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हिन्दू धर्म से सीखें ये 10 बड़ी बातें

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हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित धर्म है। वेदों से ही स्मृति और पुराणों की उत्पत्ति हुई है। वेदों के सार को उपनिषद और उपनिषदों के सार को गीता कहते हैं। श्रुति के अंतर्गत वेद आते हैं बाकी सभी ग्रंथ स्मृति ग्रंथ हैं। रामायण और महाभारत इतिहास ग्रंथ हैं।
 
उपरोक्त ग्रंथों में जीवन, परिवार, समाज और राष्ट्र को बेहतर बनाने के लिए कई सूत्र दिए गए हैं। यदि आपको हिन्दू धर्म के संबंध में अच्छे से जानना है तो आप सभी उपनिषद पढ़ लें आपको समझ में आ जाएगा कि ईश्वर, सृष्टि, आत्मा और जीवन का रहस्य क्या है। हालांकि आजकल कोई इसे नहीं जानता चाहता, लेकिन फिर भी हम आपके सामने ऐसी बातें रख रहे हैं जो कि हिन्दू धर्म में प्रमुखता से उल्लेखीत है।
 
निम्नलिखित बातें सभी धर्मों के लोगों के लिए सिखने की है। क्योंकि धर्म, सत्य और जीवन का सत्य इसी में छुपा हुआ है। यदि किसी भी प्रकार का धर्म लोगों के भीतर सांप्रदायिक सोच को भरता है तो यह समझना होगा कि असल में वह धर्म है कि नहीं? महज एक संगठन?

स्वतंत्रता : हिन्दू धर्म के अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत मायने रखती है। लेकिन यह स्वतंत्रता सभी तक जायज है जब तक की आप दूसरे की स्वतंत्रता में दखल न देते हों। स्वतंत्रता का अर्थ परिवार, कुटुंब, समाज या राष्ट्र से स्वतंत्र होने वाली बात नहीं। दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करना भी जरूरी है।
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स्वतंत्रता का अर्थ आप किस तरह का जीवन जीना चाहते हैं उसके लिए कोई सामाजिक दबाव नहीं। आप क्या है यह जानने के लिए आपकी आत्मा पर किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। उपनिषद और गीता यही शिक्षा देते हैं। सामाजिक नियमों से जरूरी है आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता। लेकिन यदि यह स्वंत्रता समाज को बिगाड़ने या समाज के विध्वंस को करने के लिए उत्सुक है तो यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि यह स्वच्छंदता, विद्रोह या अलगाववाद है। दरअस्ल हिन्दू धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है सामाजिक नियमों को नहीं।
 
संसार में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म हैं। एक कर्म-प्रधान दूसरे विश्वास-प्रधान। हिन्दू धर्म कर्म-प्रधान है, अहिन्दू धर्म विश्वास-प्रधान। जैन, बौद्ध, सिख ये तीनों हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। इस्लाम, ईसाई, यहूदी ये तीनों अहिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। हिन्दू धर्म लोगों को निज विश्वासानुसार ईश्वर या देवी-देवताओं को मानने व पूजने की और यदि विश्वास न हो तो न मानने व न पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। अहिन्दू धर्म में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। अहिन्दू धर्म अपने अनुयायियों को किसी विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर विश्वास करने के लिए बाध्य या विवश करता है। विद्वान व दूरदर्शी लोग भली-भांति जानते हैं कि सांसारिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र विचारों की कितनी बड़ी आवश्यकता रहती है।
 
हिन्दू धर्म व्यक्ति स्वतंत्रता को महत्व देता है, जबकि दूसरे धर्मों में सामाजिक बंधन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लागू हैं। आप ईशनिंदा नहीं कर सकते और आप समाज के नियमों का उल्लंघन करके अपने तरीके से जीवन-यापन भी नहीं कर सकते। मनुष्यों को सामाजिक बंधन में किसी नियम के द्वारा बांधना अनैतिकता और अव्यावहारिकता है। ऐसा जीवन घुटन से भरा तो होता ही है और समाज में प्रतिभा का भी नाश हो जाता है।
 
