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कहां जा रहा है देश का गणतंत्र?

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हर साल हम पारंपरिक तरीके से गणतंत्र दिवस मनाते तो हैं, पर ये नहीं पूछते कि क्या गणतंत्र अभी भी जीवित है या धीरे-धीरे लुप्त हुआ जा रहा है। जब हमने अपने आपको गणतंत्र घोषित किया था, उस समय सभी के मन में मनोकामना थी कि एक ऐसी व्यवस्था स्थापित होगी जिसमें कानून पर आधारित कोई तंत्र के माध्यम से जनहित संभव हो सकेगा!


 


उस समय जवाहरलाल नेहरू अपने व्याख्यानों में इसी मनोकामना को बार-बार दोहराते भी थे और इस दिशा में प्रयास भी कर रहे थे। उनका समय कठिन समय था!

देश के विभाजन से खड़ी होने वाली समस्याएं और समाज में व्यापक असमानता और गरीबी गणतंत्र के सामने बड़ी चुनौती थी। इसके बावजूद विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ कानून पर आधारित लोकतंत्र की स्थापना संभव हो सकी।

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पिछले सालों में इन सभी प्रक्रियाओं को मजबूत होना चाहिए था। परंतु, जो कुछ हुआ है, काफी हद तक उसके विपरीत ही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले छ: दशक सालों में व्यापक विकास हुआ है। परंतु, प्रश्न यह उठता है कि क्या यही सब ही किसी गणतंत्र की कामयाबी का मापदंड है? किसी कामयाब गणतंत्र का मापदंड है जनहित के कार्यों की प्रक्रिया। दुर्भाग्यवश जनहित का विचार व्यापक रूप से पीछे खिसकता गया है! सच तो यह है कि जनहित की आज किसी को फिक्र ही नहीं है।

किसी भी कामयाब गणतंत्र के लिए जिन मूल्यों को आगे बढ़ाना आवश्यक होना चाहिए, उनका विवरण संविधान में विशिष्ट रूप से किया गया है। आज ये सारे मूल्य केवल कागज पर रेखांकित कुछ शब्द रह गए हैं। समाज को तो छोड़िए, राजकीय प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने से भी स्पष्ट है कि हम संविधान मूल्यों को कोसों दूर छोड़ आए हैं। आज हमारे गणतंत्र का आदर लोगों के समर्थन पर आधारित नहीं है, सुरक्षा बलों द्वारा उनके दमन पर आधारित है।

राष्ट्रवाद इस दमन की प्रक्रिया में एक ढाल की शक्ल में इस्तेमाल किया जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर हम लोगों को एनकाउंटर का सहारा लेकर खत्म कर देते हैं या उन्हें आजीवन कैद की सजा दे देते हैं। जिस प्रकार का विकास हो रहा है उससे प्रेरित लोग अगर उसके खिलाफ आक्रोश व्यक्त करते हैं या अपने हितों के लिए संघर्ष करते हैं तो हम उनका दमन करने पर आमादा हो जाते हैं।

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जहां एक ओर लोगों द्वारा मांगों को उठाने का अधिकार उनसे धीरे-धीरे छीना जा रहा है, तो दूसरी और संपन्न वर्गों के लिए लूट का अधिकार प्रबल हो गया। पहले भी भ्रष्टाचार था, लेकिन उसका स्वरूप इतना भयंकर नहीं था। आश्चर्य की बात है कि राजनेता स्वयं ही इस भ्रष्टाचार में शामिल हैं। ऐसी परिस्थिति में आम आदमी सिसकने के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकता!

गणतंत्र केवल राजनीतिक ढांचा ही नहीं होता जिसमें समय पर चुनाव द्वारा सरकार का गठन हो! गणतंत्र एक प्रक्रिया है जिसका आधार कानून की व्यवस्था है, साथ ही इसमें लोगों के अधिकारों का भी महत्व है। यदि किसी गणतंत्र में कानून की व्यवस्था लुप्त हो जाए या लोगों के अधिकारों पर राजनीतिक नियंत्रण थोपा जाए तो उसके गणतंत्र कहलाने पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है। आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम गणतंत्र दिवस के मौके पर फिर से एक बार उत्तेजित हो जाएं!

हम सभी और खासतौर से देश के राजनेता और संपन्न वर्ग संजीदगी से चिंतन करें कि गणतंत्र को पुनः किस प्रकार से स्थापित किया जा सके! ताकि, संवैधानिक मूल्यों को साकार किया जा सके। संविधान निर्माताओं ने इस गणतंत्र को एक बहुत ठोस ढांचा दिया था। अब इसे ठीक से चलाने की जिम्मेदारी उन लोगों की है, जो सत्ता को चलाते हैं।

- इम्तियाज अहमद (लेखक जवाहरलाल नेहरू विवि दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)


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