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कविता : अबकी बादल यूं ही बरसते रहे...

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राकेशधर द्विवेदी

अबकी बादल यूं ही बरसते रहे
हम प्यार की एक बूंद को तरसते रहे


 
यूं तो ‍दरियों पानी बहुत ज्यादा था
लेकिन हम तो गंगाजल की एक बूंद को तरसते रहे
 
बात मुद्दत से जो दिल में छिपा रखी थी
लबों पर वो रुक-रुककर आने लगी
बात दिल में कब तक छुपाए रखें
आंखें खुद ही कहानी बताने लगी
 
रातभर चांद आज है रोया बहुत
सुबह धरती यह कहानी बताने लगी
चांदनी कब से उससे दूर थी
इस हकीकत की बयानी बताने लगी
 
कोई दरिया से पूछे
कितना लंबा सफर वो तय कर जाती है
पत्थरों-कंकड़ों से लड़ और झगड़ जाती है
आके समुंदर के गले मिल जाती है
 
इस कहानी को यूं ही हम पढ़ते रहे
अपनी हसरत को आंखों से कहते रहे
अबकी बादल यूं ही बरसते रहे
हम प्यार की एक बूंद को तरसते रहे। 
 
 

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