प्रज्ञा रावत
सब डरते हैं
अँधेरी गुफाओं में
सूखे नयनों से
इक्कीसवीं सदी का जुमला है
हँसी तो सब साथ देते हैं
रोना अकेले ही पड़ता है
कौन बैठे!
बैठा ही रहे
आसमान में छिपे तारे की तरह
टकटकी लगाता निहारता
अपने ब्रह्मांड को
कौन बनकर हवा
सरसरा दे
निचाट अकेलेपन को
यह इस अकेलेपन को
अपनी ही बयानबाजी है
जहाँ सब कुछ शुभ है
सिवाय इस आस के
कि कभी कहीं कोई तो गाएगा
चलो दिलदार चलो
चाँद के पार चलो