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हिन्दी कविता : बिखराव...

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सुशील कुमार शर्मा

अपने बिखराव को जोड़ा बहुत
 

 
पर मुकम्मिल होता तो होता कैसे 
पत्थर दिलों के बीच बहा नदियों जैसे
 
कुछ पत्थरों ने चीर डाला मुझे
कुछ को रगड़कर मैंने रेत कर दिया
 
कुछ पत्थर बह गए बहाव में 
कुछ थे खड़े तटस्थ साक्षी भाव में 
 
कुछ घाट में स्थिर खड़े ही रह गए 
कुछ कंगूरों की कतारों पर जड़े गए 
 
कुछ बन गए शिव के अंग 
कुछ पड़े रहे रास्तों पर बेरंग 
 
नहीं बटोर पाता अपने टुकड़ों को 
क्योंकि वो बिखरे हैं 
तेरे अस्तित्व की सड़कों पर। 

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