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खिलाड़ी को हम देते क्या हैं, जो ओलंपिक पदक की आस करें...

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सीमान्त सुवीर

ब्राजील के खूबसूरत शहर रियो डि जेनेरियो में चल रहे 31वें ओलंपिक खेलों में पदक जीतने की होड़  मची हुई है और अमेरिका व चीन पदक तालिका में शीर्ष पर बने हुए हैं। पदक तालिका में ऊपर से  नीचे तक भारत का नाम गायब इसलिए है क्योंकि हमारा कोई भी खिलाड़ी कांसे के तमगे तक नहीं  पहुंच पाया है। ओलंपिक से एक भी पदक न जीतने का मलाल अपनी जगह है, लेकिन गिरेबां में  झांककर कभी देखा है कि इन खिलाड़ियों को हमने दिया क्या है? सिर्फ थोड़ा सा नाम और परिवार  का पेट भरने के लिए नौकरी...जिस देश में सालभर तक क्रिकेटर भगवान की तरह पूजे जाते हों, उस  देश में साइना नेहवाल और सानिया मिर्जा को छोड़कर अन्य खेलों के खिलाड़ी पेट पालने की चिंता में  ही अपना दिमाग खपाए रहते हैं....

पिछले कई ओलंपिक खेलों का उदाहरण देख लीजिए, जब ये आते हैं तो पूरा देश मुट्ठीभर खिलाड़ियों से यह आस लगाने लगता है कि वे मैदान पर उतरेंगे और अपने गले को सोने के पदक से सजा लेंगे, सोना न जीत पाए तो चांदी ही सही और वह भी न मिले तो कम से कम कांस्य तो जरूर जीतकर ही लौटेंगे...टीवी और अखबार इन खिलाड़ियों के लिए कसीदे पढ़ते हैं और जाने के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें जीत का मंत्र देते हैं लेकिन कभी ये जानने की कोशिश की है कि हमने उनके लिए किया क्या है? 

भारत में ले-देकर एक ही खेल धनवान है और वह है क्रिकेट...इस खेल ने अपने जादू से शहरी बच्चों को ही नहीं लुभाया है बल्कि इसकी पहुंच गांव-गांव तक हो गई है। खेल में दखल रखने वाले बच्चे को क्रिकेट की तीनों विधाओं में कौन भारत का कप्तान है, यह तो याद होगा, लेकिन वो रियो ओलंपिक में गए 118 सदस्यीय भारतीय दल में से 8 खिलाड़ियों के नाम भी जुबानी नहीं बता पाएगा। ये फर्क है हमारे सिस्टम में...यदि पदक तालिका में अमेरिका, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, हंगरी, जर्मनी शीर्ष सूची में रहते हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इन देशों में खिलाड़ी को राष्ट्रीय संपत्ति माना जाता है। 
 
भारत में किसी भी सरकार के वक्त खेल कभी भी प्राथमिक सूची में नहीं रहे। मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को स्कूली पढ़ाई तक खेलों से ताल्लुक रखने की इजाजत देते हैं और कॉलेज में आते ही वे उन्हें करियर बनाने की दिशा की तरफ धकेल देते हैं। ओलंपिक में भारत की जर्सी पहनने वाला खिलाड़ी वो होता है, जिसे जन्म लेते ही गरीबी की गोदी मिलती है, थोड़ा बड़ा होने पर अभावों को करीब से देखता है और फिर खेल का दामन इसलिए थाम लेता है, ताकि कम से कम वो आने वाली नस्ल को इस गरीबी के दलदल से बाहर निकाल सके। यह कड़वा सच है, जिसे स्वीकारना ही होगा। बहुत कम नसीब वाले खिलाड़ी होते हैं, जिनका वास्ता ऐसी बदहाली से नहीं पड़ता...
 
रियो ओलंपिक में खेल रही भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य रेणुका यादव का नाम आपने कभी नहीं सुना होगा। रेणुका का ताल्लुक छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव से है। रेणुका के सीने पर आज इंडिया की जर्सी है लेकिन इस जर्सी तक पहुंचने की कहानी बहुत दर्दनाक है। रेणुका ने लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करने का काम किया, पिता दूध बेचते थे, उसमें उनकी सहायता की...हॉकी खरीदने के पैसे नहीं थे, लिहाजा जब मैदान पर खेल खत्म हो जाता तो वह हॉकी लेकर प्रेक्टिस करती। उसके इस जुनून को देखते हुए वहां के कोच ने उसे ग्वालियर में हॉकी एकेडमी में जाने की सलाह दी। 
 
