिल नहीं है तो फिर उसकी इबादत का क्या मतलब? ऐसा कहकर अकबर ने कहा कि इम्तहान के लिए हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन काट देते हैं, तुम अपनी देवी से कहकर दोबारा जिंदा करवा लेना। इस तरह घोड़े की गर्दन काट दी गई।
 
ऐसे में ध्यानू ने अकबर से कहा मैं आप से एक माह तक घोड़े की गर्दन और धड़ को सुरक्षित रखने की प्रार्थना करता हूं। अकबर ने ध्यानू की बात मान ली। बादशाह से अनुमती लेकर ध्यानू मां के दरबार में जा बैठा। स्नान, पूजन आदि करने के बाद रात भर जागरण किया। प्रात: काल ध्यानू ने हाथ जोड़कर माता से प्रार्थना की और कहा हे मां अब मेरी लाज आपके ही हाथों में है। कहते हैं कि अपने भक्त की लाज रखते हुए मां ने घोड़े को पुन: जिंदा कर दिया।
 
यह देखकर अकबर हैरान रह गया। तब उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की ओर चल पड़ा। अकबर ने माता की परीक्षा लेने या अन्य किसी प्रकार की नियत से उस स्थान को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया। सबसे पहले उसने पूरे मंदिर में अपनी सेना से पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्वाला नहीं बुझी। कहते हैं कि तब उसने एक नहर खुदवाकर पानी का रुख ज्वाला की ओर कर दिया लेकिन तब भी वह ज्वाला नहीं बुझी। तब जाकर अकबर को यकीन हुआ और उसने वहां सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया लेकिन माता ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह छत्र गिरकर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। आप आज भी अकबर का चढ़ाया वह छत्र ज्वाला मंदिर में देख सकते हैं। 
 
अगले पन्ने पर इंद्रवेद की शचि को क्यों दिए ने यहां माता ने दर्शन....

शचि की तप भूमि : शचि स्कन्दपुराण के पुलोमा पुत्री शचि का भी वेदों में उल्लेख मिलता है। स्कन्दपुराण के अनुसार सतयुग में दैत्यराज पुलोम की पुत्री शचि ने देवराज इन्द्र को पति रूप में प्राप्त करने के लिए ज्वालपाधाम में हिमालय की अधिष्ठात्री देवी पार्वती की तपस्या की थी। मां पार्वती ने शची की तपस्या पर प्रसन्न होकर उसे दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन दिये और शची की मनोकामना पूर्ण की। जहां मां ने दर्शन दिए थे वह स्थान उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में है। यहां माता ज्वालादेवी का एक मंदिर है।
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देवी शचि को इंद्राणी कहा जाता है। इंद्राणी(देवी शचि) ने अपने पति इंद्र के हाथ में ब्रह्मणों द्वारा रक्षासूत्र बंधवाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस समय देवासुर संग्राम चल रहा था। रक्षासूत्र बांधकर जब इंद्र ने युद्ध किया तो वह विजय हुए। कुछ लोगों का मानना है कि तभी से रक्षाबंधन का यह पर्व शुरू हुआ।

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