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कालकूट विष के प्रभाव से बचने के लिए शिवजी ने 60,000 वर्षों तक यहां की थी तपस्या, जानिए इस चमत्कारी मंदिर का रहस्य

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WD Feature Desk

, सोमवार, 14 जुलाई 2025 (12:57 IST)
neelkanth mahadev mandir: भगवान शिव ने समुद्र मंथन के समय निकले कालकूट विष को ग्रहण कर लिया था, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और तभी से वे "नीलकंठ" कहलाए। हालांकि, बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उन्होंने यह विष कहां पर ग्रहण किया था और वह स्थान आज किस स्थिति में है। आइए, आपको उस रहस्यमय स्थान के बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं।
 
हरी-भरी वादियों, पर्वतीय दृश्यों और पारावार जंगलों की गोद में बसा ऋषिकेश से करीब 32 किमी दूर, उत्तराखंड में स्थित है नीलकंठ महादेव मंदिर। यह मंदिर पंकजा और मधुमती नदियों के संगम के पास मनिकूट, ब्रह्मकूट और विष्णुकूट घाटियों के बीच पहाड़ी पर बना है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता ही नहीं बल्कि इसके आध्यात्मिक महत्व ने इसे पर्यटकों और श्रद्धालुओं की नजर का केंद्र बना दिया है।
 
समुद्रमन्थन और विषपान की महाकथा
हिंदू पुराणों के अनुसार, देव-दानवों के समुद्र मंथन के दौरान अमृत की खोज के साथ-साथ ‘कालकूट विष’ भी उत्पन्न हुआ, जिसका एक छोटा बूंद पूरे संसार को नष्ट कर सकता था। तब भोलेनाथ ने उस वज्रघातक विष को ग्रहण कर उसे अपनी गले में रोक लिया, जिससे उनका गला नीला पड़ गया और वे हो गए नीलकंठ, यानी ‘नीले कंठ वाले।
 
60,000 वर्ष की तपस्या और शिवलिंग की स्थापना
स्थानीय मान्यता के अनुसार, विष पान के पश्चात, मन को ठंडा करने और विषग्रसित कंठ से चिकित्सा पाने के लिए शिवजी ने यहीं पंकजा-मधुमती संगम के पास एक पंचपानी वृक्ष के नीचे 60,000 वर्ष तक गहरी तपस्या की। भगवान शिव जिस वट वृष के नीचे समाधि लेकर बैठे थे उसी स्थान पर आज भगवान शिव का स्वयंभू लिंग विराजमान है।  इस पवित्र शिवलिंग पर आज भी हल्के नीले रंग के निशान देखे जा सकते हैं, जो इस रहस्यमय घटना की जीवित प्रतीक हैं।
 
मंदिर की अद्वितीय वास्तुकला और विशेष रूप
नीलकंठ महादेव मंदिर में दक्षिण भारतीय (द्रविड़ीय) शैली की गुंबददार शिखर और गुफा जैसा गर्भगृह है, जिसे पंचपानी वृक्ष के नीचे बनाया गया है। इसके अलावा यहां की दीवारों पर समुद्र मंथन, विषपान और शिव-भक्ति की कथा दर्शायी गई है। मंदिर परिसर में प्राकृतिक झरने और हौले-हौले बहती नदियां भी इसका आकर्षण बढ़ाती हैं।
 
स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस प्राचीन मंदिर के परिसर में एक निरंतर जलती रहने वाली पवित्र धूनी भी मौजूद है, जिसे अत्यंत शुभ और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यदि इस धूनी की भभूत को घर ले जाकर रखा जाए, तो यह नकारात्मक शक्तियों, भूत-प्रेत और बुरी आत्माओं से रक्षा करती है। यही कारण है कि यहां आने वाले श्रद्धालु मंदिर दर्शन के बाद प्रसाद के रूप में इस भभूत को अपने साथ जरूर ले जाते हैं। मंदिर का मुख्य द्वार भी खास आकर्षण का केंद्र है, जहां विभिन्न देवी-देवताओं की सुंदर मूर्तियां और शिल्पकारी देखने को मिलती है। वहीं गर्भगृह में स्थित भगवान शिव की एक विशाल मूर्ति भी स्थापित है, जिसमें उन्हें विषपान करते हुए दर्शाया गया है, जो उनके बलिदान और विश्व कल्याण की भावना को दर्शाता है।
 
श्रावण और महाशिवरात्रि की धूम: श्रावण मास (जुलाई–अगस्त) ऋद्धि-वृधि और शिव-भक्ति का पवित्र समय होता है। इसी दौरान यहां कांवड़ यात्रा निकलती है, जहां श्रद्धालु पैदल पूजा अर्पित करने पहुंचते हैं । महाशिवरात्रि के दिन मंदिर में विशेष मासबीज, जलाभिषेक, भजन–कीर्तन और लाखों भक्तों की भीड़ रहती है ।
 
पदयात्रा और प्रकृति से लगाव: ऋषिकेश से मंदिर तक की 12 किमी की गुफा-शैली ट्रेकिंग पर्यटकों को शांति और रोमांच का अनुभव करवाती है। इस मार्ग पर रास्ते की प्राकृतिक धारा में नहाकर मन-मनाया विश्राम भी मिलता है।
 

अस्वीकरण (Disclaimer) : सेहत, ब्यूटी केयर, आयुर्वेद, योग, धर्म, ज्योतिष, वास्तु, इतिहास, पुराण आदि विषयों पर वेबदुनिया में प्रकाशित/प्रसारित वीडियो, आलेख एवं समाचार जनरुचि को ध्यान में रखते हुए सिर्फ आपकी जानकारी के लिए हैं। इससे संबंधित सत्यता की पुष्टि वेबदुनिया नहीं करता है। किसी भी प्रयोग से पहले विशेषज्ञ की सलाह जरूर लें। 

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