2009  में राजनांदगांव से ग्वालियर तक जाने के लिए उसके पास ट्रेन का टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे। आखिर बेटिकट यात्रा की लेकिन किस्मत ऐसी खोटी कि वह ग्वालियर के बजाए आगरा पहुंच गई। फिर आगरा से ग्वालियर तक की दूरी पैदल ही नापी। बाद में रेणुका ने एकेडमी में अपने जौहर दिखाए और फिर भारतीय हॉकी टीम की जर्सी पहनी। रेणुका का तो यह उदाहरण भर है, रियो ओलंपिक में गई एक और खिलाड़ी के पिता तांगा चलाया करते थे। ऐसे न जाने कितने खिलाड़ी हैं जो गरीबी में जन्म लेकर अपनी मेहनत के बूते पर आगे बढ़े हैं और उन्होंने ओलंपिक तक का सफर तय किया है। 
 
सरकार कह सकती है कि वह विभिन्न खेलों की अकादमी चला रही है लेकिन हकीकत तो ये है कि इन अकादमियों में खिलाड़ी अपने बलबूते पर तैयार हो रहे और आगे बढ़ रहे हैं। उन्हें न तो ठीक से डाइट मिलती है और न ही अन्य विश्वस्तरीय सुविधाएं...क्योंकि खेल तो आपकी सूची में कहीं से कहीं तक है ही नहीं...खेलों का कुंभ (ओलंपिक) आते ही फिल्मी सितारों से लेकर क्रिकेट के दिग्गज तक उन्हें शुभकामनाएं देने में जुट जाते हैं। 
 
पूरा देश ओलंपिक मुकाबलों के वक्त इस आस में रहता है कि भारतीय खिलाड़ी फाइनल तक पहुंचकर मेडल जीत जाएं...और जब मामूली अंतर से वो हार जाता है तो बस आह निकल जाती है। भारतीय निशानेबाज अभिनव बिंद्रा मामूली अंतर से मेडल से चूक गए...तीरंदाज बोम्‍बाइला देवी और दीपिका कुमारी के तीर ऐन वक्त पर हवा में भटक गए, हॉकी में हम गुरुवार को वर्ल्ड की नंबर दो टीम नीदरलैंड से 2-1 से हार गए और ओलंपिक मेडलिस्ट क्यूबन मुक्केबाज ने भी भारत के शिव थापा को भी आगे बढ़ने से रोक दिया...
 
खेलों में भी तकदीर कैसा करिश्मा दिखाती है, इसका सबूत हॉकी के मैच में देखने को मिला, जब निर्धारित खेल खत्म होने से 6 सेकंड पहले भारत को नीदरलैंड के खिलाफ पेनल्टी कॉर्नर मिला लेकिन भारत 2-2 की बराबरी वाला गोल नहीं दाग सका। तभी अंपायर ने एक के बाद एक 6 पेनल्टी कॉर्नर दिए। समय खत्म हो गया था लेकिन पेनल्टी कॉर्नर की प्रक्रिया जारी थी और कुल सात कॉर्नर भी बेकार चले गए। भारत में टीवी पर करोड़ों दर्शकों ने ये पेनल्टी कॉर्नर सांस रोककर देखे...लेकिन भाग्य की देवी भारत से रूठी हुई थी, लिहाजा उसे पराजय ही मिली। 

भले ही रियो ओलंपिक को हप्ताभर हो गया है और भारत की झोली अभी भी खाली है लेकिन अभावों में पलकर बड़े हुए भारतीय खिलाड़ी जो प्रदर्शन कर रहे हैं, उसे सलाम करने को दिल करता है। हमारे खिलाड़ी हारे जरूर, लेकिन उन्होंने जान लड़ाकर अपने मुकाबले लड़े। जर्मनी की निशानेबाज बारबरा एंगलर ने गुरुवार को 33 बरस की उम्र में 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में सोने का पदक जीता। यह उनकी 12 साल की कड़ी तपस्या का मीठा फल था। आर्थिक अभावों की वजह से वे न चाहते हुए जर्मन सेना में भर्ती हुईं और अपने निशानेबाजी के शौक को स्वर्ण पदक के साथ पूरा किया। 
 
भारतीय खिलाड़ियों में भी जर्मन निशानेबाज बारबरा जैसा हौसला और जज्बा है। वे पदक न जीत पाएं, न सही, लेकिन ओलंपिक की पायदान चढ़ना ही एवरेस्ट फतह करने से कम नहीं है। जब तक हमारे देश में अन्य खेलों के लिए क्रांतिकारी बदलाव नहीं आएंगे, जब तक देश की सरकार खिलाड़ियों को राष्ट्रीय संपत्ति नहीं मानेगी, हमें खिलाड़ियों से झोलीभर पदक जीतने की उम्मीद रखना बेमानी ही होगी।

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