‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’
अर्थात सारी दुनिया को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाएंगे।
हिन्दू धर्म को दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म माना जाता है। कुछ लोग इसे मूर्तिपूजकों, प्रकृति पूजकों या हजारों देवी-देवताओं के पूजकों का धर्म मानकर इसकी आलोचना करते हैं, कुछ लोग इसको जातिवादी धारणा को पोषित करने वाला धर्म मानते हैं, लेकिन यह उनकी सतही सोच या नफरत का ही परिणाम है। उन्होंने कभी उपनिषदों या गीता का अध्ययन नहीं किया। आलोचना का अधिकार उसे होना चाहिए जिसने सभी धर्मों का गहन रूप से अध्ययन किया हो। समालोचना सही है लेकिन धर्मान्तरण करने हेतु आलोचना क्षमायोग्य नहीं मानी जाएगी।
हिन्दू धर्म को जातिवाद के नाम पर तोड़े जाने का कुचक्र सैकड़ों वर्षों से जारी है। हालांकि जो लोग खुद को ऊंचा या नीचा समझते हैं उनको जातियों के उत्थान और पतन का इतिहास नहीं मालूम है। उन्होंने मुगल और अंग्रेजों के काल का इतिहास अच्छे से पढ़ा नहीं है। वे तो 70 वर्षों की विभाजनकारी राजनीति के शिकार हो चले हैं। इतिहास की जानकारी अच्छे से नहीं होने के कारण ही राजनीतिज्ञों ने नफरत फैलाकर हिन्दुओं को धर्म, जाति और पार्टियों में बांट रखा है। यह बहुत आसान है। आज हम बताएंगे आपको कि क्यों हिन्दू धर्म दुनिया का महान धर्म है।
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दुनिया का प्रथम धर्म : प्राचीन कहने से कोई महान नहीं बनता लेकिन कई धर्मों की उत्पत्ति का कारण बनने और ज्ञान का प्रचार करने से कोई महान जरूर बन जाता है। प्राप्त शोधानुसार सिन्धु और सरस्वती नदी के बीच जो सभ्यता बसी थी, वह दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यता थी। यह वर्तमान के अफगानिस्तान से हिन्दुस्तान तक फैली थी। प्राचीनकाल में जितनी विशाल नदी सिन्धु थी उससे कई ज्यादा विशाल नदी सरस्वती थी। इसी सभ्यता के लोगों ने दुनियाभर में धर्म, समाज, नगर, व्यापार, विज्ञान आदि की स्थापना की थी।
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म है इसका सबूत है वेद। वेद दुनिया की प्रथम पुस्तक है। वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। सर्वप्रथम ईश्वर ने 4 ऋषियों को इसका ज्ञान दिया- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। ये ऋषि न तो ब्राह्मण थे और न दलित, न क्षत्रिय थे और न वैश्य। वेदों के आधार पर ही दुनिया के अन्य धर्मग्रंथों की रचना हुई। जिन्होंने वेद पढ़े हैं, वे ये बात भली-भांति जानते हैं और जिन्होंने नहीं पढ़े हैं उनके लिए नफरत ही उनका धर्म है।
वेद वैदिककाल की वाचिक परंपरा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले 6-7 हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। दरअसल, वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है अर्थात ये धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को 3 भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे 'वेदत्रयी' कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया।
दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापर युग की समाप्ति के बाद महर्षि वेदव्यास ने वेद को 4 प्रभागों में संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा 4 शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनी को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6,510 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ था। इसका मतलब यह कि वैवस्वत मनु (6673 ईसापूर्व) काल में वेद लिखे गए।
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मोक्ष और ध्यान : ध्यान और मोक्ष हिन्दू धर्म की ही देन है। मोक्ष, मुक्ति या परमगति की धारणा या विश्वास का जनक वेद ही है। जैन धर्म में कैवल्य ज्ञान, बौद्ध धर्म में निर्वाण या बुद्धत्व का आधार वेदों का ज्ञान ही है। योग में इसे 'समाधि' कहा गया है। इस्लाम में मग़फ़िरत, ईसाई में सेल्वेसन कहा जाता है, लेकिन वेदों के इस ज्ञान को सभी ने अलग-अलग तरीके से समझकर इसकी व्याख्या की।
