भारत में शैव, नागा या नाथपंथी साधु धूनी रमाते और भस्म धारण करते हैं। आदिदेव शिव के समय से ही परंपरा से भस्म धारण करने का प्रचलन रहा है। भस्म को नागा साधुओं का वस्त्र माना जाता है। भस्म कई प्रकार की होती है। खाने की भस्म को विभूति या भभूत कहा जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ के समय में भभूति का प्रचलन व्यापक स्तर पर प्रारंभ हुआ। शिरडी के साईं बाबा जिस भभूति को लोगों को देते थे उसे उदी भी कहा जाता है। आओ जानेत हैं कि किस तरह इसे रोग नाशक मानते हैं और क्या है इसके प्रकार। हिन्दू धर्म में भभूति या भस्म, विभूति आदि को राख भी कहते हैं।
क्या है भस्म : किसी भी पदार्थ का अंतिम रूप भस्म होता है। किसे भी जलाओ तो वह भस्म रूप में एक जैसा ही होगा। मिट्टी को भी जलाओ तो वह भस्म रूप में होगी। सभी का अंतिम स्वरूप भस्म ही है। भस्म इस बात का संकेत भी है कि सृष्टि नश्वर है। हवन की सामग्री जलकर भस्म बन जाती है, सभी जड़ी बूटियों को जलाकर भस्म बनाई जाती है। किसी भी पतार्थ को कूट-पीसकर भी भस्म बनाई जाती है।
भस्म का प्रयोग : भस्म का प्रयोग साधु लोग शरीर पर लगाने, आम लोग माथे पर तिलक लगाने और खाने के रूप में उपयोग करते हैं। इसमें से भस्म तिलक का अधिकतर प्रयोग दक्षिण भारत में होता है जबकि नागा साधु, नाथपंथी साधु भी भभूति का तिलक लगाते हैं। नागा साधु मस्तक पर आड़ा भभूतलगा तीनधारी तिलक लगा कर धुनी रमाकर रहते हैं। नागा बाबा या तो किसी मुर्दे की राख को शुद्ध करके शरीर पर मलते हैं या उनके द्वारा किए गए हवन की राख को शरीर पर मलते हैं या फिर यह राख धुनी की होती है। कई सन्यासी तथा नागा साधु पूरे शरीर पर भस्म लगाते हैं।
भस्म के प्रकार : श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो तो वह लौकिक भस्म कही जाती है। विरजा हवन की भस्म सर्वोत्कृष्ट मानी है। इसके अलावा हवन कुंड में पीपल, पाखड़, रसाला, बेलपत्र, केला व गऊ के गोबर को भस्म (जलाना) करते हैं। आयुर्वेद में कई तरह की भस्म का उल्लेख किया गया है। जैसे जड़ी-बूटियों या स्वर्ण, रजत, शंख, हीरक, मुक्ताशुक्ति गोदंती, अभ्रक आदि कई तरह की भस्म होती है। उक्त भस्म को खाने से लाभ मिलता है। भस्म की हुई सामग्री की राख को कपड़े से छानकर कच्चे दूध में इसका लड्डू बनाया जाता है। इसे सात बार अग्नि में तपाया और फिर कच्चे दूध से बुझाया जाता है। इस तरह से तैयार भस्मी को समय-समय पर लगाया जाता है। यही भस्मी नागा साधुओं का वस्त्र होता है।
माथे पर लगाई जाने वाली भस्म मूलत: चावल की भूसी से तैयार होती है जिसे दक्षिण भारत के लोग उपयोग करते हैं। दूसरी गोबर और कुछ अन्य मिश्रण से तैयार भस्म को उत्तर भारत के लोग उपयोग में लाते हैं। तीसरी गुग्गल, लकड़ी आदि की भस्म भी होती है। इसके अलावा श्मशान भूमि की भस्म का उपयोग शैवपंथी लोग करते हैं।
भस्म लगाने के फायदे :
1. कहते हैं कि भस्म का स्नान करने के कई चमत्कारिक फायदे हैं। नवनाथ पंथ में कहते हैं कि उलटन्त बिभूत पलटन्त काया। अर्थात यह भभूत काया को शुद्ध तथा तेजस्वी बनाती है।
2. चढ़ी भभूत घट हुआ निर्मल। अर्थात भभूत मन की मलिनता को हटाकर मन को निर्मल तथा पवित्र करती है।
3. नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भस्म लगाते हैं। कहते हैं कि यह भस्म उनके शरीर की कीटाणुओं से तो रक्षा करता ही है तथा सब रोम कूपों को ढंककर ठंड और गर्मी से भी राहत दिलाती है। रोम कूपों के ढंक जाने से शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती इससे शीत का अहसास नहीं होता और गर्मी में शरीर की नमी बाहर नहीं होती। इससे गर्मी से रक्षा होती है।
4. मच्छर, खटमल आदि जीव भी भस्म रमे शरीर से दूर रहते हैं। नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले, निर्वस्त्र रहते हैं।
5. कई बार आपने सुना होगा कि किसी बाबा ने भभूत खिलाकर रोगी को ठीक कर दिया या फलां जगह मंदिर आश्रम आदि की भभूत खाकर लोग चमत्कारिक रूप से ठीक हो गए।
6. दरअसल, आयुर्वेद में कई तरह की भस्म का उल्लेख किया गया है। जैसे जड़ी-बूटियों या स्वर्ण, रजत, शंख, हीरक, मुक्ताशुक्ति गोदंती, अभ्रक आदि कई तरह की भस्म होती है। उक्त भस्म को खाने से लाभ मिलता है, क्योंकि यह विश्वसनीय होती है।
7. यज्ञ या हवन की सामग्री से बनी भभूत को भी कई तरह के रोग का नाशक माना गया है, लेकिन इस तरह की भभूत खाने से पहले यह जानना जरूरी है कि वह विश्वसनीय स्थान की है या नहीं।
8. माथे पर विभूति लगाने से आपके भीतर की नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है और आज्ञाचक्र सक्रिय होता है। इससे मानसिक रूप से शांति मिलती है और विचार शुद्ध होते हैं। गले में लगाने से विशुद्ध चक्र जागृत होता है। छाती के मध्य में लगाने से अनाहत चक्र जागृत होता है। उपरोक्त बिंदुओं पर भभूति लगाने से विवेक जागृत होता है।