1947 में कहने को तो हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो गए किंतु विचारणीय बात यह है कि जिन कारणों से हमारे ऊपर विदेशियों ने 1,000 सालों तक राज्य किया, क्या वे कारण समाप्त हो गए? उत्तर है नहीं एवं इसका कारण है हमारे अंदर राष्ट्रीयता का अभाव। राष्ट्र कोई नस्लीय या जनजातीय समूह नहीं होता, वरन ऐतिहासिक तौर पर गठित लोगों का समूह होता है जिसमें धार्मिक, जातीय एवं भाषायी विभिन्नताएं स्वाभाविक हैं।
किसी भी राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने के लिए राष्ट्रीयता की भावना बहुत आवश्यक है। राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता एक ऐसी वैचारिक शक्ति है, जो राष्ट्र के लोगों को चेतना से भर देती है एवं उनको संगठित कर राष्ट्र के विकास हेतु प्रेरित करती है तथा उनके अस्तित्व को प्रामाणिकता प्रदान करती है।
असली भारत भूगोल नहीं, राजनीतिक इतिहास, नहीं बल्कि अंतरयात्रा है, आत्मा की खोज है, प्रकाश का अनुसंधान है। अध्ययन, अनुभूति और अध्यात्म है असली भारत। शंकर, राम, कृष्ण इसके प्रणेता हैं। प्रकाश स्तंभ हैं। महावीर, बुद्ध, नानक, गोरख, रैदास आदि हजारों नाम हैं, जो भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हम अपनी स्वतंत्रता के 70वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। मेरा मानना है कि स्वतंत्रता दिवस के मनाने में यह संदेश होना चाहिए कि हम अब स्वतंत्र हैं। हमारा खुद का तंत्र है। हम पर 'कोई' राज नहीं कर रहा है, 'हम' ही अपने पर राज कर रहे हैं। इसमें प्रत्येक नागरिक की सहभागिता है।
14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है, वो आजादी नहीं आई बल्कि पंडित नेहरू और लॉर्ड माउंटबेटन के बीच में सत्ता हस्तांतरण का एग्रीमेंट हुआ था। गांधीजी ने स्पष्ट कह दिया था कि ये आजादी नहीं आ रही है, सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है और इस संबंध में गांधीजी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी। उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गांधीजी ने ये कहा- 'मैं हिन्दुस्तान के उन करोड़ों लोगों को ये संदेश देना चाहता हुं कि ये जो तथाकथित आजादी (So Called Freedom) आ रही है, ये मैं नहीं लाया।
संविधान का 'भारत' कहीं लुप्त हो रहा है और 'इंडिया' भारतीय जनमानस की पहचान बनता जा रहा है। आज की पीढ़ी के लिए भारत के तीर्थस्थल, स्मारक, वनवासी, आदिवासी, सामाजिक एवं धार्मिक परंपराएं सब गौण हो गई हैं। उनके लिए इंग्लैंड, अमेरिका में पढ़ना एवं वहां की संस्कृति को अपनाना प्रमुख उद्देश्य बन गया है।
भारतीय राष्ट्रीयता के वाहक राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति को गौरव-गरिमा प्रदान की है। स्वामी विवेकानंद तो भारत की पूजा करते थे। उनके अनुसार भारतीयता के बिना भारतीय नागरिक का अस्तित्व शून्य है, भले ही वह कितने भी व्यक्तिगत गुणों से संपन्न क्यों न हो।
आज की युवा पीढ़ी इनके पदचिन्हों पर न चलकर सिनेमाई नायकों एवं नायिकाओं को अपना आदर्श बना रही है। आज भी देश में आजादी के 69 सालों बाद भी जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता, भ्रष्टाचार, आर्थिक और सामाजिक असमानता, गरीबी, अज्ञानता, अशिक्षा, अनियंत्रित जनसंख्या जैसी अनेक भीषण समस्याएं देश के सामने व्यवधान बनकर खड़ी हैं, हालांकि हमने काफी उन्नति भी हासिल की है कई क्षेत्रों में, लेकिन अब भी समाज का समग्र रूप से विकास नहीं हो पाया है।
भारत देश हर जगह, हर वर्ग एवं हर स्तर पर बदलाव की अनुभूति कर रहा है, लेकिन इस बदलाव की बयार के बीच यह बुनियादी सवाल उठाए जाने की जरूरत है कि हम जिस संप्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतांत्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना संप्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना जनवादी है?
