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परमाणु सिद्धांत के असली जनक तो ये हैं...

परमाणु और गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के जनक आचार्य कणाद

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अनिरुद्ध जोशी

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इतिहास सिद्ध है कि भारत का विज्ञान और धर्म अरब के रास्ते यूनान पहुंचा और यूनानियों ने इस ज्ञान के दम पर जो आविष्कार किए और सिद्धांत बनाए उससे आधुनिक विज्ञान को मदद मिली। लेकिन यह शर्म की बात है कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों को श्रेय देने के बजाया खुद को ही दिया। लेकिन सत्य सूरज की तरह होता है जो ज्यादा देर तक छिपा नहीं रह सकता।

भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है- इस सिद्धांत के जनक महर्षि कणाद थे। यह बात आधुनिक युग के अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन (6 सितंबर 1766 -27 जुलाई 1844) भी जानते ही होंगे। इसके अलावा महर्षि कणाद ने ही न्यूटन से पूर्व गति के तीन नियम बताए थे। न्यूटन भी जानते ही होंगे।

भारत के 10 महान आविष्कारक, जानिए

।।वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते। वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु। वेगः संयोगविशेषविरोधी।।- वैशेषिक दर्शन
अर्थात्‌ : वेग या मोशन (motion) पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।

गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत : सर आइजक न्यूटन ने 5 जुलाई 1687 को अपने कार्य 'फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका' में गति के इन तीन नियमों को प्रकाशित किया। पश्चिम जगत मानता है कि 1687 से पहले कभी सेब जमीन पर गिरा ही नहीं था। जब सेब गिरा तभी दुनिया को समझ में आया की धरती में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति होती है। हालांकि इस शक्ति को विस्तार से सबसे पहले भास्कराचार्य ने समझाया था।

उपरोक्त संस्कृत सूत्र न्यूटन के 913 वर्ष पूर्व अर्थात ईसा से 600 वर्ष पूर्व लिखा गया था। न्यूटन के गति के नियमों की खोज से पहले भारतीय वैज्ञानिक और दार्शनिक महर्षि कणाद ने यह सू‍त्र 'वैशेषिक सूत्र' में लिखा था, जो शक्ति और गति के बीच संबंध का वर्णन करता है। निश्चित ही न्यूटन साहब ने वैशेषिक सूत्र में ही इसे खोज लिया होगा। पश्चिमी जगत के वैज्ञानिक दुनियाभर में खोज करते रहे थे। इस खोज में सबसे अहम चीज जो उन्हें प्राप्त हुई वह थी 'भारतीय दर्शन शास्त्र।'

परमाणु बम : परमाणु बम के बारे में आज सभी जानते हैं। यह कितना खतरनाक है यह भी सभी जानते हैं। आधुनिक काल में इस बम के आविष्कार हैं- जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 कई वैज्ञानिकों ने काम किया और 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परीक्षण किया गया। हालांकि परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन (6 सितंबर 1766 -27 जुलाई 1844) को माना जाता है, लेकिन उनसे भी लगभग 913 वर्ष पूर्व ऋषि कणाद ने वेदों में लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।

विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेबुरक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे। ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है। आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

महर्षि कणाद ने परमाणु को ही अंतिम तत्व माना। कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव:, पीलव:, पीलव: अर्थात परमाणु, परमाणु, परमाणु।

आज से 2600 वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था। कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे है।

वेदों में सब कुछ : ऐसा कुछ छिपा हुआ नहीं है, जो वेदों में नहीं लिखा हो। सभी तरह के विज्ञान और दर्शन वेदों की ऋचाओं में बंद हैं। जिसने उसे खोला उसने अपने एक अलग ही दर्शन को खोज लिया। वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, उन्हीं को सप्त ऋषियों ने अपनी गुरु-शिष्य परंपरा से विस्तार दिया।

बाद में वहीं सूत्र ब्राह्मणों (ग्रंथ के नाम) में आकर अंकुरित हुए और वही सूत्र अरण्यकों में आकर पौधे बने और वही अंत में उपनिषदों में वृक्ष बन गए। इस विशालकाय वृक्ष की मुख्य शाखाएं हैं हमारे प्रमुख 6 भारतीय दर्शन। लेकिन इन 6 दर्शनों से पूर्व भगवान कृष्ण से वेद, उपनिषद में उल्लेखित सभी तरह के दर्शन को गीता में समेट दिया है।

