राजेश हर्षवर्द्धन
सूने मन के आँगन में
कुछ कोमल अँगारों में
फिर केसर-सी बदरी छाई
अभी-अभी तू फिर याद आई।
प्रिये, क्या तुम्हें याद है...!
उस संध्या जब साथ तुम्हारे
हाथ थाम कर साँझ सकारे
चलते थे हम हौले हरकारे...!
गूँगी-सी तन्हा रातों में
सहज-सुन्दर प्रपातों में
जिन्दादिल जज्बातों में
बातों ही बस बातों में... !
सुधियों ने आँखें छलकाई
अभी-अभी तू फिर याद आई..
मैं एकाकी आज सफर में
चलता हो ज्यों चाँद अंबर में
नाविक ज्यों फँसा भँवर में ...!
अन्तहीन था सफर हमारा
जीवन दुभर और अँगारा
ऐसे में,
प्रीत-पंख ने दिया सहारा
क्या मालूम जीता या हारा ...!
बची रही बस प्रीत परछाईं
प्रिये, अभी-अभी तू फिर याद आई।