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की अनुपम कृति है और उसे स्वतंत्रता का अधिकार है। वह इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह मंदिर जाए, प्रार्थना करे या समाज के किसी नियम को माने। यही कारण रहा कि हिन्दुओं में हजारों वैज्ञानिक, समाज सुधारक और दार्शनिक हुए जिन्होंने धर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और जिन्होंने धर्म में बाहर से आ गई बुराइयों की समय-समय पर आलोचना भी की। किसी को भी धार्मिक या सामाजिक बंधन में रखना उसकी चेतना के विस्तार को रोकना ही माना जाता है। वेद, उपनिषद और गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में भगवान (ईश्वर नहीं) होने की संभावना है। भगवान बन जाना प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है।

उदारता और सहिष्णुता :  इसका अर्थ है कि हम प्रत्येक प्राणी को (पशु, पक्षी और मनुष्य) समभाव से देखें। इसका मतलब यह कि किसी पर हिंसा नहीं करना और खुद पर हिंसा स्वीकार नहीं करना। सहिष्णुता का अर्थ है किसी पर भी आगे रहकर आक्रमण नहीं करना और सहनशील बनना, लेकिन यह अधुरा अर्थ हो सकता है। सहिष्णुता का गलत अर्थ लेने के कारण ही पृथ्‍वीराज चौहान ने हर बार शुत्र को छोड़ दिया लेकिन शत्रु ने इस सहिष्णुता का लाभ उठाकर पुन: आक्रमण कर सबकुछ तहस नहस कर दिया।
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सबसे जरूरी है कि हम अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति सहिष्णु बनें। इसमें कोई शक नहीं कि सहिष्णुता हमारी दिनचर्या का एक मुख्य गुण है। इस गुण को अपनाने से हम सदैव प्रसन्नचित तथा प्रफुल्लित रहते हैं इसलिए हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को सहिष्णुता के महत्व को बताना चाहिए तथा हमें भी अपने बड़ों से भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। लेकिन इसकी यह शर्त है कि कोई यदि हमारी सहिष्णुता का सम्मान करता है तो ही सहिष्णु रहा जाए।
 
सहिष्णुता का अर्थ है सहन करना और उदारता का अर्थ है खुले दिमाग और विशाल हृदय वाला। जो स्वभाव से नम्र और सुशील हो और पक्षपात या संकीर्णता का विचार छोड़कर सबके साथ खुले दिल से आत्मीयता का व्यवहार करता हो, उसे 'उदार' कहा जाता है। दूसरों के विचारों, तर्कों, भावनाओं और दुखों को समझना ही उदारता है। अनुदारता पशुवत होती है।
 
अपनी रुचि, मान्यता, इच्छा, विचार, धर्म को दूसरों पर लादना, अपने ही गज से सबको नापना, अपने ही स्वार्थ को साधते रहना ही अनुदारता है। दुनिया के दूसरे धर्मों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
 
सहिष्णुता और उदारता हिन्दू धर्म के खून में है तभी तो पिछले सैकड़ों वर्षों से उनका खून बहाया जाता रहा है। तभी तो हिन्दुओं का धर्मांतरण किया जाता रहा है। हिन्दू धर्म में उदारता और सहिष्णुता का कारण यह है कि इस धर्म में परहित को पुण्य माना गया है। न्याय और मानवता (इंसाफ और इंसानियत) को धर्म से भी ऊंचा माना गया है। न्याय और मानवता की रक्षा के लिए सबकुछ दांव पर लगा देने के लिए हिन्दुओं को प्रेरित किया जाता रहा है।
 
यही कारण है कि इस धर्म में प्राचीनकाल से ही कभी कट्टरता नहीं रही और इस उदारता, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता की भावना के चलते ही हिन्दुओं ने कभी भी किसी दूसरे धर्म या देश पर किसी भी प्रकार का कोई आक्रमण नहीं किया। इसका परिणाम यह रहा कि आक्रांताओं ने समय-समय पर गुलाम बनाकर हिन्दुओं को धर्म, जाति और पंथों में बांट दिया, उनका कत्लेआम किया गया और उन्हें उनकी ही भूमि से बेदखल कर दिया गया।

