विलास पंडित 'मुसाफिर'
किसी का जहां में सहारा नहीं है
ग़मों की नदी का किनारा नहीं है
है अफ़सोस मुझको मुक़द्दर में मेरे
चमकता हुआ कोई तारा नहीं है
खुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ कर
जिसे आस्मां से उतारा नहीं है
जो चाहो तो चाहत का इज़हार कर दो
अभी मैंने हसरत को मारा नहीं है
ये कहने को बस ज़िंदगी है हमारी
मगर एक पल भी हमारा नहीं है
ऐ मंज़िल तू ख़ुद क्यूँ क़रीब आ रही है
अभी वो 'मुसाफिर' तो हारा नहीं है