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बिहार का सूर्य मंदिर है देशी-विदेशी पर्यटकों की आस्था का केंद्र...

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* वास्तुकला का अद्‍भुत उदाहरण है पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर
* देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया है देव के सूर्य मंदिर का निर्माण
 
औरंगाबाद। बिहार के औरंगाबाद जिले में देव स्थित ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी कलात्मक भव्यता के लिए सर्वविदित और प्रख्यात होने के साथ ही सदियों से देशी-विदेशी पर्यटकों, श्रद्धालुओं और छठव्रतियों की अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है।
 
इस मंदिर की अभूतपूर्व स्थापत्य कला, शिल्प, कलात्मक भव्यता और धार्मिक महत्ता के कारण ही जनमानस में यह किंवदति प्रसिद्ध है कि इसका निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों से श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्तिचोरों, तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केंद्र है। काले और भूरे पत्थरों की अति सुंदर कृति जिस तरह उड़ीसा प्रदेश के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है, ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव के प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है।
 
मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2017 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल का एक लाख पचास हजार सत्रह वर्ष पूरा हो गया है।
 
देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों- उदयाचल-प्रात: सूर्य, मध्याचल- मध्य सूर्य और अस्ताचल -अस्त सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में देव का मंदिर ही एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्‍भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी है।
जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध है जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है लेकिन इसके निर्माण के संबंध में अभी भी भ्रामक स्थिति बनी हुई है। निर्माण के मुद्दे को लेकर इतिहासकारों और पुरातत्व विशेषज्ञों के बीच चली बहस से भी इस संबंध में ठोस परिणाम प्राप्त नहीं हो सका है।
 
सूर्य पुराण से सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार ऐल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ से पीड़ित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा-सा सरोवर दिखाई पड़ा जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह जाता रहा। अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने इसी वन प्रांत में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया और रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमें प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ।
 
कहा जाता है कि राजा ऐल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुण्ड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऐसा लगता है मानो बाद में स्थापित किया गया हो। मंदिर परिसर में जो मूर्तियां हैं, वे खंडित तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
 
मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों से किया था और कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी ऊषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।
             
सुप्रसिद्ध सौर तीर्थस्थल देव में कार्तिक छठ व्रत करने आए पूर्वोत्तर भारत के राज्यों उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बंगाल, उत्तरांचल एवं बिहार के विभिन्न जिलों के श्रद्धालु छठव्रती महिलाओं ने यहां स्थित पवित्र सूर्यकुण्ड में विशिष्ट स्नान किया और ऐतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर में सूर्यदेव की पूजा-अर्चना की। आज के नहाय-खाय के साथ ही देव में लगनेवाले चार दिवसीय कार्तिक छठ मेला भी आरंभ हो गया है।
             
वहीं, नहाय खाय के दिन आज छठव्रती महिलाओं ने जिले के विभिन्न इलाकों में स्थित नदियों, तालाबों एवं सरोवरों में अंत:करण की शुद्धि के लिए पवित्र स्नान किया और व्रत के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों की साफ-सफाई की। स्नान-पूजन के बाद छठव्रतियों ने नदी एवं कुंए के जल से शुद्धता के साथ कद्दू-भात का आहार बनाकर ग्रहण किया और प्रसाद स्वरूप अपने परिजनों को खिलाया।
                
गौरतलब है कि कार्तिक छठ व्रत के दौरान सूर्य नगरी देव आकर छठ व्रत करने की विशिष्ट धार्मिक और आध्यात्मिक महत्ता है। कहा जाता है कि यहां प्रति वर्ष दो बार कार्तिक एवं चैत माह में छठ व्रत के दौरान छठव्रतियों एवं श्रद्धालुओं को सूर्यदेव की उपस्थिति की साक्षात अनुभूति होती है। (वार्ता) 


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