ये 6 भाग हैं:- न्याय (प्रत्यक्ष ही सत्य है विज्ञानवाद), वैशेषिक (अणु ही सत्य है), मीमांसा (बहुदेववादी), सांख्य (द्वैतवादी), वेदांत (अद्वैतवाद) और योग (प्रयोगवादी)। मोटे तौर पर समझने के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि ये किस तरह के 'वाद' को मानते हैं। लेकिन यह समझने के लिए कि यह क्या है, आपको दर्शनशास्त्र पढ़ना होगा। इन छहों को हिन्दुओं का षड्दर्शन कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन वास्तव में एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। यह आत्मा को भी पदार्थ ही मानता है।

न्याय लिखा महर्षि अक्षपाद गौतम ने, वैशेषिक लिखा महर्षि कणाद ने, मीमांसा लिखा आद्याचार्य जैमिनि ने, सांख्य लिखा महर्षि कपिल ने, वेदांत लिखा महर्षि वादरायण ने और योग लिखा महर्षि पतंजलि ने। आओ हम जानते हैं महर्षि कणाद का अणुवाद।

 

अगले पन्ने पर कौन थे कणाद..

 


महर्षि कणाद : कणाद गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट कृष्ण के निर्वाण स्थल पर) में जन्मे थे। महर्षि कणाद ईसा से 600 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात बुध और महावीर के काल में। यह कहना उचित होगा कि बौद्ध काल ज्ञान, विज्ञान, धर्म और दर्शन के रिफॉर्म का काल था। इस काल में वेदों पर जमी धूल हटाई गई और ज्ञान को नए सांचे में नई भाषा के साथ ढाला गया।

महर्षि कणाद वैशेषिक सूत्र के निर्माता, परंपरा से प्रचलित वैशेषिक सिद्धांतों के क्रमबद्ध संग्रहकर्ता एवं वैशेषिक दर्शन के उद्धारकर्ता माने जाते हैं। वे उलूक, काश्यप, पैलुक आदि नामों से भी प्रख्यात थे। महर्षि कणाद ने इस दार्शनिक मत द्वारा ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा का ध्येय रखा है, जो भौतिक जीवन को बेहतर बनाए और लोकोत्तर जीवन में मोक्ष का साधन हो।

न्याय दर्शन जहां अंतरजगत और ज्ञान की मीमांसा को प्रधानता देता है, वहीं वैशेषिक दर्शन बाह्य जगत की विस्तृत समीक्षा करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे अजर, अमर और अविकारी माना गया है। न्याय और वैशेषिक दोनों ही दर्शन परमाणु से संसार की शुरुआत मानते हैं। इनके अनुसार सृष्टि रचना में परमाणु उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। इसके अनुसार जीवात्मा विभु और नित्य है तथा दुखों का खत्म होना ही मोक्ष है।

भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है- इस सिद्धांत के जनक महर्षि कणाद थे। महर्षि कणाद का जन्म चरक और पतंजलि से पूर्व हुआ था। बादरायण के प्रसिद्ध ग्रंथ 'ब्रह्मसूत्र' में भी वैशेषिक दर्शन का उल्लेख मिलता है। कश्मीर के कुमारजीव और उज्जयिनी के परमार्थ ने चीनी भाषा में भारतीय बौद्ध और अन्य दर्शनों का अनुवाद चौथी और पांचवीं सदी में किया था। इस दौरान बौद्ध विद्वान भारतीय दर्शन में केवल सांख्य और वैशेषिक दर्शन में ही रुचि रखते थे। चीनी विद्वान डॉ. एच. ऊई ने वै‍शेषिक दर्शन के काल को प्रारंभिक बौद्ध दर्शन का काल या उसके पूर्ववर्ती या सममालीन काल होने का अनुमान लगाया है। उनके अनुसार यह समकालीन या बौद्ध दर्शन के पूर्व गढ़ा गया दर्शन है।

1917 में ऊई न वैशेषिक दर्शन पर काम करते हुए एक पुस्तक में लिखा कि पांचवीं शताब्दी में ही बौद्ध भिक्षुओं द्वारा भारत से जो ग्रन्थ चीन ले जाए गए, उनमें सभी ग्रन्थ बौद्ध धर्म और दर्शन से संबंधित थे। केवल दो ग्रंथ ईश्वर कृष्ण की संख्य कारिका और कणाद की वै‍शेषिक दर्शन थे।