मोक्ष प्राप्ति हेतु ध्यान को सबसे कारगर और सरल मार्ग माना जाता है। अमृतनादोपनिषद में मोक्ष का सरल मार्ग बताया गया है। हिन्दू ऋषियों ने मोक्ष की धारणा और इसे प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया है। यह सनातन धर्म की महत्वपूर्ण देनों में से एक है। मोक्ष का मतलब सिर्फ यह नहीं कि जन्म और मृत्यु से छुटकारा पाकर परम आनंद को प्राप्त करना। ऐसे बहुत से भूत, प्रेत या संत आत्माएं हैं, जो जन्म और मृत्यु से दूर रहकर जी रहे हैं। मोक्ष एक बृहत्तर विषय है। 'मोक्ष' का अर्थ है गति का रुक जाना, स्वयं प्रकाश हो जाना। वर्तमान में आत्मा नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देव गति नामक आदि गतियों में जीकर दुख पाती रहती है। जिन्होंने भी मोक्ष के महत्व को समझा, वह सही मार्ग पर है।
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जीवन जीने की कला : जिंदगी जीना एक महत्वपूर्ण विद्या है। अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में यदि कीमती गाड़ी दे दी जाए तो उसकी दुर्गति ही होगी। दरअसल, यह शतरंज और सांप-सीढ़ी के खेल की तरह भी है। इस खेल में आपके ज्ञान, बुद्धि, विश्वास के अलावा आपकी इच्छा का योगदान होता है। सही ज्ञान और पूर्ण विश्वास के साथ सकारात्मक इच्छा नहीं है तो आप हारते जाएंगे।
यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन को एक संघर्ष मानते हैं जबकि हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन एक उत्सव है। संघर्ष तो स्वत: ही सामने आते रहते हैं या तुम अपने जीवन को संघर्षपूर्ण बना लेते हो। लेकिन जीवन को उत्सवपूर्ण बनाना ही जीवन जीने की कला का हिस्सा है। गीत, भजन, नृत्य, संगीत और कला का धर्म में उल्लेख इसीलिए मिलता है कि जीवन एक उत्सव है जबकि कुछ धर्मों में नृत्य, संगीत और कला पर रोक है। ऐसा माना जाता है कि इससे समाज बिगाड़ का शिकार हो जाता है। इस डर से लोगों से उनका वह आनंद छीन लो, जो उनको परमात्मा ने या इस प्रकृति ने दिया है।
हिन्दू धर्म मानता है कि जीवन ही है प्रभु। जीवन की खोज करो। जीवन को सुंदर से सुंदर बनाओ। इसमें सत्यता, शुभता, सुंदरता, खुशियां, प्रेम, उत्सव, सकारात्मकता और ऐश्वर्यता को भर दो। लेकिन इन सभी के लिए जरूरी नियमों की भी जरूरत होती है अन्यथा यही सब अनैतिकता में बदल जाते हैं।
जीवन के 4 पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चारों पुरुषार्थों की चारों आश्रमों में जरूरत होती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए ही चारों पुरुषार्थों का जो ज्ञान प्राप्त कर लेता है वही सही मार्ग पर आ जाता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए। मोक्ष को धर्म से साधा जा सकता है। धर्म के ज्ञान के बगैर सांसारिक जीवन अव्यवस्थित और अराजक होता है। अराजक जीवन ही संघर्ष को जन्म देता है। दूसरी ओर अर्थ बिना सब व्यर्थ है। हर तरह की सांसारिक कामना अर्थ से ही पूर्ण होती है।
मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो। मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान, शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा।
अनुशासन और कर्तव्य पालन जरूरी : इसके अलावा हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है। जैसे 1. संध्यावंदन (वैदिक प्रार्थना और ध्यान), 2. तीर्थ (चारधाम), 3. दान (अन्न, वस्त्र और धन), 4. व्रत (श्रावण मास, एकादशी, प्रदोष), 5. पर्व (शिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और कुंभ), 6. संस्कार (16 संस्कार), 7. पंच यज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ-श्राद्धकर्म, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ), 8. देश-धर्म सेवा, 9. वेद-गीता पाठ और 10. ईश्वर प्राणिधान (एक ईश्वर के प्रति समर्पण)।
