Mool ramayan: वाल्मीकि कृत रामायण का सबसे छोटा रूप है मूल रामायण। इस रामायण में कुल 100 श्लोक है। इस सौ श्लोकों में ही रामायण की संपूर्ण गाथा का वर्णन कर दिया गया है। इसे पढ़ने से संपूर्ण रामायण के पढ़ने का फल मिलता है। वेबदुनिया ने विशेष तौर से अपने पाठकों के लिए रामचरित मानस के बाद उपलब्ध कराई है मूलरामायण।
।।श्रीगणेशाय नम:।।
मूल रामायण | Mool ramayan
ॐ तप: स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुङ्गवम्।।1।।
तपस्वी वाल्मीकिजी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारदजी से पूछा-
को न्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रत:।।2।।
[हे मुने!] इस समय इस संसारमें गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है?
चारित्रेण च को युक्त: सर्वभूतेषु को हित:।
विद्वान् क: क: समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शन:।।3।।
सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है?
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयक:।
कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे।।4।।
मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कान्तिमान् और किसी की भी निन्दा नहीं करने वाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित होने पर किससे देवता भी डरते हैं?
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम्।।5।।
हे महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूं, इसके लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं।
श्रुत्वा चैतत्रिलोकज्ञो वाल्मीकेर्नारदो वच:।
श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्।।6।।
महर्षि वाल्मीकि के इस वचन को सुनकर तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले नारदजी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा, सुनिये और फिर प्रसन्नतापूर्वक बोले-
बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणा:।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्त: श्रूयतां नर:।।7।।
हे मुने! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूं, आप सुनें।
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान्वशी।।8।।
इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम-नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं।
बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्छत्रुनिबर्हण:।
विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु:।।9।।
वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शंख के समान और ठोढ़ी मांसल (पुष्ट) है।
महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दम:।
आजानुबाहु: सुशिरा: सुललाट: सुविक्रम:।।10।।
उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गले के नीचे की हड्डी (हंसली) मांस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करने वाले हैं। भुजाएं घुटने तक लटकी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है।
सम: समविभक्ताङ्ग स्निग्धवर्ण: प्रतापवान्।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षण:।।11।।
उनका शरीर [अधिक ऊंचा या नाटा न होकर] मध्यम और सुडौल है, देह का रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्ष:स्थल भरा हुआ है, आंखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और सुन्दर लक्षणों से सम्पन्न हैं।
धर्मज्ञ: सत्यसंधश्च प्रजानां च हिते रत:।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्न: शुचिर्वश्य: समाधिमान्।।12।।
धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हितसाधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं।