ध्यान और योग : प्रत्येक धर्म ने ध्यान और योग की कुछ विधियां अपनाई गई है। यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने ध्यान और योग को अपने अनुसार ढाल कर अपनाया। लेकिन यहां यह कहना जरूरी है कि ध्यान और योग का जो स्वरूप ग्रंथों में दिया गया है वह शुद्ध और असरकारक है।
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आज मानव जाती क्रोध, साम्प्रदायिक नफरत, लालच, युद्ध, बैचेनी और तमाम तरह की जहरिली विचारधारा के बीच खुद को असहाय और नर्क में महसूस कर रही है। दिमाग पर इतना बोझ हो चला है कि अब मनुष्य सामूहिक आत्महत्या के मुहाने पर पहुंच चुका है। उसके दिमाग में बहुत कुछ चल रहा है। परिवार, समाज, देश, अलगाव, वाम, नौकरी, बेरोजगारी, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, प्रेम, नफरत, अपमान, बदला, अपराध, चिंता, अवसाद आदि सैंकड़ों ऐसी बाते हैं जिसके दबाव में वह बस जैसे तेसे जी रहा है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा आदि कई जगह जाने के बाद भी मन शांत नहीं है।
 
ऐसा में ध्यान और योग को अपनाकर वह अपने चित्त पर इकट्ठे हो गए बोझ से मुक्त होकर एक स्वस्थ्‍य दिमाग को पास सकता है। यदि वह ऐसा करता है तो अपनी आने वाली पढ़ियों को एक अच्छा और शांतिपूर्ण वातावरण देने में सक्षम होगा। अन्यथा आपके बच्चे भी सड़कों पर पागलों की तरह पत्थर मारने में ही अपना जीवन बर्बाद कर देंगे।
 
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जीवन जीने की कला : जिंदगी जीना एक महत्वपूर्ण विद्या है। अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में यदि कीमती गाड़ी दे दी जाए तो उसकी दुर्गति ही होगी। दरअसल, यह शतरंज और सांप-सीढ़ी के खेल की तरह भी है। इस खेल में आपके ज्ञान, बुद्धि, विश्वास के अलावा आपकी इच्छा का योगदान होता है। सही ज्ञान और पूर्ण विश्वास के साथ सकारात्मक इच्‍छा नहीं है तो आप हारते जाएंगे।
 
यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन को एक संघर्ष मानते हैं जबकि हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन एक उत्सव है। संघर्ष तो स्वत: ही सामने आते रहते हैं या तुम अपने जीवन को संघर्षपूर्ण बना लेते हो। लेकिन जीवन को उत्सवपूर्ण बनाना ही जीवन जीने की कला का हिस्सा है। गीत, भजन, नृत्य, संगीत और कला का धर्म में उल्लेख इसीलिए मिलता है कि जीवन एक उत्सव है जबकि कुछ धर्मों में नृत्य, संगीत और कला पर रोक है। ऐसा माना जाता है कि इससे समाज बिगाड़ का शिकार हो जाता है। इस डर से लोगों से उनका वह आनंद छीन लो, जो उनको परमात्मा ने या इस प्रकृति ने दिया है।
 
हिन्दू धर्म मानता है कि जीवन ही है प्रभु। जीवन की खोज करो। जीवन को सुंदर से सुंदर बनाओ। इसमें सत्यता, शुभता, सुंदरता, खुशियां, प्रेम, उत्सव, सकारात्मकता और ऐश्‍वर्यता को भर दो। लेकिन इन सभी के लिए जरूरी नियमों की भी जरूरत होती है अन्यथा यही सब अनैतिकता में बदल जाते हैं।

उत्सवप्रियता : हिन्दू धर्म उत्सवों को महत्व देता है। जीवन में उत्साह और उत्सव होना जरूरी है। ईश्वर ने मनुष्य को ही खुलकर हंसने, उत्सव मनाने, मनोरंजन करने और खेलने की योग्यता दी है। यही कारण है कि सभी हिन्दू त्योहारों और संस्कारों में संयमित और संस्कारबद्ध रहकर नृत्य, संगीत और पकवानों का अच्छे से सामंजस्य बैठाते हुए समावेश किया गया है। उत्सव से जीवन में सकारात्मकता, मिलनसारिता और अनुभवों का विस्तार होता है।
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हिन्दू धर्म में होली जहां रंगों का त्योहार है वहीं दीपावली प्रकाश का त्योहार है। नवरात्रि में जहां नृत्य और व्रत को महत्व दिया जाता है, वहीं गणेश उत्सव और श्राद्ध पक्ष में अच्छे-अच्छे पकवान खाने को मिलते हैं। 
 