पिछले 69 वर्षों के दौरान आम भारतीय नागरिक को कितने जनवादी अधिकार हासिल हुए हैं? हमारा संविधान आम जनता को किस हद तक नागरिक और जनवादी अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारंटी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिद्धांतों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है? ये सभी प्रश्न एक विस्तृत चर्चा की मांग करते हैं।
विकास के पथ पर मैं इतना निराशावादी भी नहीं हूं कि ये कहूं कि स्वतंत्रता के 69 साल बाद भी हमने कोई प्रगति नहीं की है। भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है जिसमें बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। इसके साथ ही यह अपने आपको बदलते समय के साथ ढालती भी आई है।
आजादी पाने के बाद पिछले 69 वर्षों में भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। भारत कृषि में आत्मनिर्भर बन चुका है और अब दुनिया के सबसे औद्योगीकृत देशों की श्रेणी में भी इसकी गिनती की जाती है। इन 69 सालों में भारत ने विश्व समुदाय के बीच एक आत्मनिर्भर, सक्षम और स्वाभिमानी देश के रूप में अपनी जगह बनाई है। सभी समस्याओं के बावजूद अपने लोकतंत्र के कारण वह तीसरी दुनिया के अन्य देशों के लिए एक मिसाल बना रहा है। उसकी आर्थिक प्रगति और विकास दर भी अन्य विकासशील देशों के लिए प्रेरक तत्व बने हुए हैं।
बहुत कठिन है डगर पनघट की...
लेकिन इन सब प्रगति के सोपानों के बीच भारत का गण आज भी विकास के उस छोर पर खड़ा है, जहां से मूलभूत सुविधाओं की दरकार है। स्वतंत्रता हासिल करने पर जिन उच्च आदर्शों की स्थापना हमें इस देश व समाज में करनी चाहिए थी, हम आज ठीक उनकी विपरीत दिशा में जा रहे हैं और भ्रष्टाचार, दहेज, मानवीय घृणा, हिंसा, अश्लीलता और कामुकता जैसे कि हमारी राष्ट्रीय विशेषताएं बनती जा रही हैं।
समाज में ग्रामों से नगरों की ओर पलायन की तथा एकल परिवारों की स्थापना की प्रवृत्ति पनप रही है। इसके कारण संयुक्त परिवारों का विघटन प्रारंभ हुआ तथा उसके कारण सामाजिक मूल्यों को भीषण क्षति पहुंच रही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संयुक्त परिवारों को तोड़कर हम सामाजिक अनुशासन से निरंतर उच्छृंखलता और उद्दंडता की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं।
इन 69 वर्षों में हमने सामान्य लोकतंत्रीय आचरण भी नहीं सीखा है। भ्रष्टाचार में लगातार वृद्धि होती गई है और इस समय वह पूरी तरह से बेकाबू हो चुका है। भ्रष्टाचार सरकार के उच्चतम स्तर से लेकर निम्नतम स्तर तक व्याप्त है। समाज का भी कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं बच सका है। देश में सत्ता के शीर्ष पर बैठे भ्रष्टाचारियों के काले कारनामे, सार्वजनिक धन का शर्मनाक हद तक दुरुपयोग, सार्वजनिक भवनों व अन्य संपत्तियों को बपौती मानकर निर्लज्जतापूर्ण उपभोग कर रहे हैं। आखिर ये सब किस प्रकार का आदर्श हमारे समक्ष उपस्थित कर रहे हैं? आजादी के 69 साल बाद भी भारत अनेक ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जिनसे वह औपनिवेशिक शासन से छुटकारा मिलने के समय जूझ रहा था।
हमारी अस्मिता हमारी मातृभाषा होती है। अगर हम अपनी मातृभाषा को छोड़कर अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा को प्रमुखता देंगे तो निश्चित ही हम राष्ट्रीयता की मूल भावना से भटक रहे हैं। इस देश के गण से भी कई सवाल हैं। 100 रुपए में अपना मत बेचने वाले गण क्या तंत्र से सवाल पूछ सकते हैं? पड़ोसी के घर चोरी होती देख छुपकर सोने वाला गण क्या स्वतंत्रता पाने का अधिकारी है? भ्रूण में बेटी की हत्या करने वाला गण किस मुंह से तंत्र से सवाल पूछेगा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिमायती गण आतंकियों की फांसी पर सवाल खड़े करेगा तो उसे ये भी भुगतना होगा। प्रश्न बहुत हैं और उत्तर देने वाला कोई नहीं।
सुलगते सवालों के बीच यह स्वतंत्र गणतंत्र। गण से अलग खड़ा तंत्र और तंत्र से त्रासित गण एक-दूसरे के पूरक होकर भी अपूर्ण है। हमें समझना होगा कि राष्ट्रवाद की भावना 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से आरंभ होकर आत्म-बलिदान पर समाप्त होती है।
एक प्रार्थना (where the mind is without fear), जो कविवर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने की थी, हम सभी को करनी चाहिए।
जहां मष्तिस्क भय से मुक्त हो।
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा कर चल सकें।
जहां ज्ञान बंधनों से मुक्त हो।
जहां हर वाक्य हृदय की गहराइयों से निकलता हो।
जहां विचारों की सरिता तुच्छ आचारों की मरुभूमि में न खोती हो।
जहां पुरुषार्थ टुकड़ों में न बंटा हो
जहां सभी कर्म भावनाएं एवं अनुभूतियां हमारे वश में हों।
हे परमपिता! उस स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जाग्रत करो।