प्रजापतिसम: श्रीमान्धाता रिपुनिषूदन:।
रक्षिताजीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।।13।।
प्रजापति के समान पालक, श्रीसम्पन्न, वैरिविध्वंसक औरजीवों तथा धर्म के रक्षक हैं।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठित:।।14।।
स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स्मृतिमान्प्रतिभानवान्।
सर्वलोकप्रिय: साधुरदीनात्मा विचक्षण:।।15।।
वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरण शक्ति से युक्त और प्रतिभासम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदय वाले वे रामचन्द्रजी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्र इव सिन्धुभि:।
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शन:।।16।।
जैसे नदियां समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सब में समान भाव रखने वाले हैं,उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है।
स च सर्वगुणोपेत: कौसल्यानन्दवर्धन:।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव।।17।।
सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त वे श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता कौसल्या के आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं।
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शन:।
कालाग्निसदृश: क्रोधे क्षमया पृथिवीसम:।।18।।
धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापर:।
वे विष्णु भगवान के समान बलवान् हैं, उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं।
तमेवंगुणसम्पन्नं रामं सत्य पराक्रमम्।।19।।
ज्येष्ठं ज्येष्ठगुणैर्युक्तं प्रियं दशरथ: सुतम्।
प्रकृतीनां हितैर्युक्तं प्रकृतिप्रिय काम्यया।।20।।
यौवराज्येन संयोक्तुमैच्छत्प्रीत्या महीपति:।
इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजा वर्ग का हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा।
तस्याभिषेकसम्भारान्दृष्ट्वा भार्याथ कैकयी।।21।।
पूर्वं दत्तवरा देवी वरमेनमयाचत।
विवासनं च रामस्य भरतस्याभिषेचनम्।।22।।
तदनन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारियां देखकर रानी कैकेयी ने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजा से यह वर मांगा कि राम का निर्वासन (वनवास) और भरत का राज्याभिषेक हो।
स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयत:।
विवासयामास सुतं रामं दशरथ: प्रियम्।।23।।
राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बन्धन में बंधकर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया।
स जगाम वनं वीर: प्रतिज्ञामनुपालयन्।
पितुर्वचननिर्देशात्कैकेय्या: प्रियकारणात्।।24।।
कैकेयी का प्रिय करने के लिये पिता की आज्ञा के अनुसार उनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले।
तं व्रजन्तं प्रियो भ्राता लक्ष्मणोऽनुजगाम ह।
स्नेहाद्विनयसम्पन्न: सुमित्रानन्दवर्धन:।।25।।
भ्रातरं दयितो भ्रातुः सौभ्रात्रमनुदर्शयन्।
तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मणजी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्व का परिचय देते हुए स्नेहवश वन को जाने वाले बन्धुवर राम का अनुसरण किया।
रामस्य दयिता भार्या नित्यं प्राणसमा हिता।।26।।
जनकस्य कुले जाता देवमायेव निर्मिता।
सर्वलक्षणसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधू:।।27।।
सीताप्यनुगता रामं शशिनं रोहिणी यथा।
पौरैरनुगतो दूरं पित्रा दशरथेन च।।28।।
और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमाया की भांति सुन्दरी, समस्त शुभ लक्षणों से विभूषित, स्त्रियों में उत्तम, राम की प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पति का हित चाहने वाली थी, रामचन्द्रजी के पीछे चलीं; जैसे चन्द्रमा के पीछे रोहिणी चलती है। उस समय पिता दशरथ ने [अपना सारथि भेजकर] और पुरवासी मनुष्यों ने [स्वयं साथ जाकर] दूर तक उनका अनुसरण किया।
