खगोल, अंकविद्या और ज्योतिष का जन्म भारत में हुआ। हिन्दू धर्म के अनुसार उस परम सत्य को जानने या खुद के अस्तित्व को तलाशने के लिए योग, आयुर्वेद, धर्म, दर्शन और ज्योतिष का सहारा लेना चाहिए। सभी विषय अलग-अलग हैं और सभी में कालांतर में कुछ ऐसा भी जोड़ दिया गया या जुड़ गया है, जो कि वेद या धर्म विरुद्ध हैं। यह भी कह सकते हैं कि वह अतार्किक और तथ्यहीन है। यह लंबे काल की परंपरा का ही परिणाम है। आज जब यह सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म का ज्योतिष विद्या से कोई संबंध है तो यह इसलिए उठता है, क्योंकि वर्तमान में ज्योतिष एक ऐसे रूप में प्रचलित है जिससे कि हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा धूमिल ही होती है।
यह समझना कठिन है कि कोई ग्रह कैसे एक देवता हो सकता है और हम उस ग्रह के बुरे प्रभाव को सुधारने के लिए उस देवता की पूजा करें? ऐसी मान्यता अब प्रचलित हो चली है कि जो भी ज्योतिष को मानता है वह कभी भी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता और जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह कभी भी, कहीं भी और किसी भी हालात में झुकता नहीं है। वह अपने जीवन के अच्छे और बुरे के प्रति वह खुद जिम्मेदार होता। यही वेदनिष्ठ होने की पहचान भी है।
हम 'ज्योतिष' शब्द के अर्थ पर नहीं जाकर समाज में प्रचलित उसके अर्थ को समझें। प्रारंभिक मानव प्रकृति की शक्तियों से डरता था या उन्हें देखकर उसके मन में जिज्ञासा और आदर का भाव होता था, जैसे सूर्य, चन्द्र, बादल, समुद्र और बारिश को देखकर वह उनकी भयानक शक्ति को पहचान गया था। प्रारंभ में उन्हीं को ईश्वर या देव समझना उसकी सहज प्रवृत्ति ही मानी जाएगी।
ज्योतिष के इतिहास को जानने वाले मानते हैं कि धर्म की उत्पत्ति के पूर्व ज्योतिष था। ज्योतिष ही प्राचीनकाल का धर्म हुआ करता था। मानव ने ग्रहों और नक्षत्रों की शक्तियों को पहचाना और उनकी प्रार्थना एवं पूजा करना शुरू किया। बाद में धीरे-धीरे प्राचीन मानव ने ग्रहों आदि के धरती पर प्रभाव और उसके परिणाम को भी समझना शुरू किया और अपने जीवन को उनके अनुसार प्राकृतिक स्वरूप में ढालने के लिए कुछ नियम बनाना शुरू किए, जैसे प्रारंभ में किस मौसम में कौन सा भोजन खाना, किस ओर नहीं जाना, कब एक स्थान से दूसरे स्थान पर निष्क्रमण करना, कब समुद्र के किनारे जाना आदि।
समझ और बढ़ी तो कैलेंडर विकसित किया गया। दिए हुए दिन, समय और स्थान के अनुसार ग्रहों की स्थिति की जानकारी और आकाशीय तथा पृथ्वी की घटनाओं के बीच संबंध को उसमें दर्शाया जाने लगा और फिर उसमें से कुछ महत्वपूर्ण दिनों की पहचान करके उस दिनों में उत्सव और व्रतों को किए जाने के प्रावधान रखा गया।
