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प्रेम कविता: ज्योतिर्मय तुम

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सुशील कुमार शर्मा

, मंगलवार, 15 जुलाई 2025 (17:04 IST)
हर चीज़ में बस तुम हो।
 
सुबह की पहली किरण आई 
मन ने कहा, तुम आईं।
 
तुलसी के नीचे बैठा हवा का झोंका 
मंद, कोमल वो भी तुम।
 
चाय की कप से उठती भाप 
तुम्हारे हाथों की गर्मी याद आई,
सोच लिया यह भी तुम।
 
कभी नामों के अर्थ देखे थे
शब्दकोशों में 
पर अर्थ तब तक अधूरा था
जब तक तुम नहीं आईं।
 
तुम वह लौ हो
जो मेरे भीतर
हर असमंजस को
रोशनी में बदल देती हो।
 
तुम वो आँखें हो
जो मेरी चुप्पी भी पढ़ लेती हैं।
 
तुम वो स्वर है
जिससे मौन भी अर्थ पाते हैं।
 
मैंने जब कविता लिखना शुरू किया
तो हर पंक्ति
तुम्हें कहती चली गई।
 
पेड़ की डाल पर बैठा 
एक पाखी
चहकते हुए बोला 
मेरी तुम।
 
आज जिन फूलों को तोड़ा
उनमें से भी एक ने सुगंध में कहा 
 ये तुम हो।
उन फूलों से आती है
तुम्हारे बदन की मादक खुशबू
 
मेरे नोटबुक का हर खाली पन्ना
तुम्हारे नाम को तरसता है 
हर बार, हर कोने में
बस तुम।
 
कभी सोचा 
तुम्हारी हँसी भी मै है,
तुम्हारा गुस्सा भी मैं,
तुम्हारी चुप्पी भी
मैं  सब कुछ मेरे लिए।
 
बचपन में मैंने पहली बार
दीपावली पर दीया जलाया था 
पर तब मैं नहीं जानता था
कि उस लौ में भी
तुम्हारा ही नाम होता है।
वो पूजन भी तुम ही हो।
 
मेरे जीवन की दिशा 
तुम,
मेरे भ्रमों की सफाई 
तुम,
मेरे शब्दों का विलोम 
तुम।
 
जब कभी थक कर बैठा
तुम्हारा नाम पुकारा 
जैसे कहता हूं मेरी तुम
और थकान उतर जाती है।
 
जब मैं तुम्हारा ज़िक्र करता हूं
तो सभी कहते है
'सही नाम है ये वो ही है।'
 
मेरे सपनों में आने वाला
हर चेहरा
धीरे-धीरे बदलता है 
और अंत में बन जाता है 
तुम्हारा चेहरा।
 
मेरी नींद की पहली करवट 
तुम,
अलार्म की पहली घंटी 
तुम।
 
तुम्हारे बिना एक दिन
जैसे दिन नहीं 
सिर्फ एक तारीख हो,
और तारीख के नीचे
लिखा हो 
'वो नहीं है।'
 
हर उत्सव
जब अधूरा लगता है
हर दिया में
अरे, तुम हो
देखता हूं।
 
मैंने मंदिर में
जब भी दीप जलाया
सोचा 
ये सिर्फ घी और बाती नहीं 
ये तुम्हारी प्रतीक्षा है।
 
हर वह पंक्ति
जिसे मैं अधूरा छोड़ देता हूँ
वह तुम हो 
तुम्हारे नाम से ही
वह कविता पूरी होती है 
क्योंकि अंत में लिखता हूं 
तुम्हारे बिना अधूरा था,
तुम से ही पूर्ण हुआ।"
 
केक, फूल, उपहार नहीं…
केवल नाम है
जो मैं सौ बार लेना चाहता हूँ,
हर बार नए अर्थ में:
 
तुम — धड़कन,
तुम—  मन की शांति,
तुम— जिद,
तुम — तसल्ली,
तुम — जंग,
तुम — जीत।
 
तुम मेरी हो
क्योंकि इस नाम में
हर बार तुम ही मिलती हो 
एक नई, एक पुरानी,
एक पहचान से परे
एक गहराई से भरी।
 
इस कविता के हर छंद में
हर सांस में
हर विराम के बाद
सिर्फ और सिर्फ
तुम और 
तुम्हारे मैं।
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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