उपरोक्त सभी कार्यों से जीवन में एक अनुशासन और समरसता का विकास होता है। इससे जीवन सफल, सेहतमंद, शांतिमय और समृद्धिपूर्ण बनता है अत: हिन्दू धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है।
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स्वतंत्रता : संसार में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म हैं। एक कर्म-प्रधान दूसरे विश्वास-प्रधान। हिन्दू धर्म कर्म-प्रधान है, अहिन्दू धर्म विश्वास-प्रधान। जैन, बौद्ध, सिख ये तीनों हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। इस्लाम, ईसाई, यहूदी ये तीनों अहिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। हिन्दू धर्म लोगों को निज विश्वासानुसार ईश्वर या देवी-देवताओं को मानने व पूजने की और यदि विश्वास न हो तो न मानने व न पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अहिन्दू धर्म में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। अहिन्दू धर्म अपने अनुयायियों को किसी विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर विश्वास करने के लिए बाध्य या विवश करता है। विद्वान व दूरदर्शी लोग भली-भांति जानते हैं कि सांसारिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र विचारों की कितनी बड़ी आवश्यकता रहती है।
हिन्दू धर्म व्यक्ति स्वतंत्रता को महत्व देता है, जबकि दूसरे धर्मों में सामाजिक बंधन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू हैं। आप ईशनिंदा नहीं कर सकते और आप समाज के नियमों का उल्लंघन करके अपने तरीके से जीवन-यापन भी नहीं कर सकते। मनुष्यों को सामाजिक बंधन में किसी नियम के द्वारा बांधना अनैतिकता और अव्यावहारिकता है। ऐसा जीवन घुटन से भरा तो होता ही है और समाज में प्रतिभा का भी नाश हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की अनुपम कृति है और उसे स्वतंत्रता का अधिकार है। वह इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह मंदिर जाए, प्रार्थना करे या समाज के किसी नियम को माने। यही कारण रहा कि हिन्दुओं में हजारों वैज्ञानिक, समाज सुधारक और दार्शनिक हुए जिन्होंने धर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और जिन्होंने धर्म में बाहर से आ गई बुराइयों की समय-समय पर आलोचना भी की।
किसी को भी धार्मिक या सामाजिक बंधन में रखना उसकी चेतना के विस्तार को रोकना ही माना जाता है। वेद, उपनिषद और गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में भगवान (ईश्वर नहीं) होने की संभावना है। भगवान बन जाना प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है।
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सह-अस्तित्व और स्वीकार्यता : सहिष्णुता, उदारता, मानवता और लचीलेपन की भावना से ही सह-अस्तित्व और सभी को स्वीकारने की भावना का विकास होता है। सह-अस्तित्व का अर्थ है सभी के साथ समभाव और प्रेम से रहना चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और देश से संबंध रखता हो।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं कि हिन्दुओं ने दुनिया के कई देशों से समय-समय पर सताए और भगाए गए शरणार्थियों के समूह को अपने यहां शरण दी। समंदर के किनारे होने के कारण मुंबई और कोलकाता में जितने विदेशी समुदाय आकर रहे, उतने शायद पूरे भारत में कहीं नहीं आए होंगे। दूसरी ओर अखंड भारत का एक छोर अफगानिस्तान (गांधार) भी कई विदेशियों की युद्ध और शरणस्थली था।
हिन्दुओं ने अपने देश में यूनानी, यहूदी, अरबी, तुर्क, ईरानी, कुर्द, पुर्तगाली, अंग्रेज आदि सभी को स्वीकार्य किया और उनको रहने के लिए जगह दी। जहां तक शक, हूण और कुषाणों का सवाल है तो यह हिन्दुओं की ही एक जाति थी। हालांकि इस पर अभी विवाद है।