जैसे-जैसे समझ बढ़ी तो फिर नक्षत्रों के शुभाशुभ फलानुसार कार्यों का विवेचन ऋतु, अयन, दिनमान, लग्न, मुहूर्त आदि के शुभाशुभ अनुसार विधायक कार्यों को करने का ज्ञान प्राप्त करना शास्त्र की भाषा में परिणित हो गया। समझ के और बढ़ने के साथ यह भी समझा गया कि ग्रहों और नक्षत्रों के अलावा भी कोई अदृश्य शक्ति है, जो हमारे जीवन को प्रभावित करती है, जैसे भूत-प्रेत, देवी-देवता आदि। अंत में यह भी समझा गया कि कोई एक सर्वोच्च शक्ति है, जो इस ब्रह्मांड को चलायमान रख रही है। तब ब्रह्म और ईश्वर के बारे में ज्ञान प्राप्त किए जाने की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई और फिर सभी तरह का तत्वज्ञान और दर्शन निकलकर सामने आया। यह सत्य जाना गया लगभग 15,000 वर्ष पूर्व।
इस तरह धीरे-धीरे ज्योतिष को छोड़कर धर्म के मूल्य स्थापित होने लगे और ज्योतिष को ग्रह-नक्षत्रों की चाल, सूर्य और चन्द्र के प्रभाव, दिन, पक्ष, मुहूर्त, लग्न, अयन, शुभ और अशुभ दिन आदि का साधन माना जाने लगा। अब धार्मिक कार्यों को पूर्ण करने के लिए ज्योतिष की सहायता ली जाने लगी अर्थात सूर्य, चन्द्र, बारिश आदि का डर खत्म होकर उनकी चालों के अनुसार ही जीवन, खेत, व्यापार, काम और धर्म चलने लगा।
निश्चित ही ज्योतिष कोई धर्म नहीं है लेकिन सभी तरह के धार्मिक कार्य ज्योतिष के माध्यम से ही पूर्ण होते हैं, क्योंकि ज्योतिष ही तय करता है कि कब पूर्णिमा होगी और कब सूर्य ग्रह मकर राशि में भ्रमण करेगा तो उस वक्त कौन सा उत्सव मनाया जाएगा। यज्ञ करने का समय कौन सा उचित है और व्रत रखने का माह कौन सा सही है, यह ज्योतिष ही बता सकता है। ज्योतिष यह भी बता सकता है कि गर्भधारण करने का कौन सा समय उचित है और किस काल में मौत होने से क्या परिणाम होंगे? ऐसे में ज्योतिष को 'वेदों का नेत्र' कहा गया।
ज्योतिष के बगैर किसी भी प्रकार के मांगलिक व शुभ कार्य पूर्ण नहीं होते। ज्योतिष के अनुसार ही भोजन ग्रहण करने और व्रत रखने से व्यक्ति जीवनपर्यंत स्वस्थ बना रह सकता है। ऐसे में हिन्दू धर्म में ज्योतिष का खासा महत्व है, लेकिन कालांतर में ज्योतिष में ऐसा बहुत कुछ जुड़ता गया, जो कि वेद विरुद्ध माना जाने लगा।
यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कोई भी ग्रह या नक्षत्र, सूर्य या चन्द्र को भगवान, देवी या देवता नहीं माना जा सकता लेकिन इनकी शक्ति से भी इंकार नहीं किया जा सकता। वेदों में सूर्य को इस जगत की आत्मा इसलिए कहा गया, क्योंकि उसके होने के कारण ही इस धरती और इसी तरह की अन्य धरतीयों पर जीवन है और वे सभी ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी धुरी पर घूम रहे हैं। सूर्य के नहीं होने का क्या परिणाम होगा, आप यह कल्पना कर सकते हैं।
धर्म और ज्योतिष : ज्योतिष को ग्रह, नक्षत्र, समय, लग्न, मुहूर्त, दिन, रात, तिथि, पक्ष, अयन, वर्ष, युग, अंतरिक्ष समय आदि को जानने की विद्या मानते हैं अर्थात बाहर के जगत को जानने की विद्या ज्योतिष है जबकि धर्म भीतर के जगत को जानने के साधन हैं। इसमें आत्मा-परमात्मा, यम-नियम, ध्यान, संध्यावंदन, भगवान, देवी-देवता, दान-पुण्य, तीर्थ, कर्म, संस्कार आदि की विवेचना की जाती है।