इसके अलावा हिन्दू प्रकृति में परिवर्तन का भी उत्सव मनाते हैं, जैसे मकर संक्रांति पर सूर्य उत्तरायन होता है तो उत्सव का समय शुरू होता है और सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो व्रतों का समय शुरू होता है। इसके अलावा 1. शीत-शरद, 2. बसंत, 3. हेमंत, 4. ग्रीष्म, 5. वर्षा और 6. शिशिर इन सभी का उत्सव मनाया जाता है। 
 
वसंत से नववर्ष की शुरुआत होती है। वसंत ऋतु चैत्र और वैशाख माह अर्थात मार्च-अप्रैल में, ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ और आषाढ़ माह अर्थात मई-जून में, वर्षा ऋतु श्रावण और भाद्रपद अर्थात जुलाई से सितंबर, शरद ऋतु आश्‍विन और कार्तिक माह अर्थात अक्टूबर से नवंबर, हेमंत ऋतु मार्गशीर्ष और पौष माह अर्थात दिसंबर से 15 जनवरी तक और शिशिर ऋतु माघ और फाल्गुन माह अर्थात 16 जनवरी से फरवरी अंत तक रहती है।

अनुशासन और कर्तव्य पालन जरूरी : हिन्दू धर्म ने मनुष्य की हर हरकत को वैज्ञानिक नियम में बांधा है। यह नियम सभ्य समाज की पहचान है। इसके लिए प्रमुख कर्तव्यों का वर्णन किया गया है जिसको अपनाकर जीवन को सुंदर और सुखी बनाया जा सकता है। जैसे 1. संध्यावंदन (वैदिक प्रार्थना और ध्यान), 2. तीर्थ (चारधाम), 3. दान (अन्न, वस्त्र और धन), 4. व्रत (श्रावण मास, एकादशी, प्रदोष), 5. पर्व (शिवरात्रि, नवरात्रि, मकर संक्रांति, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और कुंभ), 6. संस्कार (16 संस्कार), 7. पंच यज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ-श्राद्धकर्म, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ), 8. देश-धर्म सेवा, 9. वेद-गीता पाठ और 10. ईश्वर प्राणिधान (एक ईश्‍वर के प्रति समर्पण)।
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उपरोक्त सभी कार्यों से जीवन में एक अनुशासन और समरसता का विकास होता है। इससे जीवन सफल, सेहतमंद, शांतिमय और समृद्धिपूर्ण बनता है अत: हिन्दू धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है।
 
जीवन के 4 पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चारों पुरुषार्थों की चारों आश्रमों में जरूरत होती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए ही चारों पुरुषार्थों का जो ज्ञान प्राप्त कर लेता है वही सही मार्ग पर आ जाता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए। मोक्ष को धर्म से साधा जा सकता है। धर्म के ज्ञान के बगैर सांसारिक जीवन अव्यवस्थित और अराजक होता है। अराजक जीवन ही संघर्ष को जन्म देता है। दूसरी ओर अर्थ बिना सब व्यर्थ है। हर तरह की सांसारिक कामना अर्थ से ही पूर्ण होती है। 
 
मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो। मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान, शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा।

सह-अस्तित्व और स्वीकार्यता : सहिष्णुता, उदारता, मानवता और लचीलेपन की भावना से ही सह-अस्तित्व और सभी को स्वीकारने की भावना का विकास होता है। सह-अस्तित्व का अर्थ है सभी के साथ समभाव और प्रेम से रहना चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और देश से संबंध रखता हो।
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इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं कि हिन्दुओं ने दुनिया के कई देशों से समय-समय पर सताए और भगाए गए शरणार्थियों के समूह को अपने यहां शरण दी। समंदर के किनारे होने के कारण मुंबई और कोलकाता में जितने विदेशी समुदाय आकर रहे, उतने शायद पूरे भारत में कहीं नहीं आए होंगे। दूसरी ओर अखंड भारत का एक छोर अफगानिस्तान (गांधार) भी कई विदेशियों की युद्ध और शरणस्थली था।
 
