Story of birth of lord dattatreya: श्रीमद्भभगवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया -विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया।
श्री गीता में महर्षि अत्रि एवं माता अनुसूया के यहां त्रिदेवों के अंश से तीन पुत्रों के जन्म लेने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता हैं कि ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय और शिव के अंश से दुर्वासा ऋषि का जन्म हुआ। कथा के अनुसार ब्रह्मा जी के मानसपुत्र महर्षि अत्रि इनके पिता तथा कर्दम ऋषि की कन्या सती अनुसूया इनकी माता थीं। महर्षि अत्रि सतयुग के ब्रह्मा के दस पुत्रों में से थे तथा उनका आखिरी अस्तित्व चित्रकूट में सीता-अनुसूया संवाद के समय तक अस्तित्व में था। उन्हें सप्तऋषियों में से एक माना जाता है और ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी। ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे।
जब अत्रि बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतारेंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी।
हालांकि यह भी कहा जाता है कि नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती इन तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा- अत्रि पत्नी अनसूया के समक्ष आपका सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों- विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद को यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने को कहा। तीनों देवताओं ने बहुत समझाया परंतु तीनों देवियों के हठ के आगे वे विवश होकर साधुवेश धारण करके अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे।
अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणाम कर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए, किंतु वे बोले- हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती। यह सुनकर देवी अनसूया आश्चर्यचकित रह गईं, किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का का ध्यान रखते हुए उन्होंने नारायण का ध्यान और फिर अपने पतिदेव का स्मरण किया तथा इस बात को भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो यह तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छ: मास के शिशु हो रुदन करने लगे। तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया, फिर पालने में झुलाने लगीं। इस तरह कुछ समय व्यतीत हो गया।
इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस नहीं आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। तब नारद ने आकर संपूर्ण हाल सुनाया। तब तीनों देवियां सती अनसूया के पास आईं और उनसे क्षमा मांगकर अपने पति को वापस करने की प्रार्थना की। इस प्रकार देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। फिर तीनों देवों ने प्रसन्न हो अनसूया से वर मांगने को कहा तो वे बोलीं- आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों।
तीनों देव और देवियां तथास्तु कहकर अपने लोक चले गए। फिर कालांतर में यही तीनों देव सती अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए और दत्तात्रेय कहलाएं। यही कारण है कि हर साल मार्गशीर्ष पूर्णिमा तिथि को श्रीविष्णु के ही अवतार रहे भगवान दत्तात्रेय की जयंती के रूप में भक्तिपूर्वक मनाया जाता है।