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शंखेश्वर तीर्थ में कामधेनु गाय, देखिए वीडियो

हमें फॉलो करें शंखेश्वर तीर्थ में कामधेनु गाय, देखिए वीडियो
, शनिवार, 11 जून 2016 (10:58 IST)
समुद्र मंथन के दौरान जो 14 रत्न उत्पन्न हुए थे उसमें एक कामधेनु गाय भी थी। प्राचीनकाल में कामधेनु गाय की बहुतायत थी, लेकिन वर्तमान में यह दुर्लभ होकर अब किंवदंती का हिस्सा बन गई है। लेकिन दावा किया जाता है कि वर्तमान में यह गाय अब 3 जगह मौजूद है- एक दक्षिण में रामेश्वरम, दूसरी काशी और तीसरी शंखेश्वर तीर्थ में।
 
गुजरात के महेसाणा जिले में श्वेतांबर जैनों के महत्वपूर्ण तीर्थ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ से 2 किलोमीटर दूर यह गाय 'प्रवचन श्रुत तीर्थ' में है। गाय पालक के कथनानुसार यह गाय आम गाय से हटकर है, जो 'कामधेनु' के नाम से जानी जाती है। उन्होंने इस गाय की विशेषता बताते हुए कहा कि जो भी इसके ऊपर 3 बार 'नवकार' का जप करते हुए हाथ फेरता है उसकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है।
 
देखें वीडियो...
बताया जाता है कि 7 साल पहले यह गाय एक श्रावक के पास थी। उसने 2.5 लाख रुपए में भी इस गाय को बेचने से इंकार कर दिया था। 7 साल पहले पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् पूर्णचंद्र सूरीश्वरजी मसा का चौमासा नजदीक के एक स्थान पर हुआ। जब उन्होंने इस गाय के बारे में सुना तो वे इस गाय के दर्शन हेतु गए और इस कामधेनु गाय को देखने के पश्चात उन्होंने श्रावक से आग्रह किया कि शंखेश्वर तीर्थ के लिए वो यह गाय उन्हें दे दें। श्रावक ने आचार्यश्री को खुशी-खुशी मात्र एक श्रीफल के बदले में गाय को उन्हें सौंप दिया।
 
बताया जाता है कि यह कामधेनु गाय रोज चौविहार करती है। सबसे अद्भुत बात यह है कि यह रोज सुबह आचार्यश्री हीरविजयजी द्वारा प्रतिष्ठित 450 साल प्राचीन महावीर स्वामी की प्रतिमाजी के दर्शन करने के बाद आचार्य या साधु भगवंत से नवकारसी के पचक्खान लेकर ही पानी व चारा आदि लेती है। 
 
आज इस प्रवचन तीर्थ में कामधेनु गाय के अलावा 50 अन्य देशी गायें हैं। उनका दूध हर रोज शंखेश्वर के दादा पार्श्वनाथ के पक्षालन के लिए एवं अखंड दीये के घी के लिए उपयोग किया जाता है।
 
वीडियो में दिखाई गई इस कामधेनु की विशेषता :
* पहली विशेषता : कामधेनु गाय की पीठ पर रीढ़ की हड्डी में एक सुर्यकेतु नाड़ी होती है। सूर्यकेतु स्नायु हानिकारक विकिरण को रोककर वातावरण को स्वच्छ बनाती है। यह पर्यावरण के लिए लाभदायक है। दूसरी ओर, सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य के संपर्क में आने पर यह स्वर्ण का उत्पादन करती है। गाय के शरीर से उत्पन्न यह सोना गाय के दूध, मूत्र व गोबर में मिलता है। यह स्वर्ण दूध या मूत्र पीने से शरीर में जाता है और गोबर के माध्यम से खेतों में।
 
दूसरी विशेषता : इस गाय की पूंछ भूमि को छूती है और यह पूंछ स्त्रियों की चोटी समान गुंथी हुई होती है
 
तीसरी विशेषता : इस गाय की पीठ पर 7 भंवरियां हैं, जैसे मनुष्यों के सिर में रहती हैं। अन्य गायों में भंवरी इतनी संख्या में नहीं देखी जाती। 
 
चौथी विशेषता : इसके शरीर के ऊपरी भाग पर पंचपरमेष्ठी को सूचित करती 5 लकीरें हैं, जो सामान्य गायों में नहीं होतीं।
 
पांचवीं विशेषता : उसके माथे पर सींग उलटे होते हैं जबकि सामान्य गाय में यह दुर्लभ हैं। उल्टे सींग का मतलब अहिंसा का संदेश। सींग किसी को मारने के लिए नहीं।
 
