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प्यार में भौतिकता का क्या काम?

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हमें फॉलो करें प्यार भौतिकतावाद
भौतिकतावाद के युग में प्यार के मायने तेजी से बदल रहे हैं और क्यों न बदले? इस भागमभाग की दुनिया में जिंदगी जीने का नजरिया भी तो बदला है, अतः प्यार के समीकरण भी बदले हैं और इंसान भी बदल गया है, जो केवल भौतिकतावाद के चक्रव्यूह में फँसकर रह गया है। उसे सच्चे प्यार से कोई मतलब नहीं, उसे तो बस, केवल सुख-सुविधाओं से ही वास्ता रह गया है। आप सामने वाले को जितनी भी सुख-सुविधाएँ देंगे, समझ लीजिए, आपके प्यार का ग्राफ उतना ही ऊपर चढ़ेगा। हम यूँ कह सकते हैं कि आज प्यार एक लेन-देन की वस्तु-भर रह गया है। इसमें सौदेबाजी होने लगी है, प्यार में शर्तों का आगमन हुआ है, और यह सच्चे प्रेम में सबसे बड़ी बाधा है।

दरअसल प्यार में कोई शर्त नहीं होना चाहिए। पर आपको आज ऐसे कई उदाहरण मिल जाएँगे। मसलन अगर मुझसे प्यार करते हो, तो यह मत करो या यह मत करना जैसी शर्तें अपने आप शामिल कर ली जाती हैं। पर याद रखिए प्यार में अगर कोई शर्त जुड़ जाती है, तो इसका सीधा-सा मतलब है कि वह प्यार, प्यार नहीं वरन एक शर्त है।

चलिए, शुरुआत पति-पत्नी के रिश्तों से करते हैं। अमूमन पति-पत्नी को एक-दूसरे के व्यवहार से बहुत-सी शिकायतें रहती हैं और इन शिकायतों में एक-दूसरे का खयाल रखते हुए वे उसका निवारण भी करते हैं, फिर भी कभी-कभी मनमुटाव हो जाता है और यह मनमुटाव होताहै- प्यार में, शर्तों को लादने से। देखा जाए तो पति-पत्नी का रिश्ता दो पहियों पर टिका होता है, अगर इसका एक पहिया भी डगमगाता है, तो पति-पत्नी के रिश्ते की नैया भी गोते खाने लगती है। कुछ पत्नियाँ अक्सर पति से कुछ न कुछ डिमांड करती रहती हैं (मनमुटाव की शुरुआत भी यहीं से होती है) और पुरुष उसकी इस डिमांड को भी पूरा करता है, फिर भी अकसर पति को इस बात के लिए प्रताड़ित किया जाता है कि तुमने मुझे आज तक क्या दिया है?

यहाँ कहना आवश्यक है कि पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद लेन-देन तक ही सीमित नहीं है और क्या रिश्तों को लेन-देन ही बाँधे रख सकता है? पति-पत्नी के रिश्तों को चंद उपहार देकर नहीं तोड़ा जा सकता। पति अगर पत्नी को बाहर घुमाने-फिराने नहीं ले जाए, किसी अच्छे होटल में खाना नहीं खिलाए, महँगे उपहार लाकर न दे आदि-आदि, तो यह कह दियाजाता है कि तुम्हें मुझसे प्यार नहीं है। वहीं कुछ पति भी पहनावे, रहन-सहन या ऐसे ही कई विषयों के संबंध में पत्नी पर शर्तें लादते रहते हैं। यहाँ अहम सवाल है कि क्या यह सब करने से ही प्यार बढ़ता है? क्या इस तरह की शर्तें जरूरी हैं?

श्रीमती शालिनी एक सीधी-सादी घरेलू महिला थीं। जैसे-जैसे उनके विवाह को वर्षों की गति मिलती गई, वे भौतिकतावाद के भँवर में फँसती चली गईं। 5 दिसंबर को जब उनकी छठी सालगिरह आने ही वाली थी कि उन्होंने अपने पति से उतना महँगा तोहफा माँग लिया जो उनका पति उन्हें कभी दे ही नहीं सकता था। और वे अपनी माँग पर अड़ भी गर्ईं। नतीजा यह हुआ कि अब वहाँ हँसी-खुशी की जिंदगी नहीं थी, उसकी जगह कलह एवं विवादों ने ले ली थी।

जहाँ तक प्यार में शर्तों का सवाल है, यह केवल पति-पत्नी के बीच तक ही सीमित नहीं है। अब इसका दायरा बढ़ने लगा है। इन दायरों में पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, यार-दोस्त भी शामिल होने लगे हैं, जिन्हें केवल शर्तों से ही लगाव होता है। प्रेम से कोई लेना-देना नहीं होता। हम यूँ कह सकते हैं कि आज के इस युग में बगैर लेन-देन व शर्तों के प्यार अधूरा है। अगर आपने कुछ दे दिया है, तो समझ लीजिए कि प्यार जिन्दा है, नहीं तो सब कुछ खत्म। आज की मानसिकता ही ऐसी हो गई है। यूँ तो रक्षाबंधन भाई-बहन को एक-दूसरे से बाँधने का त्योहार है। परंतु इसमें भी कई लोग महज यह सोचकर आनंदित होते हैं कि कुछ उपहार मिलेगा।

यहाँ कहते हुए सुना जा सकता है कि इस बार आप मुझे यह लाकर देना, मुझे यह चाहिए या यह भी कहा जाता है कि 'अरे, मैं तो कोई राखी-वाखी नहीं बाँधती उसे, क्या देगा वह मुझे?' और फिर शुरुआत होती है कड़वाहट की। इस तरह की शर्तों को जोड़कर रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्योहार को भी बदनाम किया जा सकता है। कहीं-कहीं तो यह भी देखा जाता है कि अगर एक भाई द्वारा कुछ दिया जाता है, तो वह अच्छा है और जो देने मेंसमर्थ नहीं है, वह बुरा कहलाता है। इस तरह की बातें अक्सर परिवार में ही उजागर होती रहती हैं। यह तो कोई प्यार नहीं हुआ। कायदे से प्यार और रिश्ते में कोई मोलभाव नहीं होना चाहिए, पर होता यही है। उपहार (सौदा) पहले ही तय हो जाता है, इस कड़वे सच को स्वीकार करना ही होगा।

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