Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

इन लोगों ने देखा है देवताओं को...

हमें फॉलो करें इन लोगों ने देखा है देवताओं को...
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'


 
कहते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद सभी देवी और देवता अपने-अपने धाम चले गए। रह गए तो बस हनुमानजी। कलियुग की शुरुआत में देवी और देवताओं की याद में उनके विग्रह रूप की पूजा होने लगी। बाद में इसी विग्रह रूप या प्रतीक रूप की जगह लोगों ने मूर्तियां बनाना शुरू कर दीं। कई जगह भगवान का विग्रह रूप स्वयं ही प्रकट हुआ है ‍जैसे ज्योतिर्लिंग, शालिग्राम आदि।
 
माना जाता है कि सतयुग, त्रेता और द्वापर युग में किसी भी देवी और देवता का आह्वान करने पर वह तुरंत ही प्रकट हो जाता था। यदि किसी व्यक्ति को किसी देवता से कोई अनमोल वस्तु या शक्ति की कामना रहती थी तो उसे कठोर तप के द्वारा ही वह हासिल होती थी, जैसे अर्जुन ने पाशुपतास्त्र हासिल करने के लिए एक गुफा में शिवजी के निमित्त कठोर तप किया था।
 
कलियुग में अब न मंत्र काम करते हैं और न आह्वान, न तप से कोई अस्त्र-शस्त्र हासिल किया जा सकता है और न शक्तियां। कहते हैं कि कलियुग में सत्य वचन, भक्ति और प्रार्थना ही एक उपाय है भगवान से जुड़ने का। हम आपको बताएं ऐसे कुछ संतों के बारे में जिन्होंने इस कलियुग में भी भक्ति के बल पर भगवान के दर्शन किए...
 
अगले पन्ने पर पहले संत...
 
webdunia


 
तुलसीदासजी : तुलसीदासजी के विषय में जो साक्ष्य मिलते हैं उसके अनुसार इनका जन्म 1554 ईस्वी में श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था। जब कोई महान कार्य किया जा रहा हो या रचना लिखी जा रही हो तो उसमें ऊपरी शक्तियों का योगदान होता है। उसके बगैर कार्य की सफलता में संदेह होता है। जब हनुमानजी को रामचरित मानस लिखना थी तो उन्होंने भक्तिभाव से इसके लिए हनुमानजी को याद किया था।
 
तुलसीदासजी प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उनकी भगवान दर्शन की कहानी भी अजीब है। तुलसीदासजी जब चित्रकूट में रहते थे तब जंगल में शौच करने जाते थे और शौच का जल जो शेष रह जाता था उसे एक शमी के वृक्ष के ऊपर डाल देते थे। जिस शमी के वृक्ष के ऊपर जल डालते उसके ऊपर एक प्रेत रहता था।
 
प्रेतों का आहार वैसे तो अशुद्ध और निकृष्ट ही होता है, लेकिन उस जल से उस प्रेत की तृप्ति होने लगी। भूत-प्रेत योनि जन्म ली हुई आत्मा अच्छी और बुरी सभी प्रकार की होती है। इसी प्रकार वह प्रेत भी अच्छा ही था। उस पानी से प्रेत प्रसन्न हो गया। एक दिन उसने प्रकट होकर तुलसीदासजी से कहा, 'मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूं। आप मुझसे कुछ भी मांगो, मैं आपका काम कर दूंगा।'
 
तुलसीदासजी ने कहा, 'वैसे तो मुझे किसी संसारी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यदि करा सकते हो तो मुझे भगवान श्रीराम के दर्शन करवा दो।' 
 
प्रेत ने हंसते हुए कहा, 'महाराज! यदि मुझ में इतनी ही सामर्थ्य और सचाई होती तो इस अधर्म योनि में नहीं भटकता। फिर भी प्रभु दर्शन के लिए मैं एक उपाय आपको बता सकता हूं।'
 
प्रेत ने कहा, 'मुझे यह मालूम है कि जहां-जहां रामकथा होती है वहां किसी न किसी रूप में हनुमानजी उस कथा को अवश्य श्रवण करने आते हैं। मैं एक ऐसा स्थान जानता हूं, जहां नित्य कथा होती है और वहां हनुमानजी कुष्टी के रूप में आते हैं। आप उनके चरण पकड़ लें और उनसे विनती करें। वे बहुत मना करेंगे किंतु आप छोड़ें नहीं। वे आपको भगवान के दर्शन करवा सकते हैं।'
 
