प्रेमरंजन अनिमेष
सब कुछ अच्छा-अच्छा
सोच कर रखता तुम्हारी अगवानी के लिए
पर तुम आते
और टूट जाता बाँध
बह निकलता
जिस तरह हूँ जैसा
बुरा न मानना
हमेशा के लिए
मत रूठना
माफ कर देना
इस बार भर
कर सकूँ
सब सोचा
सब सही
एक अवसर और
फिर आना जरूर...
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पढ़ना
पढ़ना चाहता हूँ तुम्हें
कहा मैंने
उतने ही पास
उतनी ही दूर से
जितने पर
पढ़े जाते वक्त
होती है किताब
ठीक है...
सौंप दिया उसने
खुद को मेरे हाथों में
पढ़ते-पढ़ते
खो गया समझने में
सोचते-सोचते
जाने कब
भरम गई आँखें
सो गया
खुली किताब
सीने पर
उलट कर...।