श्रृंगवेरपुरे सूतं गंङ्गाकूले व्यसर्जयत्।
गुहमासाद्य धर्मात्मा निषादाधिपतिं प्रियम्।।29।।
फिर शृंगवेरपुर में गंगा-तट पर अपने प्रिय निषादराज गुह के पास पहुंचकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने सारथि को [अयोध्या के लिये] विदा कर दिया।
गुहेन सहितो रामो लक्ष्मणेन च सीतया।
ते वनेन वनं गत्वा नदीस्तीत्र्वा बहूदका:।।30।।
चित्रकूटमनुप्राप्य भरद्वाजस्य शासनात्।
रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रय:।।31।।
देवगन्धर्वसंकाशास्तत्र ते न्यवसन्सुखम्।
निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीता के साथ राम- ये चारों एक वन से दूसरे वन में गये। मार्ग में बहुत जलों वाली अनेकों नदियों को पार करके [भरद्वाज के आश्रम पर पहुंचे और गुह को वहीं छोड़] भरद्वाज मुनि की आज्ञा से चित्रकूट पर्वत पर गये। वहां वे तीनों देवता और गंधर्वों के समान वन में नाना प्रकार की लीलाएं करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे।
चित्रकूटं गते रामे पुत्रशोकातुरस्तदा।।32।।
राजा दशरथ: स्वर्गं जगाम विलपन्सुतम्।
राम के चित्रकूट चले जाने पर पुत्रशोक से पीड़ित राजा दशरथ उस समय पुत्र के लिये [उसका नाम ले-लेकर] विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए।
गते तु तस्मिन्भरतो वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजै:।।33।।
नियुज्यमानो राज्याय नैच्छद्राज्यं महाबल:।
स जगाम वनं वीरो रामपादप्रसादक:।।34।।
उनके स्वर्ग गमन के उपरान्त वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्य संचालन के लिये नियुक्त किये जाने पर भी महाबलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न करके पूज्य राम को प्रसन्न करने के लिये वन को ही प्रस्थान किया।
गत्वा तु स महात्मानं रामं सत्य पराक्रमम्।
अवाचद् भ्रातरं राममार्यभावपुरस्कृत:।।35।।
त्वमेव राजा धर्मज्ञ इति रामं वचोऽब्रवीत्।
वहां पहुंचकर सद्भावनायुक्त भरतजी ने अपने बड़े भाई सत्य पराक्रमी महात्मा राम से याचना की और यों कहा- 'हे धर्मज्ञ! आप ही राजा हों।'
रामोऽपि परमोदार: सुमुख: सुमहायशा:।।36।।
नचैच्छत्पितुरादेशाद्राज्यं रामो महाबल:।।
पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुन: पुन:।।37।।
निवर्तयामास ततो भरतं भरताग्रज:।
परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली राम ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और उन भरताग्रज ने राज्य के लिये न्यास (चिह्न)- रूप में अपनी खड़ाऊं भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया।
स काममनवाप्यैव रामापादावुपस्पृशन्
नन्दिग्रामेऽकरोद्राज्यं रामागमनकाङ्क्षया।।38।।
अपनी अपूर्ण इच्छा को लेकर ही भरत ने राम के चरणों का स्पर्श किया और राम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राम में राज्य करने लगे।
गते तु भरते श्रीमान् सत्यसंधो जितेन्द्रिय:।।39।।
रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्य च।
तत्रागमनमेकाग्रो दण्डकान्प्रविवेश ह।।40।।
भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् राम ने वहां पर पुन: नागरिक जनों का आना-जाना देखकर [उनसे बचने के लिये एकाग्र भाव से दण्डकारण्य में प्रवेश किया।
प्रविश्य तु महारण्यं रामो राजीवलोचन:।
विराधं राक्षसं हत्वा शरभङ्ग ददर्श ह।।41।।
सुतीक्ष्णं चाप्यगस्त्यं च अगस्त्यभ्रातरं तथा।
उस महान् वन में पहुंचने पर कमल लोचन राम ने विराध नामक राक्षस को मारकर शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्य के भ्राता का दर्शन किया।।
अगस्त्यवचनाच्चैव जग्राहैन्द्रं शरासनम्।।42।।
खड्गं च परमप्रीतस्तूणी चाक्षयसायकौ।
फिर अगस्त्य मुनि के कहने से उन्होंने ऐन्द्र धनुष, एक खड्ग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये।
वसतस्तस्य रामस्य वने वनचरै: सह।।43।।
ऋषयोऽभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम्।
एक दिन वन में वनचरों के साथ रहने वाले श्रीराम के पास असुर तथा राक्षसों के वध के लिये निवेदन करने को वहां के सभी ऋषि आये।
स तेषां प्रतिशुश्राव राक्षसानां तदा वने।।44।।
प्रतिज्ञातश्च रामेण वधः संयति रक्षसाम्।
ऋषीणामग्निकल्पानां दण्ड कारण्यवासिनाम्।।45।।
उस समय राम ने दण्डकारण्यवासी अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया और संग्राम में उनके वध की प्रतिज्ञा की।
तेन तत्रैव वसता जनस्थाननिवासिनी।
विरूपिता शूर्पणखा राक्षसी कामरूपिणी।।46।।
वहां ही रहते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप बनाने वाली जनस्थान निवासिनी शूर्पणखा नाम की राक्षसी को [लक्ष्मण के द्वारा उसकी नाक कटाकर] कुरूप करा दिया।
तत: शूर्पणखावाक्यादुद्युक्तान्सर्वराक्षसान्।
खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्।।47।।
निजघान रणे रामस्तेषां चैव पदानुगान्।
तब शूर्पणखा के कहने से चढ़ाई करने वाले सभी राक्षसों को और खर, दूषण, त्रिशिरा तथा उनके पृष्ठ पोषक असुरों को राम ने युद्ध में मार डाला।
वने तस्मिन्निवसता जनस्थाननिवासिनाम्।।48।।
रक्षसां निहतान्यासन्सहस्राणि चतुर्दश।
उस वन में निवास करते हुए उन्होंने जनस्थानवासी चौदह हजार राक्षसों का वध किया।
ततो ज्ञातिवधं श्रुत्वा रावण: क्रोधमूर्च्छित:।।49।।
सहायं वरयामास मारीचं नाम राक्षसम्।
तदनन्तर अपने कुटुम्ब का वध सुनकर रावण नाम का राक्षस क्रोध से मूर्च्छित हो उठा और उसने मारीच राक्षस से सहायता मांगी।।
वार्यमाण: सुबहुशो मारीचेन स रावण:।।50।।
न विरोधो बलवता क्षमो रावण तेन ते।
यद्यपि मारीच ने यह कहकर कि 'हे रावण! उस बलवान् राम के साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है' रावण को अनेकों बार मना किया।
अनादृत्य तु तद्वाक्यं रावण: कालचोदित:।।51।।
जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपदं तदा।
परंतु काल की प्रेरणा से रावण ने मारीच के वाक्यों को टाल दिया और उसके साथ ही राम के आश्रम पर गया।
तेन मायाविना दूरमपवाह्य नृपात्मजौ।।52।।
जहार भार्यां रामस्य गृध्रं हत्वा जटायुषम्।
मायावी मारीच के द्वारा उसने दोनों राजकुमारों को आश्रम से दूर हटा दिया और स्वयं राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, [जाते समय मार्ग में विघ्न डालने के कारण] उसने जटायु नामक गृध्र का वध किया।
गृध्रं च निहतं दृष्ट्वा हृतां श्रुत्वा च मैथिलीम्।।53।।
राघव: शोकसन्तप्तो विललापाकुलेन्द्रिय:।
तत्पश्चात् जटायु को आहत देखकर और (उसी के मुख से) सीता का हरण सुनकर रामचन्द्रजी शोक से पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थीं।
ततस्तेनैव शोकेन गृध्रं दग्ध्वा जटायुषम्।।54।।
मार्गमाणो वने सीतां राक्षसं संददर्श ह।
कबन्धं नाम रूपेण विकृतं घोरदर्शनम्।।55।।
तं निहत्य महाबाहुर्ददाह स्वर्गतश्च स:।
फिर उसी शोक में पड़े हुए उन्होंने जटायु गृध्र का अग्नि-संस्कार किया और वन में सीता को ढूंढ़ते हुए कबन्ध नामक राक्षस को देखा, जो शरीर से विकृत तथा भयंकर दिखने वाला था। महाबाहु राम ने उसे मारकर उस का भी दाह किया, अत: वह स्वर्ग को चला गया।
स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम्।।56।।
श्रमणां धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव।
जाते समय उसने राम से धर्मचारिणी शबरी का पता बतलाया और कहा- हे रघुनन्दन! आप धर्म परायणा संन्यासिनी शबरी के आश्रम पर जाइये।
सोऽभ्यगच्छन्महातेजा: शबरीं शत्रुसूदन:।।57।।
शबर्या पूजित: सम्यग्रामो दशरथात्मज:।
शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम शबरी के यहां गये, उसने इनका भलीभांति पूजन किया।
पम्पातीरे हनुमता सङ्गतो वानरेण ह।।58।।
हनुमद्वचनाच्चैव सुग्रीवेण समागत:।
फिर वे पम्पासर के तट पर हनुमान् नामक वानर से मिले और उन्हीं के कहने से सुग्रीव से भी मेल किया।
सुग्रीवाय च तत्सर्वं शंसद्रामो महाबल:।।59।।
आदितस्तद्यथावृत्तं सीतायाश्च विशेषत:।
तदनन्तर महाबलवान् राम ने आदि से ही लेकर जो कुछ हुआ था वह और विशेषत: सीता का वृत्तान्त सुग्रीव से कह सुनाया।
सुग्रीवश्चापि तत्सर्वं श्रुत्वा रामस्य वानर:।।60।।
चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्निसाक्षिकम्।
वानर सुग्रीव ने राम की सारी बातें सुनकर उन के साथ प्रेमपूर्वक अग्नि को साक्षी बनाकर मित्रता की।
ततो वानरराजेन वैरानुकथनं प्रति।।61।।
रामायावेदितं सर्वं प्रणयाद् दु:खितेन च।
उसके बाद वानरराज सुग्रीव ने स्नेहवश बाली के साथ वैर होने की सारी बातें राम से दु:खी होकर बतलाईं।
प्रतिज्ञातं च रामेण तदा बालिवधं प्रति।।62
बालिनश्च बलं तत्र कथयामास वानर:।
सुग्रीव: शंकितश्चासीन्नित्यं वीर्येण राघवे।।63।।
उस समय राम ने बाली को मारने की प्रतिज्ञा की, तब सुग्रीव ने वहां बाली के बल का वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीव को राम के बल के विषय में शंका बराबर बनी रहती थी।।
राघवप्रत्ययार्थं तु दुन्दुभे: कायमुत्तमम्।
दर्शयामास सुग्रीवो महापर्वतसन्निभम्।।64।।
राम की प्रतीति के लिये उन्होंने दुन्दुभि दैत्य का महान् पर्वताकार दुन्दुभि दैत्य का शरीर दिखलाया।
उत्स्मयित्वा महाबाहु: प्रेक्ष्य चास्थि महाबल:।
पादाङ्गुष्ठेन चिक्षेप सम्पूर्ण दशयोजनम्।।65।।
महाबली राम ने तनिक मुसकराकर उस अस्थि समूह को देखा और पैर के अंगूठे से उसे दस योजन दूर फेंक दिया।
बिभेद च पुनस्तालान्सप्तैकेन महेषुणा।
गिरिं रसातलं चैव जनयन्प्रत्ययं तदा।।66।।
फिर एक ही महान् बाण से उन्होंने अपना विश्वास दिलाते हुए सात ताल वृक्षों को और पर्वत तथा रसातल को बींध डाला।
तत: प्रीतमनास्तेन विश्वस्त: स महाकपि:।
किष्किन्धां रामसहितो जगाम च गुहां तदा।।67।।
तदनन्तर राम के इस कार्य से महाकपि सुग्रीव मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें राम पर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुफा में गये।
ततोऽगर्जद्धरिवर: सुग्रीवो हेमपिङ्गल:।
तेन नादेन महता निर्जगाम हरीश्वर:।।68।।
अनुमान्य तदा तारां सुग्रीवेण समागत:।
निजघान च तत्रैनं शरेणैकेन राघव:।।69।।
और वहां पर सुवर्ण के समान पिंगल वर्ण वाले वीरवर सुग्रीव ने गर्जना की, उस महानाद को सुनकर वानरराज बाली अपनी पत्नी तारा को आश्वासन देकर तत्काल घर से बाहर निकला और सुग्रीव से भिड़ गया। वहां राम ने बाली को एक ही बाण से मार गिराया।
तत: सुग्रीववचनाद्धत्वा बालिनमाहवे।
सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघव: प्रत्यपादयत्।।70।।
सुग्रीव के कथनानुसार उस संग्राम में बाली को मारकर उसके राज्य पर राम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया।
स च सर्वान्समानीय वानरान्वानरर्षभ:।
दिश: प्रस्थापयामास दिदृक्षुर्जनकात्मजाम्।।71।।
तब उन वानरराज ने भी सभी वानरों को बुलाकर जानकी का पता लगाने के लिये उन्हें चारों दिशाओं में भेजा।
ततो गृध्रस्य वचनात्सम्पातेर्हनुमान्बली।
शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवे लवणार्णवम्।।72।।
तत्पश्चात् सम्पाति नामक गृध्र के कहने से बलवान् हनुमान् जी सौ योजन विस्तार वाले क्षार समुद्र को कूदकर लांघ गये।
तत्र लङ्कां समासाद्य पुरीं रावणपालिताम्।
ददर्श सीतां ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम्।।73।।
और वहां रावणपालित लंकापुरी में पहुंचकर उन्होंने अशोक वाटिका में सीता को चिन्तामग्न देखा।
निवेदयित्वाभिज्ञानं प्रवृत्तिं विनिवेद्य च।
समाश्वास्य च वैदेहीं मर्दयामास तोरणम्।।74।।
तब उन विदेहनन्दिनी को अपनी पहचान देकर राम का संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का द्वार तोड़ डाला।
पञ्च सेनाग्रगान्हत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि।
शूरमक्षं च निष्पिष्य ग्रहणं समुपागमत्।।75।।
फिर पांच सेनापतियों और सात मन्त्रिकुमारों की हत्या कर वीर अक्षकुमार का भी कचूमर निकाला, इसके बाद [जान-बूझकर] पकड़े गये।
अस्त्रेणोन्मुक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाद्वरात्।
मर्षयन्राक्षसान् वीरो यन्त्रिणस्तान्यदृच्छया।।76।।
ब्रह्माजी के वरदान से अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान् जी ने अपने को बांधने वाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया।
ततो दग्ध्वा पुरीं लङ्कामृते सीतां च मैथिलीम्।
रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपि:।।77।।
तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीता के [स्थान के] अतिरिक्त समस्त लंका को जलाकर वे महाकपि राम को प्रिय संदेश सुनाने के लिये लंका से लौट आये।
सोऽभिगम्य महात्मानं कृत्वा रामं प्रदक्षिणम्।
न्यवेदयदमेयात्मा दृष्टा सीतेति तत्त्वत:।।78।।
अपरिमित बुद्धिशाली हनुमान् जी ने वहां जा महात्मा राम की प्रदक्षिणा करके यों सत्य निवेदन किया- 'मैंने सीताजी का दर्शन किया है।'
तत: सुग्रीवसहितो गत्वा तीरं महोदधे:।।
समुद्रं क्षोभयामास शरैरादित्यसन्निभै:।।79।।
इसके अनन्तर सुग्रीव के साथ भगवान् राम ने महासागर के तट पर जाकर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया।
दर्शयामास चात्मानं समुद्र: सरितां पति:।
समुद्रवचनाच्चैव नलं सेतुम कारयत्।।80।।
तब नदीपति समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से राम ने नल से पुल निर्माण कराया।
तेन गत्वा पुरीं लङ्कां हत्वा रावणमाहवे।
राम: सीतामनुप्राप्य परां व्रीडामुपागमत्।।81।।
और उसी पुल से लंकापुरी में जाकर रावण को मारा। फिर सीता के मिलने पर राम को बड़ी लज्जा हुई।
तामुवाच ततो राम: परुषं जनसंसदि।
अमृष्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनं सती।।82।।
क्योंकि तब भरी सभा में सीता के प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बात को न सह सकने के कारण साध्वी सीता अग्नि में प्रवेश कर गयी।
ततोऽग्निवचनात्सीतां ज्ञात्वा विगतकल्मषाम्।
कर्मणा तेन महता त्रैलोक्यं सचराचरम्।।83।।
सदेवर्षिगणं तुष्टं राघवस्य महात्मन:।
इसके बाद अग्नि के कहने से उन्होंने सीता को निष्कलंक माना। महात्मा रामचन्द्रजी के इस महान् कर्म से देवता और ऋषियों सहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया।
बभौ राम: सम्प्रहृष्ट: पूजित: सर्वदैवतैः।।84।।
अभिषिच्य च लङ्कायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम्।
कृतकृत्यस्तदा रामो विज्वर: प्रमुमोद ह।।85।।
फिर सभी देवताओं से पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषण को लंका के राज्य पर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये, उस समय निश्चिन्त होने के कारण उनके आनन्द का ठिकाना न रहा।
देवताभ्यो वरं प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान्।
अयोध्यां प्रस्थितो राम: पुष्प केण सुहृवृत:।।86।।
यह सब हो जाने पर राम देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने मित्रों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए।
भरद्वाजाश्रमं गत्वा राम: सत्य पराक्रम:।
भरतस्यान्तिके रामो हनूमन्तं व्यसर्जयत्।।87।।