वैशेषिक दर्शन शुद्धरूप से पदार्थ शास्त्र है। अब यही वैशेषिक दर्शन न्याय वैशेषिक नाम से उपलब्ध है। अक्षपाद गौतम का न्याय दर्शन वैशेषिक दर्शन के 200 वर्ष बाद प्रमाणों की तार्किक व्याख्या के लिए रचा गया था। इस काल में विदेशी नस्ले यवन, कुषाण, हूण, आभिर, शक आदि का भारतीय समाज में संविलयन होकर जिसके कारण सांस्कृतिक विविधता और धर्म बढ़ें।

कणाद का ग्रंथ : कणादकृत वैशेषिक सूत्र- इसमें 10 अध्याय हैं। वैशेषिक सूत्र के 2 भाष्य ग्रंथ हैं- रावण भाष्य तथा भारद्वाज वृत्ति। वर्तमान में दोनों अप्राप्य हैं। पदार्थ धर्म संग्रह (प्रशस्तपाद, 4थी सदी के पूर्व) वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रंथ है। यद्यपि इसे वैशेषिक सूत्र का भाष्य कहा जाता है, किंतु यह एक स्वतंत्र ग्रंथ है।

पदार्थ धर्म संग्रह की टीका 'व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य, 8 वीं सदी), पदार्थ धर्म संग्रह की अन्य टीकाएं हैं- 'न्यायकंदली' (श्रीधराचार्य, 10 वीं सदी), 'किरणावली' (उदयनाचार्य 10वीं सदी), लीलावती (श्रीवत्स, 11वीं सदी)।

पदार्थ धर्म संग्रह पर आधारित चन्द्र के 'दशपदार्थशास्त्र' का अब केवल चीनी अनुवाद प्राप्य है। 11वीं सदी के आसपास रचित शिवादित्य की 'सप्तपदार्थी' में न्याय तथा वैशेषिक का सम्मिश्रण है।

अन्य : कटंदी, वृत्ति-उपस्कर (शंकर मिश्र 15वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत 20वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण 20वीं सदी), कणाद-रहस्य, तार्किक-रक्षा आदि अनेक मौलिक तथा टीका ग्रंथ हैं।

अगले पन्ने पर विस्तार से वैशेषिक दर्शन...


परमाणु विज्ञान : महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था- ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:' जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस यानी आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।

‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय' : अर्थात प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है। -वैशेषिक दर्शन अध्याय 10

कणाद के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्‌, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं। कणाद ने परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं।

कणाद के अनुसार परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते। एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक' का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मॉलिक्यूल' लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न-भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन ऑफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।

महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी, जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। उनके अनुसार द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत्‌ यानी विशाल ब्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।

।।धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम:।। -वैशेषिक दर्शन 0-4

अर्थात धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।

द्रव्य को जानना : कुछ भी जानने के लिए प्रथम माध्यम हमारी इन्द्रियां ही हैं। इनके द्वारा मनुष्य देखकर, चखकर, सूंघकर, स्पर्श कर तथा सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है। बाह्य जगत के ये माध्यम हैं। विभिन्न उपकरण इन इंद्रियों को जानने की शक्ति बढ़ाते हैं। सर्वप्रथम द्रव्य को इसी से जाना जा सकता है।

दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण माध्यम अंतरज्ञान माना गया जिसमें शरीर को प्रयोगशाला बना समस्त विचार, भावना, इच्छा इनमें स्पंदन शांत होने पर सत्य अपने को उद्घाटित करता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के ये दोनों माध्यम रहे तथा मूल सत्य के निकट अंतरज्ञान की अनुभूति से उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न हुआ।

द्रव्य क्या है? पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणि।। -वै.द. 1/5

अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा जीवात्मा तथा मन- ये सभी द्रव्य हैं। यहां पृथ्वी, जल आदि से कोई हमारी पृथ्वी, जल आदि का अर्थ लेते हैं। पर ध्यान रखें इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ये 9 द्रव्य कहे गए, अत: स्थूल पृथ्वी से यहां अर्थ नहीं है। इसका अर्थ जड़ से है। जड़ जगत ब्रह्मांड में सभी जगह है। इसे आज का विज्ञान ठोस पदार्थ कहता है।

पृथ्वी यानी द्रव्य का ठोस (Solid) रूप, जल यानी द्रव्य का तरल (Liquid) रूप तथा वायु अर्थात द्रव्य का एयर (Air) रूप, यह तो सामान्यत: दुनिया में पहले से ज्ञात था। पर महर्षि कणाद कहते हैं कि तेज भी द्रव्य है जबकि पदार्थ व ऊर्जा एक है, यह ज्ञान 20वीं सदी में आया है। इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- आकाश भी द्रव्य है तथा आकाश परमाणुरहित है और सारी गति आकाश के सहारे ही होती है, क्योंकि परमाणु के भ्रमण में हरेक के बीच अवकाश या प्रभाव क्षेत्र रहता है।

