जम्मू-कश्मीर में लेह के दक्षिण-पूर्व दिशा में शहर से 47 किमी की दूरी पर स्थित है बौद्धों का हेमिस मठ। शहर की सबसे बड़ी पहाड़ी पर स्थित है- हेमिस मठ, जो शहर का मुख्य आकर्षण है।
पर्यटकों के लिए यह शहर और यहां के मठ बहुत ही शांति और सुकून देने वाले हैं। हेमिस मठ का पुन: निर्माण 1630 ई. में सबसे पहले स्टेग्संग रास्पा नंवाग ग्यात्सो ने करवाया था। बाद में 1972 में राजा सेंज नामपार ग्वालवा ने मठ का पुन:निर्माण करवाया और एक धार्मिक स्कूल भी बनवाया।
तिब्बती बौद्धों का यह धार्मिक स्कूल तिब्बती स्थापत्य शैली में बना हुआ है जो बौद्ध जीवन और संस्कृति को प्रदर्शित करता है। मठ के हर कोने में कुछ न कुछ खास है और कई तीर्थ भी हैं, लेकिन पूरे मठ का आकर्षण केंद्र ताम्बे की भगवान बुद्ध की प्रतिमा है।
इसके अलावा मठ की दीवारों पर जीवन के चक्र को दर्शाते कालचक्र को भी लगाया गया है। मठ के दो मुख्य भाग है जिन्हे दुखांग और शोंगखांग कहा जाता है। वर्तमान में इस मठ की देखरेख द्रुकपा संप्रदाय के लोग करते हैं, यह लोग बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय की वज्रयान शाखा के अनुयायी माने जाते हैं।
बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिए किया गया है। इस शाखा का विकास तिब्बत में हुआ। माना जाता है कि यह संप्रदाय छठी से सातवीं सदी में फला-फूला। महायान के अंतर्गत वज्रयान और वज्रयान के अंतर्गत ही द्रुकपा संप्रदाय का विकास हुआ।
12 सदी में इस संप्रदाय की शुरुआत हुई, अर्थात आज से 800 साल पूर्व। विश्वभर में इसके अनुयाई फैले हुए हैं, लेकिन भारत में द्रुकपा संप्रदाय को फैलाने का श्रेय द्रुकपा धर्मगुरु 11वें ग्यालवांग द्रुकपा को अधिक जाता है। यह पंथ भारत और नेपाल में सक्रिय है।
महायान बौद्ध धर्म सम्प्रदाय के सबसे लोकप्रिय बोधिसत्वों में से एक अवलोकितेश्वर के अनुयायी सिद्ध लिंग्चें रेपा दोरजी (1128-1188) ने द्रुकपा वंश की शुरुआत की। लिंग्चें का जन्म तिब्बत के त्सांग क्षेत्र के न्यांग टॉड जिले में लांगपो नामक गांव में हुआ। तिब्बत में द्रुक का अर्थ ड्रैगन माना गया है।