हिन्दुओं ने अपने देश में यूनानी, यहूदी, अरबी, तुर्क, ईरानी, कुर्द, पुर्तगाली, अंग्रेज आदि सभी को स्वीकार्य किया और उनको रहने के लिए जगह दी। जहां तक शक, हूण और कुषाणों का सवाल है तो यह हिन्दुओं की ही एक जाति थी। हालांकि इस पर अभी विवाद है।
 
ऐसा देखा गया है कि हिन्दुओं में ही सह-अस्तित्व की भावना खुले रूप में आज भी विद्यमान है। किसी भी स्थान या देश का व्यक्ति हिन्दुओं के बीच रहकर खुद को निर्भीक महसूस कर सकता है लेकिन इसके विपरीत ऐसा कभी संभव नहीं होता पाया गया।
 
हिन्दू जिस भी देश में गए वहां की संस्कृति और धर्म में घुल-मिल गए। हिन्दुओं ने सभी के धर्म और संस्कृति को सम्मानपूर्वक भारत में दर्जा दिया। प्राचीनकाल में जो हिन्दू भारत से बाहर चले गए थे उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को किसी न किसी रूप में बचाए रखा। डोम, लोहार, गुज्जर, बंजारा और टांडा जाति से संबंध रखने वाले आज यजीदी, रोमा, सिंती, जिप्सी इसका उदाहरण हैं।

प्रकृति से निकटता : अक्सर हिन्दू धर्म की इस बात के लिए आलोचना होती है कि यह प्रकृ‍ति पूजकों का धर्म है। ईश्वर को छोड़कर ग्रह और नक्षत्रों की पूजा करता है। यह तो जाहिलानापन है। दरअसल, हिन्दू मानते हैं कि कंकर-कंकर में शंकर है अर्थात प्रत्येक कण में ईश्वर है। इसका यह मतलब नहीं कि प्रत्येक कण को पूजा जाए। इसका यह मतलब है कि प्रत्येक कण में जीवन है। वृक्ष भी सांस लेते हैं और लताएं भी। 
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दरअसल, जो दिखाई दे रहा है पहला सत्य तो वही है। प्रत्येक व्यक्ति करोड़ों मिल दूर दिखाई दे रहे उस टिमटिमाते तारे से जुड़ा हुआ है इसलिए क्योंकि उसे दिखाई दे रहा है। दिखाई देने का अर्थ है कि उसका प्रकाश आपकी आंखों तक पहुंच रहा है। हमारे वैदिक ऋषियों ने कुदरत के रहस्य को अच्छे से समझा है। वे कहते हैं कि प्रकृति ईश्वर की अनुपम कृति है। प्रकृति से मांगो तो निश्चित ही मिलेगा। 
 
दुनिया के तीन बड़े धर्म मरुस्थल में जन्मे हैं जबकि हिन्दू धर्म हिमालय से निकलने वाली नदियों के किनारे हरे-भरे जंगलों में पनपा है। स्वाभाविक रूप से ही धर्मों पर वहां की भौगोलिक स्थिति का असर होगा ही। धर्म, संस्कृति, पहनावे और रीति-रिवाज पर स्थान विशेष का भौगोलिक असर जरूर पड़ता है, लेकिन वैदिक ऋषियों की सोच इससे आगे की थी।
 
जिन्होंने वेद, उपनिषद और गीता का अच्छे से अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि प्रकृति क्या है। हालांकि हिन्दू धर्म में प्रकृति और समाधि पूजा का निषेध है। कोई गृहिणी चांद को देखकर अपना व्रत तोड़ती है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह चांद की पूजा करती है। लेकिन सूर्य और चन्द्र के आपके जीवन पर हो रहे असर को भी नकारा नहीं जा सकता इसीलिए प्रकृति से प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं। कोई भी व्यक्ति प्रकृति से अलग या विरुद्ध रहकर अपना जीवन-यापन नहीं कर सकता। प्रकृति एक शक्ति है जिसके प्रति प्रेमपूर्ण भावना से भरकर हम एक श्रेष्ठ जीवन को विकसित कर सकते हैं। यही पर्यावरण की सोच को विकसित करने का एकमा‍त्र तरीका भी है।
 