यह सुनकर तुलसीदासजी बहुत ही प्रसन्न हो गए। वे उस कथा में गए और उन्होंने सबसे दूर एक कुष्ठी को बैठा देखा। वह कुष्ठी तन्मयता से रामकथा सुन रहा था और उसकी आंखों से आंसू प्रवाहित हो रहे थे। तुलसीदासजी उसे देखते रहे। ज्यों ही कथा समाप्त हुई उन्होंने जाकर उस कुष्ठी के पैर पकड़ लिए और बोले मैंने आपको पहचान लिया है और आप मुझे राम के दर्शन कराएं।'
 
उस कुष्ठी ने बहुत कहा, 'अरे भैया! तुम मुझे क्यों कष्ट देते हो?  मेरे पर क्यों अपराध चढ़ाते हो? मैं तो कुष्टी हूं, मुझे मत छुओ? मेरे पैरों को मत छुओ?'
 
किंतु तुलसीदास ने उसके पैर जोर से पकड़ लिए और रोने लगे। अंत में हारकर कुष्ठी रूप में रामकथा सुन रहे हनुमानजी से भगवान के दर्शन करवाने का वचन दे दिया। फिर एक दिन मंदाकिनी के तट पर तुलसीदासजी चंदन घिस रहे थे। भगवान बालक रूप में आकर उनसे चंदन मांग-मांगकर लगा रहे थे, तब हनुमानजी ने तोता बनकर यह दोहा पढ़ा-
 
चित्रकूट के घाट पै भई संतनि भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।।
 
बोलो सियाराम की जय। तुलसीदासजी दोनों बालकों को देखकर चौंक गए...। तुलसीदासजी ने रामचरित मानस लिखने के पहले हनुमान चालीसा लिखी। इसके बाद हनुमान अष्‍टक, बजरंग बाण, हनुमान बहुक आदि रचना ही उन्होंने ही लिखी। यह सब हनुमानजी की कृपा से ही संभव हो पाया।
 
अगले पन्ने पर दूसरे संत...
 
webdunia


 
रामकृष्ण परमहंस : स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस माता कालिका के परम भक्त थे। कहते हैं‍ कि वे प्रतिदिन कालिका से वार्तालाप करते थे। कालिका माता ने उनको सिद्धियां दे रखी थीं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक सिद्धपुरुष थे। हिन्दू धर्म में परमहंस की पदवी उसे ही दी जाती है, जो सच में ही सभी प्रकार की सिद्धियों से युक्त सिद्ध हो जाता है। 
 
रामकृष्ण अनपढ़ मनुष्य थे। वे न तो अंग्रेजी जानते थे, न वे संस्कृत के ही जानकार थे, न वे सभाओं में भाषण देते थे, न अखबारों में वक्तव्य। उनकी सारी पूंजी उनकी सरलता और उनका सारा धन महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था। जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है, वैसे ही रामकृष्ण भी हर चीज काली से मांगते थे और हर काम उनकी आज्ञा से करते थे।
 
स्वामी रामकृष्ण का पूरा जीवन कठोर साधना और तपस्या में ही बीता। इस दौरान रामकृष्ण ने पंचनामी, बाउल, सहजिया, सिख, ईसाई, इस्लाम आदि सभी मतों के अनुसार साधना की। साधना के दौर में उन्होंने कई दिव्य आत्माओं के दर्शन किए। 
 
अगले पन्ने पर तीसरे संत...
 
 
webdunia


 


महर्षि अरविंद घोष : क्रांतिकारी महर्षि अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता (बंगाल की धरती) में हुआ। बचपन से ही पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े अरविंद के मन में भारतीय धर्म और दर्शन के प्रति संस्कारों का बीज नहीं पड़ा था। उनके पिता केडी घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे।
 
वैसे तो अरविंद ने अपनी शिक्षा खुलना में पूर्ण की थी, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैंड चले गए और कई वर्ष वहां रहने के पश्चात कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। बस यहीं से उनके मन में भारत और भारतीय धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत होने लगा। बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविंद आजादी के आंदोलन में उतरे। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया।
 
वैसे तो अरविंद एक क्रांतिकारी ही थे। अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बम कांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी।
 
जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तब जेल में अरविंद का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन को छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।
 
बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविंद देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के बाद देश में आध्यात्मिक क्रांति की वो ज्वाला भड़की कि वि‍श्व में आज भारतीय योग और दर्शन का डंका बज रहा है।
 
अगले पन्ने पर चौथे संत...

