Kashi paryatan sthal : भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी में स्थित विश्वनाथ का शिवलिंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। काशी को बनारस और वाराणसी भी कहते हैं। शिव और काल भैरव की यह नगरी अद्भुत है जिसे सप्तपुरियों में शामिल किया गया है। दो नदियों 'वरुणा' और 'असि' के मध्य बसे होने के कारण इसका नाम 'वाराणसी' पड़ा। काशी तीर्थ दर्शन के लिए जा रहे हैं तो ध्यान रखें इन बातों का तो यात्रा होगी सफल।
1. सप्तमोक्षदायिनी नगरी काशी : ऐसी मान्यता है कि वाराणसी या काशी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं। इसीलिए अधिकतर लोग यहां काशी में अपने जीवन का अंतिम वक्त बीताने के लिए आते हैं और मरने तक यहीं रहते हैं। इसके लिए काशी में पर्याप्त व्यव्था की गई है। वाराणसी कई शताब्दियों से हिन्दू मोक्ष तीर्थस्थल माना जाता है। शास्त्र मतानुसार जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो मोक्ष हेतु मृतक की अस्थियां यहीं पर गंगा में विसर्जित की जाती हैं। यह शहर सप्तमोक्षदायिनी नगरी में एक है
2. काशी के कोतवाल : काशी विश्वनाथ के दर्शन करने जा रहे हैं तो काशी के कोतवाल कहे जाने वाला बाबा भैरवनाथ के दर्शन जरूर करें। उनके दर्शन किए बगैर तीर्थ अधूरा ही माना जाएगा। काशी विश्वनाथ में दर्शन से पहले भैरव के दर्शन करना होते हैं तभी दर्शन का महत्व माना जाता है। उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। मुख्यत: दो भैरवों की पूजा का प्रचलन है, एक काल भैरव और दूसरे बटुक भैरव।
3. बिंधुमाधव पुष्कर : पुराणों के अनुसार पहले यह भगवान विष्णु की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदु सरोवर बन गया और प्रभु यहां 'बिंधुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए। इसके दर्शन करना भी जरूरी है। कहते हैं कि विष्णु ने अपने चिन्तन से यहां एक पुष्कर्णी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहां घोर तपस्या करते रहे।
4. घाट और गंगा दर्शन : काशी में गंगा दर्शन और गंगा आरती में शामिल होना अत्यंत ही जरूरी माना गया है। यह नगरी पतित पावनी भागीरथी गंगा के तट पर धनुषाकारी बसी हुई है जो पाप-नाशिनी है। यहां पर मणिकर्णिका घाट के साथ ही गंगा घाट, दशाश्वमेघ घाट, अस्सी घाट सहित कई ऐतिहासिक घाट देखने लायक हैं। अस्सी घाट की गंगा आरती को देखने दूर दूर से लोग आते हैं।
5. त्रिशुल की नोक पर बसी है शिव की नगरी काशी: पुरी में जगन्नाथ है तो काशी में विश्वनाथ। भगवान शिव के त्रिशुल की नोक पर बसी है शिव की नगरी काशी। कहते हैं कि गंगा किनारे बसी काशी नगरी भगवान शिव के त्रिशुल की नोक पर बसी है जहां बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक काशी विश्वनाथ विराजमान हैं। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से मोक्ष मिल जाता है।
6. विशालाक्षी शक्तिपीठ : तंत्रचूड़ामणि के अनुसार उत्तरप्रदेश के काशी में मणिकर्णिक घाट पर माता के दाहिने कान के मणिजड़ीत कुंडल गिरे थे। इसकी शक्ति है विशालाक्षी मणिकर्णी और भैरव को काल भैरव कहते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर मीरघाट मुहल्ले में स्थित है यह मंदिर, जहां विशालाक्षी गौरी का प्रसिद्ध मंदिर तथा विशालाक्षेश्वर महादेव का शिवलिंग भी है। काशी विशालाक्षी मंदिर का वर्णन देवीपुराण में किया गया है। पौराणिक परंपरा के अनुसार विशालाक्षी माता को गंगा स्नान के बाद धूप, दीप, सुगंधित हार व मोतियों के आभूषण, नवीन वस्त्र आदि चढ़ाए जाएँ। देवी विशालाक्षी की पूजा-उपासना से सौंदर्य और धन की प्राप्ति होती है। यहां दान, जप और यज्ञ करने पर मुक्ति प्राप्त होती है। ऐसी मान्यता है कि यदि यहां 41 मंगलवार 'कुमकुम' का प्रसाद चढ़ाया जाए तो इससे देवी मां प्रसन्न होकर भक्त की सभी मनोकामना पूर्ण कर देती हैं।
