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गणतंत्र के तीन आधार

शिक्षा, राजनीति और मीडिया

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स्मृति आदित्य

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आज 60वाँ गणतंत्र है। इन साठ वर्षों में भारत ने नित नए प्रगति के सोपान तय किए हैं। किन्तु हम संतोष की साँस ले सके या गौरव के परचम लहरा सके ऐसे क्षण अँगुलियों पर गिने जाने योग्य ही निर्मित हुए है यह भी एक उतना ही कठोर सच है। इन साठ वर्षों में जनता को नेता द्वारा इतना बेवकूफ बनाया गया है कि हर क्षेत्र में गणतंत्र एक मजाक बन कर रह गया है।

शिक्षा - शिक्षा का क्षेत्र इन साठ वर्षों में व्यापार बन गया । नालंदा-तक्षशिला जैसे प्राचीन नाम तो हमने अपना लिए लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर हम कोई अहम सुधार हम नहीं ला सके। शिक्षक आज के दौर में एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी 'सीख' में शक होने लगा। वहीं पेरेन्ट्स 'रेन्ट' 'पे' कर के मुक्त हो गए। जबकि विद्यार्थियों ने विद्या की अर्थी बहुत पहले निकाल दी।

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नि:सन्देह हमने विदेशों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। भारतीय मानस की रचनात्मकता को वैश्विक स्तर पर सराहा गया है। लेकिन यह कसैला सच भी इसी देश का है कि यहाँ साक्षरता अभियान धीमी गति से सरक रहे हैं। साक्षरता की सफलता इतनी नन्ही बूंदों के रूप में मिली है कि आज भी ‍िवशाल भारतीय जनसागर के कंठ शिक्षा की दृष्टि से सूखे हैं। स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से जहाँ प्रयास किए जा रहे है उन्हें कतई नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि उन्हीं के कारण साक्षरता का आँकड़ा ‍िखसक भी रहा है। जबकि सरकारी प्रयासों में (उद्देश्यों की शुभता होते हुए भी) क्रियान्वयन की लचरता सारे अभियान को प्रभावित कर रही है। यही वजह है कि साक्षरता अभियान का शुभ कारवाँ वाँछित गति से नहीं बढ़ पा रहा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायीकरण और परिवर्तन की बयार के चलते भारतीय युवा अटकाव और भटकाव के शिकार हो रहे हैं। 60वाँ गणतंत्र एक पड़ाव हो सकता है जब हम शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन की पहल जगा सके।

राजनीति - 60 वर्षों में राजनीति सिर्फ एक गाली बनकर रह गई है तो यह दोष सिर्फ राजनीति का नहीं बल्कि उस 'जन' का भी है जिसके दम पर तंत्र कायम होता है। हमारे चुनाव का सच यह है कि संसद में भेजे जाने वाले प्रतिनिधि वास्तव में प्रतिनिधि होते ही नहीं है। चुनावों के दौरान किसी भी शहर की आधी बुद्धिजीवी(?) जनता मतदान के लिए जाती ही नहीं है। जो आधी जनता मतदान करती है उनमें से भी कुछ प्रतिश‍त बाहुबल, धनबल, और जातिबल के आधार पर उम्मीदवार का चयन करती है। इसी में एक हिस्सा उस जनता का भी होता है जो मतदान का मतलब व तरीका भी नहीं जानती। ऐसे में संसद तक पहुँचे उस व्यक्ति को प्रतिनिधि कैसे मान लें और किसका प्रतिनिधि मान लें।

वह जनता जिसने उसका चुनाव किया है क्या वह वास्तव में जनता कहलाने के योग्य है? और अगर नहीं तो उस सारी जनता को बिजली, सड़क, पानी, और सुविधाओं के लिए सड़कों पर उतरने का कोई हक नहीं। उसे नेताओं को कोसने का भी कोई हक नहीं। एक पक्ष यह भी है कि जनता के सामने चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में अगर हर कोई चोर-चोर-मौसेरे भाई है तो वह किसका चयन करें? क्यों उसके सामने 'नन ऑफ देम' का ऑप्शन नहीं होता? अगर नन ऑफ देम यानी ' इनमें से कोई नहीं' का ऑप्शन होगा तो सहज ही जनता द्वारा नकारे नेता एक तरफ होंगे। और सही एवं ईमानदार छवि वाले युवा आगे आ सकेंगे। 60 सालों के मुकाम पर आकर इस पर सोचना हमें ही है।