 
 



मीरा : कृष्ण भक्त मीरा के भजनों को सभी ने सुना या पढ़ा होगा। मीरा का जन्म 1458 को राजपूत परिवार में राजस्थान के मेड़ता में हुआ था। मीराबाई के बाल मन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़ रतन सिंह की इकलौती पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्णभक्ति में रम गया था। कहते हैं कि मीराबाई को कई बार भगवान कृष्ण दर्शन की दिव्य अनुभूति होती थी।
 
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई की भक्ति दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहां मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। यह देखकर उनके लिए राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा दिया गया।
 
मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह नाच-गाना, साधु-संतों की संगत में मीरा का रहना बुरा लगता था। उसने मीरा को मारने के लिए प्रयास किए। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषैला सांप भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुंची। यह कृष्ण की भक्ति का चमत्कार ही था।
 
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। 
 
अगले पन्ने पर पांचवें संत...
 
 
webdunia


 
समर्थ रामदास : इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। उनके पिता का नाम सूर्याजी पंत और माता का नाम राणुबाई था। वे राम और हनुमान के भक्त और वीर शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने शक संवत 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली। उनके बारे में कहा जाता था कि उनका अपने इष्ट और उनके परिवार से संवाद होता रहता था।
 
माना जाता है कि हनुमानजी उनके प्रति बहुत स्नेह रखते थे। एक बार समर्थ रामदासजी ने हनुमानजी से आग्रह किया कि उनके संकीर्तन में जो भी भक्त आए आप उनको भी दर्शन देना। हनुमानजी ने कहा कि ठीक है जिस दिन आपका शुद्ध संकीर्तन होगा उसी दिन में दर्शन देने आ जाऊंगा।
 
आसपास के क्षेत्र में संकीर्तन की मुनादी करवा दी गई और बता दिया गया कि इस बार के संकीर्तन में हनुमानजी दर्शन देंगे। बड़ संख्या में लोगों ने इस संकीर्तन में भाग लिया। समर्थ रामदासजी संकीर्तन में आए और प्रभु श्रीराम का ध्यान लगाकर बैठ गए। लोग इधर-उधर झांकते रहे, मगर कहीं हनुमानजी नहीं दिखे। थोड़ी देर बाद लोगों को ऊब होने लगी। धीरे-धीरे वे संकीर्तन से उठकर जाने लगे। थोड़ी देर बाद वे लोग भी चले गए, जो हनुमान का नाम सुनकर आए थे।
 
लोगों के चले जाने के बाद भी समर्थ रामदास शुद्ध सत्संग के भाव में लीन थे। उन्हें लोगों के जाने का भान ही नहीं रहा। धीरे-धीरे वाद्ययंत्र बजाने वाले भी एक-दूसरे को इशारा करके खिसक गए। अब अकेले बचे रह गए तो समर्थ रामदास, तभी हनुमानजी आ गए। उन्होंने समर्थ रामदास को ध्यान से जगाया।
 
तभी हनुमानजी से समर्थ रामदासजी ने भक्तिभाव से कहा 'अरे आप कब आए...अब इन सत्संगियों को दर्शन दो। यह सुनकर हनुमानजी बोले, वे हैं कहां?
 
रामदासजी ने कहा वे सभी यहीं तो बैठे थे। हनुमानजी ने हंसते हुए कहा, मैं तो आ गया हूं, लेकिन आप के भगत कहां है?
 
समर्थ रामदास ने चारों ओर देखा, तो वे भौंचक रह गए। उन्होंने पूछा, भक्त कहां गए? हनुमानजी ने जवाब दिया, शुद्ध भाव नहीं था, विश्‍वास नहीं था तो टिके नहीं। सब चले गए। विषय-विकार और संसार का आकर्षण उनको बुला रहा था।
 
कुछ देर रुकने के बाद हनुमानजी ने कहा- जिस समय शुद्ध सत्संग होगा, मैं आऊंगा- ऐसा मैंने बोला था। आप के चित्त में शुद्ध विचार हैं, तो मैं आ गया हूं।
 
अगले पन्न पर छठे संत...
 
 


संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम : माना जाता है कि दोनों ही संतों को प्रभु श्रीकृष्ण के दर्शन हुए थे। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में संत ज्ञानेश्वर का जन्म ई. सन् 1275 में भाद्रपद के कृष्ण अष्टमी को हुआ। उनके पिता विट्ठल पंत एवं माता रुक्मिणी बाई थीं। संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु 1296 ई. में हुई। इन्होंने मात्र 21 वर्ष की उम्र में इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधि ग्रहण कर ली। 
 
देहू ग्राम तुकारामजी की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि है। तुकारामजी के जन्म के लगभग 300 साल पूर्व उनके पूर्वज विश्वंभरबाबा देहू में रहते थे। भगवान विठ्ठल उनके कुलदेवता थे। बचपन से ही वैराग्य जीवनजी रहे तुकारामजी को पंद्रह दिनों के उपवास और तप के बाद उनको भगवान ने दर्शन दिए और उनका जीवन बदल गया। तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले के अंतर्गत 'देहू' नामक ग्राम में सन् 1598 में हुआ था। इनके पिता का नाम बोल्होबा और माता का नाम कनकाई था। 
 
 
अगले पन्ने पर सातवें संत...
 
