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गाता फागुन दे न सको तो...

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- डॉ. कमल प्रसाद कमल

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सन्नाटा! दघुटतहै,
मूक स्वरों कगुंजदो!
मैं हूँ स्वर का एक पुजारी,
स्वर बिन दूभर जिसका जीना
मेरा काम सदा गा गाकर,
दुखिया जग के आँसू पीना
चाह नहीं मेरे गीतों में,
तुम खुशियों के भर दो सरगम
चाह यही है दुनिया भर का
दर्द लिए ये गूँजे हरदम
गाता फागुन दे न सको तो,
मुझको रोता सावन दे दो!

चाह नहीं मेरी बगिया में
फूल खिला दो रंग रंगीले
चाह नहीं साकार करो तुम
मेरे सारे सपन सजीले
फूल न आशा के महकें,
जख्मों से आबाद रहे मन
काँटे, कसक, जलन, पीड़ाएँ,
कुछ तो हो जीने का साधन
मैं मधुमास ना तुमसे माँगू,
चाह नहीं यह मधुबन दे दो!

पाँवों को घेरे चलता है,
गर्म रेत का तपता सागर
फूल नहीं कोई राहों में,
जिधर चलो शूलों के नश्तर
नजरें खोई, आँखें रोई,
जीवन अरमानों का खंडहर
आँधी में सूखे पत्ते सी
आठ प्रहर प्राणों में थर-थर
यह मंजर ही सब कुछ जो तुम
मन वीणा को कंपन दे दो
यह सन्नाटा! दम घुटता है,
मूक स्वरों को गुंजन दे दो

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