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क्योंकि यह जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है। और नेता कौन है? वह भी तो हम जनता के बीच से उठा प्राणी ही है । फिर भला अपने ही बीच के अच्छे तथा बुरे का अंतर क्यों नहीं समझ पा रहे? हादसों के बाद नेताओं को गालियाँ देना सहज प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन कब तक? कब तक हम अपनी गलतियों(मतदान) का ठीकरा उन पर फोड़ते रहेंगे? 60 वर्ष के परिपक्व गणतंत्र में जनता को इतना तो जागरूक व चैतन्य होना ही होगा हम अपने ही संविधान की लाज बचा सके।

मीडिया- 60 साल के समझदार गणतंत्र में देश का मीडिया जितना सशक्त होना चाहिए उतना वह नहीं हो सका। सशक्तता का अर्थ यह कदापि नहीं है जब चाहे किसी को फलक पर सजा दें और जब चाहे किसी को खाक में मिला दें। किसी भी देश के मीडिया में 'न्यूक्लियर पावर' से ज्यादा शक्ति है।परमाणु ताकत किसी भी देश को नष्ट कर सकती है। मगर उस देश पर राज करने के लिए वहाँ की बौद्धिक शक्ति पर नियंत्रण होना आवश्यक है। विनाश लीला रचना बेहद सरल है लेकिन बहुत मुश्किल है पूरे देश की जनता के दिलों पर राज करना। मीडिया पर नियंत्रण से यह बखूबी संभव है। मीडिया अगर अपनी ताकत को पहचानता और समझदारी का गुण दिखाता तो शायद यूँ आरोपों के कटघरे में खड़ा नजर नहीं आता।

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भारत का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अभी शैशवावस्था में है। इस अवस्था में कई गुनाह माफ होते हैं। ले‍किन यहाँ हमारे बाल-मीडिया को इस बात की शाबाशी तो देनी होगी कि चाहे येन-केन- प्रकारेण( हास्य, सनसनी, अंधविश्वास) उसने अपना वर्चस्व बढ़ाया हो लेकिन यह श्रेय तो उसी के हिस्से में जाएगा ‍िक उसने समाचारों को कुछ बुद्धिजीवियों के चंगुल से छुड़ाकर जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। आज बरसों से समाचारों से वंचित वर्ग न्यूज चैनलों को चाव से देख रहे हैं। देश के मसलों पर कच्ची-पक्की चर्चा भी कर रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। सोचा इस बात पर जाना चाहिए कि क्या जो मीडिया परोस रहा है वह सही और संतुलित है? क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या देखना चाहते हैं के बीच का सही संतुलन ही मीडिया का ध्येय होना चाहिए। जब तक इस संतुलन को राष्ट्रहित में कुशलता से साध नहीं लिया जाता तब तक मीडिया के बचकानेपन पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे।

इन साठ सालों की अतुलनीय उपलब्धि इंटरनेट को कहा जाएगा। जिसने प्रिंट की ‍प्रामाणिकता और इलेक्ट्रॉनिक की गति दोनों पर विजय हासिल कर पाठकीय क्षुधा को दक्षतापूर्वक शांत किया है। यही वजह है कि ब्लॉग, पोर्टल्स, एवं वेबसाईट्स के नित नए स्वरूप अस्तित्त्व में आ रहे हैं।यहाँ तक कि अखबारों के भी इंटरनेट संस्करण तेजी से बढ़ रहे हैं। पाठकों का एक आश्चर्यजनक वर्ग अखबारों और चैनलों को छोड़कर इससे जुड़ा है। हर्ष का विषय है ‍िक युवा और महिला देश के इन दो अहम वर्गों ने इस पर अपनी दमदार प्रतिभागिता दर्ज की है।


शिक्षा ,राजनीति तथा मीडिया भारत के आधारस्तंभ हैं। इन्हें अपने दायित्वों का विश्लेषण करना होगा। देश को सही दिशा में ले जाने की जिम्मेदारी इन्हीं के माध्यम से पूरी की जा सकती है। सच्चे गणतंत्र की राह में यह एक शुभ प्रयास होगा।

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