 

आदि शंकराचार्य और वल्लभाचार्य :
वल्लभाचार्य (जन्म: संवत 1530- मृत्यु: संवत 1588) : रामानुज के बाद आते हैं मध्वाचार्य। उन्होंने कहा- माया भी अलग है ब्रह्म भी अलग, दोनों कभी मिलते ही नहीं इसलिए न अद्वैत ठीक, न विशिष्टाद्वैत, सब तरफ सब समय द्वैत ही द्वैत है। फिर इसके बादर हुए आचार्य निंबार्क उन्होंने कहा, 'द्वैत और अद्वैत दोनों की सत्ता है' इसलिए उन्होंने अपने सिद्धांत को नाम दिया द्वैताद्वैत। इसके बाद हमारा परिचय शुद्धाद्वैत सिद्धांत से होता है जिसके प्रवर्तक हुए वल्लभाचार्य। 
 
शंकराचार्य (जन्म: 788 ई.-मृत्यु: 820 ई.): दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार शिवगुरु दम्पति के घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। अपने माता-पिता की एकमात्र संतान रहे शंकराचार्य के पिता का बचपन में देहांत हो गया था। असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन में पारंगतता हासिल कर ली थी। आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में पवित्र केदारनाथ धाम में इहलोक का त्याग दिया। 
 
अगले पन्ने पर आठवां संत...
 
 
 

बाबा रामदेव (1352-1385) : इन्हें द्वारिका‍धीश का अवतार माना जाता है। इन्हें पीरों का पीर रामसा पीर कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं।
 
विक्रम संवत 1409 को उडूकासमीर (बाड़मेर) उनका जन्म हुआ था और विक्रम संवत 1442 में उन्होंने रूणिचा में जीवित समाधि ले ली। पिता का नाम अजमालजी तंवर, माता का नाम मैणादे, पत्नी का नाम नेतलदे, गुरु का नाम बालीनाथ, घोड़े का नाम लाली रा असवार।
 
अगले पन्ने पर नौवें संत....
 
 
 

परमहंस योगानन्द : परमहंस योगानन्द बीसवीं सदी के एक आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को क्रिया योग उपदेश दिया तथा पूरे विश्व में उसका प्रचार तथा प्रसार किया। योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है। उन्होंने एक बहुत ही प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा 'योगी कथामृत'।
 
उत्त किताब को पढ़ने पर यह ज्ञात होगा कि ईश्वर साक्षात्कार का अनुभव क्या होते हैं और किस तर भगवत् दर्शन किए जा सकते हैं। इस किताब में कई दिव्य अनु‍भूतियों का वर्णन है।
 
यह किताब परमहंस योगानंद की आत्म कथा है जिसकी अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी है। अध्यात्मिक किताबों की टॉप लिस्ट में इस किताब का नाम उल्लेखित किया जाता है।
 
परमहंस योगानन्द का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ था। उनका जन्म नाम मुकुन्दलाल घोष था। कहते हैं कि योगदा सत्संग सोसायटी के गुरुदेव परमहंस योगानन्दजी का पार्थिव शरीर 7 मार्च 1952 से अब तक लॉस एंजिल्स के एक सरकारी भवन में रखा हुआ है। 
 
अगले पन्ने पर दसवें संत
 
 
 

गुरु गोरक्षनाथ : संतों में सबसे महान गुरु गोरक्षनाथ को साक्षात शिव का अवतार ही माना जाता था। सिद्धियां और चमत्कार उनके चरणों की दास थी। वे सदा शिव की भक्ति में लीन रहते थे। उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) भी महान सिद्ध संत थे। 84 नाथ या नवनाथ की परंपरा के अग्रिण गुरु गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) से अध्यात्मि जगत में एक नई क्रांति की शुरुआत हुई। आज देशभर में नाथ संप्रदाय के साधुओं के समाधी स्थल मौजूद हैं। माना जाता है कि शिरडी के साईनाथ बाबा भी इसी परंपरा से थे।
 
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था।


ऐसी और खबरें तुरंत पाने के लिए वेबदुनिया को फेसबुक https://www.facebook.com/webduniahindi पर लाइक और 
ट्विटर https://twitter.com/WebduniaHindi पर फॉलो करें। 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi