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तुम्हें देखकर

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तुम्हें देखकर
मन में जैसे एक महाभारत होता है!

तुम चलती हो
एक हँसनी
सँभल-सँभल ज्यों डग भरती है,
पारिजात की टहनी जैसे
हल्की जुम्बिश से
झरती है;
बँधे ताल के
जल में कोई
बरबस ही ज्यों लहरें बोता है!

घर आँगन में बिखर गई तुम
गेंदे की ज्यों पीली पंखुरी,
जैसे छिड़क गया है कोई
अक्षत हल्दी
भर-भर अँजुरी;
शीतल, पावन
जैसे कोई
गंगा जल से घर धोतहै!


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