ऐसा देखा गया है कि हिन्दुओं में ही सह-अस्तित्व की भावना खुले रूप में आज भी विद्यमान है। किसी भी स्थान या देश का व्यक्ति हिन्दुओं के बीच रहकर खुद को निर्भीक महसूस कर सकता है लेकिन इसके विपरीत ऐसा कभी संभव नहीं होता पाया गया।
हिन्दू जिस भी देश में गए वहां की संस्कृति और धर्म में घुल-मिल गए। हिन्दुओं ने सभी के धर्म और संस्कृति को सम्मानपूर्वक भारत में दर्जा दिया। प्राचीनकाल में जो हिन्दू भारत से बाहर चले गए थे उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को किसी न किसी रूप में बचाए रखा। डोम, लोहार, गुज्जर, बंजारा और टांडा जाति से संबंध रखने वाले आज यजीदी, रोमा, सिंती, जिप्सी इसका उदाहरण हैं।
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उदारता और सहिष्णुता : सहिष्णुता का अर्थ है सहन करना और उदारता का अर्थ है खुले दिमाग और विशाल हृदय वाला। जो स्वभाव से नम्र और सुशील हो और पक्षपात या संकीर्णता का विचार छोड़कर सबके साथ खुले दिल से आत्मीयता का व्यवहार करता हो, उसे 'उदार' कहा जाता है। दूसरों के विचारों, तर्कों, भावनाओं और दुखों को समझना ही उदारता है। अनुदारता पशुवत होती है।
अपनी रुचि, मान्यता, इच्छा, विचार, धर्म को दूसरों पर लादना, अपने ही गज से सबको नापना, अपने ही स्वार्थ को साधते रहना ही अनुदारता है। दुनिया के दूसरे धर्मों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
सहिष्णुता और उदारता हिन्दू धर्म के खून में है तभी तो पिछले सैकड़ों वर्षों से उनका खून बहाया जाता रहा है। तभी तो हिन्दुओं का धर्मांतरण किया जाता रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और सहिष्णुता का कारण यह है कि इस धर्म में परहित को पुण्य माना गया है। न्याय और मानवता (इंसाफ और इंसानियत) को धर्म से भी ऊंचा माना गया है। न्याय और मानवता की रक्षा के लिए सबकुछ दांव पर लगा देने के लिए हिन्दुओं को प्रेरित किया जाता रहा है।
यही कारण है कि इस धर्म में प्राचीनकाल से ही कभी कट्टरता नहीं रही और इस उदारता, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता की भावना के चलते ही हिन्दुओं ने कभी भी किसी दूसरे धर्म या देश पर किसी भी प्रकार का कोई आक्रमण नहीं किया। इसका परिणाम यह रहा कि आक्रांताओं ने समय-समय पर गुलाम बनाकर हिन्दुओं को धर्म, जाति और पंथों में बांट दिया, उनका कत्लेआम किया गया और उन्हें उनकी ही भूमि से बेदखल कर दिया गया।
अगले पन्ने पर सातवां कारण...
भिन्नता में एकता : दुनिया में ऐसे कई देश थे, जो बहुभाषी और बहुधर्मी थे वे गृहयुद्ध की आग में जलकर भस्म हो गए। आज भी ऐसे कई देश हैं, जहां समय-समय पर गृहयुद्ध, लड़ाइयां और आतंक का खेल चलता रहता है, जो आज भी जारी है। लेकिन भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां उसकी भिन्नता ही उसकी एकता का कारण बनी हुई है। हालांकि इस एकता को समय-समय पर कुछ लोगों के समूहों द्वारा खंडित किए जाने का प्रयास किया गया लेकिन वे कभी सफल नहीं हो सके।
भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीति-रिवाज हो चले हैं, लेकिन गहराई से देखने पर इन सभी त्योहार, उत्सव, पर्व या परंपरा में समानता है अर्थात एक ही पर्व को मनाने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं। भारत की कई भाषाओं को बोलने के कई अंदाज होते हैं लेकिन सभी का मूल संस्कृत और तमिल ही है। उसी तरह भारत के सभी समाज एवं जातियों का मूल भी एक ही है। उनके वंशज भी एक ही हैं।
भिन्नता में एकता का कारण हिन्दू धर्म की सहिष्णुता और उदारता के कारण ही है। भारत अनेक संस्कृतियों और भाषाओं वाला देश है, लेकिन भावनात्मकता की दृष्टि से सभी धर्म और जाति के लोग एक हैं। होली, दीपावली, ओणम के अलावा भारत में ऐसे कई त्योहार हैं, जो भिन्नता में एकता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा ऐसे भी कई पर्व हैं, जो हिन्दू और मुसलमान मिलकर मनाते हैं, बौद्ध और हिन्दू मिलकर मनाते हैं, जैन और हिन्दू मिलकर मनाते हैं और ईसाई एवं हिन्दू मिलकर मनाते हैं। सभी के पूर्वज एक ही हैं। किसी को भी अपने पूर्वजों को नहीं भुलना चाहिए।
