फाल्गुनी
वक्त जख़्मों को
भर देता है
सुना था,
किंतु
तुम्हें सामने पाकर
लगा कि
वक्त भी वहीं है
और तुमसे मिले
जख़्म भी वहीं,
न वक़्त गुज़रा है,
न जख़्म भरे हैं,
बस लगता है
गुजर गई हूँ मैं...!
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एक क्षीण रेखा
यादों की
जब भी उभरी है मन पर
मैंने अपने आप से
पलायन कर लिया, तुम्हें
बहुत दूर किनारे से याद कर लिया।