वेदों में प्रकृति के हर तत्व के रहस्य और उसके प्रभाव को उजागर किया गया है इसीलिए वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है। इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है। धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि 'ब्रह्म' अर्थात ईश्वर को छोड़कर हम तारे-सितारों की पूजा करने लगें।
 
आम हिन्दू आमतौर पर एकेश्वरवादी नहीं होते, जबकि हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी धर्म है जिसे ब्रह्मवाद कहते हैं। अधिकतर हिन्दू ईश्वर, परमेश्वर या ब्रह्म को छोड़कर तरह-तरह की प्राकृतिक एवं सांसारिक वस्तुएं, ग्रह-नक्षत्र, देवी-देवता, नाग, नदी, झाड़, पितर और गुरुओं की पूजा करते रहते हैं इसका कारण है स्थानीय संस्कृति और पुराणों का प्रभाव। 

परोपकार की भावना : 'परोपकार' शब्द पर+उपकार इन 2 शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है नि:स्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करना। अपनी शरण में आए सभी मित्र-शत्रु, कीट-पतंगे, देशी-परदेशी, बालक-वृद्ध आदि सभी के दु:खों का निवारण करना ही परोपकार कहलाता है। ईश्वर ने सभी प्राणियों में सबसे योग्य जीव मनुष्य को बनाया है। यदि किसी मनुष्य में यह गुण नहीं है तो उसमें और पशु में कोई फर्क नहीं है।
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पुराणों में परोपकार के अनेक उदाहरण हैं। राजा रंतिदेव को 40 दिन तक भूखे रहने के बाद जब भोजन मिला तो वह भोजन उन्होंने शरण में आए भूखे अतिथि को दे दिया। दधीचि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियां दे दीं, शिव ने विष का पान कर लिया, कर्ण ने कवच और कुंडल दान दे दिए, राजा शिवि ने शरण में आए कबूतर के लिए अपना मांस दे डाला आदि-आदि। ऐसे कई उदाहरण हमें सीख देते हैं।
 
परोपकार के अनेक रूप हैं जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरों की सहायता करके आत्मिक सुख प्राप्त कर ईश्वर का प्रिय बन सकता है, जैसे प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल को अस्पताल पहुंचाना, वृद्धों की सेवा करना, अंधों को सड़क पार कराना, भूखे को भोजन देना, वस्त्रहीन को वस्त्र देना, गौशाला बनवाना, प्याऊ लगवाना, वृक्ष लगाना आदि।

अभ्यास और जागरण का महत्व समझें : यदि आपको को कोई गणित का सवाल या किसी प्रकार की थ्‍योरी याद नहीं आ रही है तो उसे निरंतर पढ़ें और समझते रहे। किसी कार्य के पीछे पड़े रहना ही अभ्यास है। बार बार किसी कार्य को करते रहने से आप उस कार्य में पारंगत हो जाते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में अभ्यास जरूरी है। सेनाएं युद्ध का अभ्यास करती रहती है ताकि युद्ध के दौरान उसे किसी भी प्रकार की दिक्कतों का सामना न करना पड़े।
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जागरण का अर्थ बहुत गहरा है। आप यह आलेख बेहोशी में पढ़ सकते हैं अर्थात इस दौरान आपका ध्यान कहीं ओर, मन कहीं ओर और आंखों से जो देख रहे हैं वह यहां हैं। किसी की बातों को सुनते वक्त आपका ध्यान कहीं ओर होता है तो उसने क्या कहा यह समझ में नहीं आता। इसी तरह किसी भी कार्य को करते समय यदि आपका ध्यान या मन कहीं ओर रमा हुआ है तो आप बेहोशी में उस कार्य करेंगे। हां, यदि आप किसी कार्य में पारंगत हो गए हैं तो फिर उस कार्य को बेहोशी में आप यंत्रवत करेंगे। लेकिन किसी भी बात को सीखने के लिए होशपूर्ण होना जरूरी है तभी उसे आप सीख पाएंगे।

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