7. तीर्थंकरों की जन्मभूमि : जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ और तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। यहां जैन धर्म के कई पवित्र स्थल है।
8. सभी यहां आकर दर्शन करते हैं : इस मंदिर में दर्शन-पूजन के लिए आने वालों में गौतम बुद्ध, आदिशंकराचार्य, महारानी अहिल्याबाई, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि स्वामी दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास जैसे सैकड़ों महापुरुष शामिल हैं।
9. शिवलिंग : पौराणिक मान्यता है कि काशी में लगभग 511 शिवालय प्रतिष्ठित थे। इनमें से 12 स्वयंभू शिवलिंग, 46 देवताओं द्वारा, 47 ऋषियों द्वारा, 7 ग्रहों द्वारा, 40 गणों द्वारा तथा 294 अन्य श्रेष्ठ शिवभक्तों द्वारा स्थापित किए गए हैं।
10. महाश्मशान : अविमुक्त क्षेत्र, गौरीमुख, त्रिकंटक विराजित, महाश्मशान तथा आनंद वन प्रभृति नामों से मंडित होकर गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों वाली है। काशी स्थित शमशान को तीर्थ क्षेत्र माना जाता है।
11. पंचसागर- वराही शक्तिपीठ : पंचसागर (अज्ञात स्थान) में माता की निचले दंत (अधोदंत) गिरे थे। इसकी शक्ति है वराही और भैरव को महारुद्र कहते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह स्थान वाराणसी पंच सागर क्षेत्र में है। वाराणसी के पंच सागर मंदिर में माता का वाराही के रूप में पूजा जाता है। हिन्दू धर्म में वाराही माता को तीनों वर्ग में पूजा की जाती है शक्तिस्म (देवी की पूजा की जाती है), शैवीस्म (भगवान शिव की पूजा की जाती है) और वैष्णवीस्म (भगवान विष्णु की पूजा की जाती है)। पुराणों में भी वाराही का वर्णन किया गया है।
12. सारनाथ : वाराणसी ने मात्र 10 किलोमीटर दूर सारनाथ वह स्थान है जहां गौतम बुद्ध पे अपने धम्मचक्र प्रवर्तन की शुरुआत की थी। यहां उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया था। यहां कई प्राचीन हिन्दू और बौद्ध मंदिर है।
13. संकट मोचन हनुमान मंदिर : काशी में बहुत ही प्राचीन संकट मोचन हनुमान मंदिर है जहां जाना आप न भूलें। यहीं पर गोस्वामी तुलसीदासजी ने हनुमानजी के साक्षात दर्शन किए थे। यह भी कहा जाता है कि तुलसीदास जी को इसी स्थान पर पहली बार हनुमानजी का सपना आया था जिसके बाद तुलसीदास जी ने यही पर हनुमानजी कि मूर्ति स्थापित कि और बाद मे चलकर इसे संकट मोचन मंदिर नाम दे दिया गया।
14. चौसठ योगिनी मंदिर : गंगा घाट के नजदीक ही स्थित चौसठित घाट में चौसठ योगिनी माता का मंदिर के दर्शन करने के लिए भक्त यहां जरूर जाते है। काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा दुर्गा मंदिर, भारत माता मंदिर, तुलसी मानस टेम्पल और राम मंदिर भी देखें।
15. अन्य जानकारी : मंदिरों और घाटों के अलवा बनारस खाने-पीने के शौकिन लोगों के लिए काफी पसंदीदा शहर है यहां कि बनारसी साड़ी और बनारसी पान तो पुरे देश भर में प्रसिद्ध है। यहां का संगीत घराना भी काफी प्रसिद्ध है। चंद्रप्रभा वाइल्डलाइफ यानी यहां से 70 किलोमीटर दूर आप जंगल की सैर भी कर सकते हैं।
काशी मंदिर विध्वंस (Kashi Temple Demolition History): 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।