छठी विशेषता : यह आम गाय के मुकाबले बहुत ही हट्टी-कट्टी है। इसके मुख पर एक मस्सा देखा जा सकता है।
 
सातवीं विशेषता : इस गाय की आंखों से चौबीसों घंटे अश्रुधारा बहती रहती है।
 
गाय का महत्व : अधिकतर लोग तर्क देते हैं कि प्राचीनकाल में गाय भारतीय कृषि और अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग थी इसलिए उसे पूज्यनीय बना दिया गया। यह एक पक्ष हो सकता है, लेकिन दूध देने वाले और भी पशु थे। गाय सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं थी बल्कि इसलिए महत्वपूर्ण थी या है कि यह एक पवित्र और वातावरण को ऊर्जामय बनाने वाला पशु है। जैसे वृक्षों में पीपल और बरगद को खास माना जाता है उसी तरह पशुओं में गाय सबसे महत्वपूर्ण मानी गई है। 
 
शास्त्रों और विद्वानों के अनुसार कुछ पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो आत्मा की विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव पर होते हैं। उनमें से गाय भी एक है। इसके बाद उस आत्मा को मनुष्य योनि में आना ही होता है।
 
गाय के लिए युद्ध : श्रीराम के पूर्व परशुराम के समकालीन ऋषि वशिष्ठ के पास कामधेनु गाय होती थी। इस गाय की रक्षा के लिए वशिष्ठ को कई राजाओं से लड़ना पड़ा था। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में भी लोभ उत्पन्न हो गया था। उन्होंने इस गाय को वशिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की, लेकिन वशिष्ठ ने इंकार कर दिया। दोनों में इसके लिए घोर युद्ध हुआ और विश्‍वामित्र को हार मानना पड़ी।
 
कामधेनु गाय की उत्पत्ति : कामधेनु गाय को 14 रत्नों में से एक माना जाता है। कामधेनु गाय की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन से हुई थी। दरअसल, यह गाय की सबसे उत्तम किस्म थी, जो अब दुर्लभ मानी जाती है। कहते हैं कि कामधेनु गाय के दर्शन मात्र से ही सभी तरह के दु:ख-दर्द दूर हो जाते हैं। इस पार 3 बार हाथ फेरने से हर तरह की मनोकामना पूर्ण हो जाती है। इस गाय का दूध अमृत के समान माना जाता है। 
 
गाय की प्राचीन नस्लें : कहते हैं कि आज से लगभग 9,500 वर्ष पूर्व गुरु वशिष्ठ ने गाय के कुल का विस्तार किया और उन्होंने गाय की नई प्रजातियों को भी बनाया, तब गाय की 8 या 10 नस्लें ही थीं जिनका नाम कामधेनु, कपिला, देवनी, नंदनी, भौमा आदि था।
 
वर्तमान में गायों की प्रमुख नस्लें : भारत में आजकल गायों की प्रमुख 30 नस्लें पाई जाती हैं। गायों की यूं तो कई नस्लें होती हैं, लेकिन भारत में मुख्‍यत: साहीवाल (पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार), गिर (दक्षिण काठियावाड़, गुजरात), थारपारकर (जोधपुर, जैसलमेर, कच्छ), करन फ्राइ (राजस्थान), सिन्धी (सिन्ध का कोहिस्तान, बलूचिस्तान), कांकरेज (कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भू-भाग), मालवी (मध्यप्रदेश, ग्वालियर), नागौरी (जोधपुर के आसपास), पंवार (पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी), भगनाड़ी (नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश), दज्जल (पंजाब के डेरा गाजी खां जिला), गावलाव (सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर), हरियाणा (रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगांव और जींद), अंगोल या नीलोर (तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गुंटूर, नीलोर, बपटतला तथा सदनपल्ली), निमाड़ी (नर्मदा घाटी), देवनी (दक्षिण आंध्रप्रदेश, हिंसोल) आदि हैं। 
 
अन्य गायें : राठ अलवर की गायें और अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी नस्लें मैसूर की वत्सप्रधान, एकांगी गायें हैं। कंगायम और कृष्णवल्ली दूध देने वाली हैं। विदेशी नस्लों में जर्सी गाय सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह गाय दूध भी अधिक देती है। गायें कई रंगों जैसे सफेद, काली, लाल, बादामी तथा चितकबरी होती हैं। भारतीय गाय छोटी होती है, जबकि विदेशी गाय का शरीर थोड़ा भारी होता है।

वीडियो और चित्र साभार यूट्यूब

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