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वैज्ञानिकता : बहुत से लोग अपने धर्म को महान घोषित करने के लिए हिन्दू धर्म पर रूढ़िवादिता और अवैज्ञानिकता का आरोप लगाते रहे हैं, लेकिन सत्य तो सत्य ही होता है जो दूर से भी नजर आ जाता है।
हिन्दू धर्म ने कभी भी धरती को चपटा और उसके आसपास सूर्य के चक्कर लगाने को नहीं माना। उसने यह कभी नहीं कहा कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने 6 दिन में करके 7वें दिन आराम किया। हिन्दू धर्म में ब्रह्मांड की रचना और उत्पत्ति का वर्णन पूर्णत: विज्ञानसम्मत है।
ईश्वर के नहीं, ईश्वर के होने से ही यह सबकुछ स्वत: ही संभव है। होना महत्वपूर्ण है, करना नहीं। हिन्दू धर्म न तो द्वैतवाद को पूर्ण मानता है और न ही एकवाद को। ब्रह्म और अद्वैत ही सभी का कारण है। यह बहुत सतही सोच है कि ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया। यह प्राथमिक सोच है। हिन्दू धर्मानुसार यह ब्रह्मांड और हमारा शरीर पंचकोष और 14 भुवन या लोक वाला है। सिर्फ लोक लोकांतर की बात ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र और प्रकृति को समझकर ही जो संस्कार और कर्तव्य बताएं गए हैं वह मनोविज्ञान और विज्ञान पर ही आधारित हैं।
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विस्तारवाद का विरोधी : हिन्दू धर्म विस्तारवादी सोच का विरोधी है। इतिहास गवाह है कि हिन्दुओं ने कभी किसी राष्ट्र पर आगे रहकर आक्रमण नहीं किया और न ही किसी राज्य या राष्ट्र को अपने अधीन किया जबकि इसके विपरीत यहां पर आक्रमणकारी आए और उन्होंने रक्त की नदियां बहाकर इस देश की संस्कृति को खंडित कर दिया। भारत की कभी भी अपने राज्य विस्तार की इच्छा नहीं रही तथा सभी धर्मों को अपने यहां फलते-फूलने की जगह दी।
मजहबी विस्तारवाद उतना ही खतरनाक है जितना कि पूंजी या साम्यवाद। जब तक क्षेत्रीय विस्तारवाद या धार्मिक विस्तारवाद चलेगा तब तक दुनिया में शांति कभी स्थापित नहीं हो सकती। धर्मों की या पूंजीवाद एवं साम्यवाद की लड़ाई एक दिन दुनिया को फिर से आदिमानव की सभ्यता के काल में पहुंचा देगी। दूसरों को नष्ट करने का विचार ही खुद को नष्ट करने की नींव भी डाल देता है। यह बुनियादी सिद्धांत है। धरती पर से वे सारे हिंसक पशु मिट गए या मिटते जा रहे हैं जिन्होंने हिंसा की हद को पार किया।
हिन्दू धर्म यदि विस्तारवादी धर्म होता तो उस धर्म में संत, तपस्वी या ऋषि नहीं होते। धर्म प्रचारक होते, धार्मिक योद्धा होते, मजहबी कट्टरता और नफरत से भरे लोग होते। ऐसी स्थिति में भारत में किसी दूसरे धर्म को विस्तार का मौका ही नहीं मिलता, लेकिन तब हिन्दू धर्म मरुस्थली धर्म होता।
भारत का कोई संत भारत से बाहर धर्म प्रचार करने नहीं गया। उसने कभी किसी को किसी भी उपाय से हिन्दू नहीं बनाया। हिन्दू धर्म के बाद जितने भी धर्मों का जन्म हुआ उनमें धर्मांतरण का विचार प्राथमिकता से रहा।
उदार, सहिष्णु और सर्वपंथ समादर भाव पर आस्था रखने वाला हिन्दू समाज विस्तारवादी विचारधाराओं के साथ सह-अस्तित्व की भावनाओं के साथ कब तक रह पाएगा? यह देखना होगा। मजहबी कट्टरता के चलते कालांतर में पश्चिमी धर्म द्वारा धर्म प्रचार, लालच, फसाद और आतंक के माध्यम से धर्म का विस्तार किया जाता रहा है। इसका परिणाम सबसे ज्यादा हिन्दू, जैन और यहूदियों को भुगतना पड़ा।
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प्रकृति से निकटता : अक्सर हिन्दू धर्म की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह प्रकृति पूजकों का धर्म है। ईश्वर को छोड़कर ग्रह और नक्षत्रों की पूजा करता है। यह तो जाहिलानापन है। दरअसल, हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर है अर्थात प्रत्येक कण में ईश्वर है। इसका यह मतलब नहीं कि प्रत्येक कण को पूजा जाए। इसका यह मतलब है कि प्रत्येक कण में जीवन है। वृक्ष भी सांस लेते हैं और लताएं भी।
दरअसल, जो दिखाई दे रहा है पहला सत्य तो वही है। प्रत्येक व्यक्ति करोड़ों मिल दूर दिखाई दे रहे उस टिमटिमाते तारे से जुड़ा हुआ है इसलिए क्योंकि उसे दिखाई दे रहा है। दिखाई देने का अर्थ है कि उसका प्रकाश आपकी आंखों तक पहुंच रहा है। हमारे वैदिक ऋषियों ने कुदरत के रहस्य को अच्छे से समझा है। वे कहते हैं कि प्रकृति ईश्वर की अनुपम कृति है। प्रकृति से मांगो तो निश्चित ही मिलेगा।
दुनिया के तीन बड़े धर्म मरुस्थल में जन्मे हैं जबकि हिन्दू धर्म हिमालय से निकलने वाली नदियों के किनारे हरे-भरे जंगलों में पनपा है। स्वाभाविक रूप से ही धर्मों पर वहां की भौगोलिक स्थिति का असर होगा ही। धर्म, संस्कृति, पहनावे और रीति-रिवाज पर स्थान विशेष का भौगोलिक असर जरूर पड़ता है, लेकिन वैदिक ऋषियों की सोच इससे आगे की थी।
जिन्होंने वेद, उपनिषद और गीता का अच्छे से अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि प्रकृति क्या है। हालांकि हिन्दू धर्म में प्रकृति और समाधि पूजा का निषेध है। कोई गृहिणी चांद को देखकर अपना व्रत तोड़ती है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह चांद की पूजा करती है। लेकिन सूर्य और चन्द्र के आपके जीवन पर हो रहे असर को भी नकारा नहीं जा सकता इसीलिए प्रकृति से प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं। कोई भी व्यक्ति प्रकृति से अलग या विरुद्ध रहकर अपना जीवन-यापन नहीं कर सकता। प्रकृति एक शक्ति है जिसके प्रति प्रेमपूर्ण भावना से भरकर हम एक श्रेष्ठ जीवन को विकसित कर सकते हैं। यही पर्यावरण की सोच को विकसित करने का एकमात्र तरीका भी है।
वेदों में प्रकृति के हर तत्व के रहस्य और उसके प्रभाव को उजागर किया गया है इसीलिए वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है। इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है। धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि 'ब्रह्म' अर्थात ईश्वर को छोड़कर हम तारे-सितारों की पूजा करने लगें।
आम हिन्दू आमतौर पर एकेश्वरवादी नहीं होते, जबकि हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी धर्म है जिसे ब्रह्मवाद कहते हैं। अधिकतर हिन्दू ईश्वर, परमेश्वर या ब्रह्म को छोड़कर तरह-तरह की प्राकृतिक एवं सांसारिक वस्तुएं, ग्रह-नक्षत्र, देवी-देवता, नाग, नदी, झाड़, पितर और गुरुओं की पूजा करते रहते हैं इसका कारण है स्थानीय संस्कृति और पुराणों का प्रभाव।
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उत्सवप्रियता : हिन्दू धर्म उत्सवों को महत्व देता है। जीवन में उत्साह और उत्सव होना जरूरी है। ईश्वर ने मनुष्य को ही खुलकर हंसने, उत्सव मनाने, मनोरंजन करने और खेलने की योग्यता दी है। यही कारण है कि सभी हिन्दू त्योहारों और संस्कारों में संयमित और संस्कारबद्ध रहकर नृत्य, संगीत और पकवानों का अच्छे से सामंजस्य बैठाते हुए समावेश किया गया है। उत्सव से जीवन में सकारात्मकता, मिलनसारिता और अनुभवों का विस्तार होता है।
हिन्दू धर्म में होली जहां रंगों का त्योहार है वहीं दीपावली प्रकाश का त्योहार है। नवरात्रि में जहां नृत्य और व्रत को महत्व दिया जाता है, वहीं गणेश उत्सव और श्राद्ध पक्ष में अच्छे-अच्छे पकवान खाने को मिलते हैं।
इसके अलावा हिन्दू प्रकृति में परिवर्तन का भी उत्सव मनाते हैं, जैसे मकर संक्रांति पर सूर्य उत्तरायन होता है तो उत्सव का समय शुरू होता है और सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो व्रतों का समय शुरू होता है। इसके अलावा 1. शीत-शरद, 2. बसंत, 3. हेमंत, 4. ग्रीष्म, 5. वर्षा और 6. शिशिर इन सभी का उत्सव मनाया जाता है।
वसंत से नववर्ष की शुरुआत होती है। वसंत ऋतु चैत्र और वैशाख माह अर्थात मार्च-अप्रैल में, ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ और आषाढ़ माह अर्थात मई-जून में, वर्षा ऋतु श्रावण और भाद्रपद अर्थात जुलाई से सितंबर, शरद ऋतु आश्विन और कार्तिक माह अर्थात अक्टूबर से नवंबर, हेमंत ऋतु मार्गशीर्ष और पौष माह अर्थात दिसंबर से 15 जनवरी तक और शिशिर ऋतु माघ और फाल्गुन माह अर्थात 16 जनवरी से फरवरी अंत तक रहती है।
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ईश्वर सर्वव्यापक और अकेला है : हिन्दू धर्म के अनुसार ईश्वर अकेला होते हुए भी सर्वव्यापक है। सभी को ईश्वरमय और ईश्वरीय समझना ही सत्य, धर्म, न्याय और मानवता की सोच को बढ़ावा देता है। हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर का वास है इसीलिए जीव हत्या को 'ब्रह्महत्या' माना गया है।
जो व्यक्ति किसी भी जीव की किसी भी प्रकार से हत्या करता है उसके साथ भी वैसा ही किसी न किसी जन्म विशेष में होता है। यह एक चक्र है। हिंसा से हिंसा का ही जन्म होता है, जैसे बबूल के बीज से बबूल का बीज ही पैदा होता है।
इसीलिए वेदों की उद्घोषणा है- प्रज्ञानाम ब्रह्म, अहम् ब्रह्मास्मि, तत्वमसि, अयम आत्म ब्रह्म, सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति अर्थात- ब्रह्म परम चेतना है, मैं ही ब्रह्म हूं, तुम ब्रह्म हो, यह आत्मा ब्रह्म है और यह संपूर्ण दृश्यमान जगत् ब्रह्मरूप है, क्योंकि यह जगत् ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है।
उपरोक्त भावना ही अहिंसा का आधार है। अहिंसा ही परमोधर्म है। इसी अहिंसा की भावना को विकसित करने के लिए ही कहा गया है:- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानो।
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वसुधैव कुटुम्बकम् : 'संपूर्ण विश्व को एक परिवार' मानने की विशाल भावना भारतीयता में समाविष्ट है। इस वसुंधरा के पुत्र सभी एक ही कुटुम्ब के हैं, भले ही कोई किसी भी धर्म, प्रांत, समाज, जाति या देश का हो वे सभी एक ही कुल और कुटुम्ब के हैं। ऐसी भावना रखने से ही मनुष्य, मनुष्य से प्रेम करेगा।
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।।
अर्थात : यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। इसी धारणा में विश्व कल्याण की अवधारणा भी समाहित है।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दु:ख भाग्भवेत।।
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परोपकार की भावना : 'परोपकार' शब्द पर+उपकार इन 2 शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करना। अपनी शरण में आए सभी मित्र-शत्रु, कीट-पतंगे, देशी-परदेशी, बालक-वृद्ध आदि सभी के दु:खों का निवारण करना ही परोपकार कहलाता है। ईश्वर ने सभी प्राणियों में सबसे योग्य जीव मनुष्य को बनाया है। यदि किसी मनुष्य में यह गुण नहीं है तो उसमें और पशु में कोई फर्क नहीं है।
पुराणों में परोपकार के अनेक उदाहरण हैं। राजा रंतिदेव को 40 दिन तक भूखे रहने के बाद जब भोजन मिला तो वह भोजन उन्होंने शरण में आए भूखे अतिथि को दे दिया। दधीचि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियां दे दीं, शिव ने विष का पान कर लिया, कर्ण ने कवच और कुंडल दान दे दिए, राजा शिवि ने शरण में आए कबूतर के लिए अपना मांस दे डाला आदि-आदि। ऐसे कई उदाहरण हमें सीख देते हैं।
परोपकार के अनेक रूप हैं जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरों की सहायता करके आत्मिक सुख प्राप्त कर ईश्वर का प्रिय बन सकता है, जैसे प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल को अस्पताल पहुंचाना, वृद्धों की सेवा करना, अंधों को सड़क पार कराना, भूखे को भोजन देना, वस्त्रहीन को वस्त्र देना, गौशाला बनवाना, प्याऊ लगवाना, वृक्ष लगाना आदि।
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पुनर्जन्म और कर्मों का सिद्धांत : यहूदी और उनसे निकले धर्म पुनर्जन्म की धारणा को नहीं मानते। मरने के बाद सभी कयामत के दिन जगाए जाएंगे अर्थात तब उनके अच्छे और बुरे कर्मों पर न्याय होगा। इब्राहीमी धर्मों की मान्यता है कि मरणोपरांत आत्मा कब्र में विश्राम करती है और आखिरी दिन ईश्वर के हुक्म से उठाई जाएगी और फिर उनका फैसला होगा, लेकिन हिन्दू धर्म के अनुसार ऐसा नहीं है।
हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। इसका अर्थ है कि आत्मा जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की शिक्षात्मक प्रक्रिया से गुजरती हुई अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। जन्म और मत्यु का यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक कि आत्मा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती।
मोक्ष प्राप्ति का रास्ता कठिन है। यह मौत से पहले मरकर देखने की प्रक्रिया है। वेद और उपनिषद कहते हैं कि शरीर छोड़ने के बाद भी तुम्हारे वे सारे कर्मों के क्रम जारी रहेंगे, जो तुम यहां रहते हुए करते रहे हों और जब अगला शरीर मिलेगा तो यदि तुमने दु:ख, चिंता, क्रोध और उत्तेजना को संचित किया है तो अगले जन्म में भी तुम्हें वही मिलेगा, क्योंकि यह आदत तुम्हारा स्वभाव बन गई है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 22वें श्लोक में कहा गया है- 'जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करता है।' चौथे अध्याय के 5वें श्लोक में कहा गया है- 'हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म बीत गए हैं। बस फर्क यह है कि मैं उन सबको जानता हूं, परंतु हे परंतप! तू उसे नहीं जानता।'
जन्म चक्र : पुराणों के अनुसार व्यक्ति की आत्मा प्रारंभ में अधोगति होकर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी योनियों में विचरण कर ऊपर उठती जाती है और अंत में वह मनुष्य वर्ग में प्रवेश करती है। मनुष्य अपने प्रयासों से देव या दैत्य वर्ग में स्थान प्राप्त कर सकता है। वहां से पतन होने के बाद वह फिर से मनुष्य वर्ग में गिर जाता है। यह क्रम चलता रहता है।
प्रारब्ध : यही कारण है कि व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार जीवन मिलता है और वह अपने कर्मों का फल भोगता रहता है। यही कर्मफल का सिद्धांत है। 'प्रारब्ध' का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो। विशेषतया इसके 2 मुख्य भेद हैं कि संचित प्रारब्ध, जो पूर्व जन्मों के कर्मों के फलस्वरूप होता है और क्रियमान प्रारब्ध, जो इस जन्म में किए हुए कर्मों के फलस्वरूप होता है। इसके अलावा अनिच्छा प्रारब्ध, परेच्छा प्रारब्ध और स्वेच्छा प्रारब्ध नाम के 3 गौण भेद भी हैं। प्रारब्ध कर्मों के परिणाम को ही कुछ लोग भाग्य और किस्मत का नाम दे देते हैं। पूर्व जन्म और कर्मों के सिद्धांत को समझना जरूरी है।
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हिन्दू धर्म से निकले हैं सभी धर्म : इसके 1,000 उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यदि हम हिन्दू परंपरा, इतिहास और सिद्धांतों का गहराई से अध्ययन करें तो ये भाषा के कारण सभी धर्मों में थोड़े-बहुत भिन्न रूप में मिल ही जाएंगे। तनख (तालमुद या तोरा) और जेंद अवेस्ता के सिद्धांत वेदों से ही प्रेरित हैं।
एकेश्वरवाद, प्रकृति का सम्मान, प्रायश्चित करना, दीक्षा देना, मुंडन संस्कार, पूजा-प्रार्थना का स्थल निर्माण करना, परिक्रमा करना, प्रार्थना के दौरान बिना सिले सफेद वस्त्र पहनना, संध्यावंदन, शौच और शुद्धि, जप-माला फेरना, व्रत रखना, दान-पुण्य करना, पाठ करना, तीर्थ करना, श्राद्ध पक्ष, सेवाभाव, पुनर्जन्म, मोक्ष, 16 संस्कार, पुरुषार्थ, कर्मप्रधानता, प्रारब्ध, संत सम्मान, घंटी बजाकर प्रार्थना के लिए बुलाना, धूप, दीप या गुग्गल जलाना, कुलदेवता की पूजा, वंश परंपरा मानना, त्रिदेव एवं त्रिदेवी का सिद्धांत आदि ऐसे सैकड़ों कार्य हैं, जो हिन्दू करता है और हिन्दुओं से यह सीखकर ही दूसरे धर्मों के लोगों ने खुद के धर्म में ये पवित्र कार्य शामिल कर एक नए धर्म का आधार खड़ा किया।