अत: हमारे भारतीय दर्शन में घटाकाश, महाकाश, हृदयाकाश आदि शब्दों का प्रयोग होता है। महर्षि कणाद कहते हैं- दिक्‌ (Diversion) तथा काल (time) यह भी द्रव्य है, जबकि पश्चिम से इसकी अवधारणा आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के प्रतिपादन के बाद आई।

महर्षि कणाद के मत में मन तथा आत्मा भी द्रव्य हैं। यह समझना जरा कठिन है कि आत्मा किस तरह द्रव्य है। आज का विज्ञान भी इसे अभी समझने में सक्षम नहीं है। दरअसल जिस तरह आकाश के कई प्रकार हैं उसी तरह आत्मा के। अथ: प्रत्येक द्रव्य की स्थिति आणविक है। वे गतिशील हैं तथा परिमंडलाकार उनकी स्थिति है।

‘नित्यं परिमण्डलम्‌'।- वै.द. 7/20
अर्थात : परमाणु छोटे-बड़े रहते हैं, इस विषय में महर्षि कणाद कहते हैं-
एतेन दीर्घत्वहृस्वत्वे व्याख्याते (वै.द.) 7-1-17
अर्थात : आकर्षण-विकर्षण से अणुओं में छोटापन और बड़ापन उत्पन्न होता है।

इसी प्रकार ब्रह्मसूत्र में कहा गया-
महद्‌ दीर्घवद्वा हृस्वपरिमण्डलाभ्याम्‌ (व्र.सूत्र 2-2-11)
अर्थात महद्‌ से हृस्व तथा दीर्घ परिमंडल बनते हैं।
परमाणु प्रभावित कैसे होते हैं तो महर्षि कणाद कहते हैं-
विभवान्महानाकाशस्तथा च आत्मा (वै.द. 7-22)
अर्थात् उच्च ऊर्जा, आकाश व आत्मा के प्रभाव से।

परमाणुओं से सृष्टि की प्रक्रिया कैसे होती है? तो महर्षि कणाद कहते हैं कि पाकज क्रिया के द्वारा। इसे पीलुपाक क्रिया भी कहते हैं अर्थात अग्नि या ताप द्वारा परमाणुओं का संयोजन होता है। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक बनते हैं। तीन द्वयणुक से एक त्रयणुक, चार त्रयणुक से एक चतुर्णुक तथा इस प्रकार स्थूल पदार्थों निर्मित होते जाते हैं। वे कुछ समय रहते हैं तथा बाद में पुन: उनका क्षरण होता है और मूल रूप में लौटते हैं। हमारे शरीर और इस ब्रह्मांड की रचना इसी तरह हुई है।

लेकिन विद्वान लोग कहते हैं कि महर्षि कपिल थोड़ा और गहराई में गए तथा कपिल का सांख्य दर्शन जगत की अत्यंत वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करता है।

अगले पन्ने पर कैसे नाम पड़ा वैशेषिक...


वैशेषिक दर्शन अनुसार व्यावहारिक तत्वों का विचार करने में संलग्न रहने पर भी स्थूल दृष्टि से सर्वथा व्यवहारत: समान रहने पर भी प्रत्येक वस्तु दूसरे से भिन्न है। वैशेषिक ने इसके परिचायक एकमात्र पदार्थ 'विशेष' पर बल दिया है इसलिए प्राचीन भारतीय दर्शन की इस धारा को 'वैशेषिक' दर्शन कहते हैं।

दूसरा यह कि प्रत्येक नित्य द्रव्य को परस्पर पृथक करने के लिए तथा प्रत्येक तत्व के वास्तविक स्वरूप को पृथक-पृथक जानने के लिए कणाद ने एक 'विशेष' नाम का पदार्थ माना है। 'द्वित्व', 'पाकजोत्पत्ति' एवं 'विभागज विभाग' इन 3 बातों में इनका अपना विशेष मत है जिसमें ये दृढ़ हैं। विशेष पदार्थ होने से ‍'विशेष' पर बल दिया गया इसलिए वैशेषिक कहलाए।

संदर्भ : ‍जीवन का यथार्थ और वर्तमान जगत (देवीप्रसाद मौर्य), भारतीय दर्शन के सूत्र (रामशरण शर्मा)

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