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गणतंत्र दिवस पर कविता: भारत का ध्वज

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

थाली में है रोली-कुमकुम, पीला चंदन है।
करें तिरंगे की पूजा, शत-शत अभिनंदन है।।
 
गंगा के पानी से अब तक, श्रद्धा नाता है।
विंध्य, हिमालय, अरावली अब भी मुस्कराता है।।
 
जहां नर्मदा माता के जयकारे लगते हैं।
यमुना का जल लोगों को अब भी ललचाता है।
सदियों से कृष्णा, कावेरी से अनुबंधन है।।
 
जहां सतपुड़ा के जंगल में मौसम इतराता।
डाल-डाल संगीत बजाती, हर पत्ता गाता।     
      
आम, नीम, पीपल, बरगद में ईश्वर की बस्ती।             
सूरज किरणों की थाली में पूजन करवाता।
पुण्य भूमि के जनजीवन का, तन-मन कंचन है।।
 
हिंदू-मुस्लिम मिल कर रहते, ईसाई भी यार।
अलग नहीं है किसी तरह भी, सिखों का संसार।
 
तीजों त्योहारों पर सब हैं, आपस में मिलते, 
खुशियों के मेले सजते तो, मस्ती के बाजार।
ऐसी भारत भरत भूमि को, शत-नत वंदन है।।
 
दिन में राम अयोध्या से अब भी ओरछा आते।
रास रचाते कृष्ण चंद्र मथुरा में मिल जाते।
 
अमरनाथ में बर्फानी बाबा का डेरा है।
पितृ पक्ष में पितर अभी भी दर्शन दे जाते।
जन गण मन में भारत के अब भी स्पंदन है।।
 
बिना डरे सीमा पर लड़ते रहते सैनानी।
दुश्मन को कांटा-छांटा है, जब मन में ठानी।

आंख दिखने वाले की वह, आंख फोड़ देते, 
बैरी को हर बार पड़ी है, अब मुंह की खानी।  
रंगमंच पर अब भारत का, सुंदर मंचन है।
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)


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