धरती के वजन से 10 गुना ज्यादा इस धरती ने जल को वहन कर रखा है। धरती पर लगभग 75 प्रतिशत से अधिक जल है। इस अथाह जलराशि को समुद्र कहते हैं। समुद्र को सागर, पयोधि, उदधि, पारावार, नदीश, जलधि, सिंधु, रत्नाकर, वारिधि आदि नामों से भी पुकारा जाता है। अंग्रेजी में इसे सी (sea) कहते और महासागर को ओशन (ocean) कहते हैं। भारत के 3 ओर समुद्र है। आंध्रप्रदेश, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, गोवा, गुजरात, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, पुडुचेरी, दमन और दीव तथा लक्षद्वीप समूह भारत के समुद्र तटवर्ती राज्य हैं।
1. महासागर : पृथ्वी का वह भाग, जो विशाल जलराशि (लवणीय जल) से घिरा हुआ है, महासागर कहलाता है। प्रशांत महासागर, अटलांटिक महासागर, हिन्द महासागर, आर्कटिक महासागर तथा दक्षिणी महासागर कुल 5 महासागर हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर 7 महासागर या 7 समंदर हैं।
2. सागर : लवणीय जल का वह बड़ा क्षेत्र, जो महासागर से जुड़ा हुआ हो, 'सागर' कहलाता है। कैस्पियन सागर सागर, मृत सागर, लाल सागर, उत्तर सागर, लापतेव सागर, भूमध्य सागर आदि अनेक।
3. गल्फ : जल का वह भाग, जो तीन तरफ स्थल भाग से घिरा हुआ हो, उसे 'गल्फ' कहते हैं। गल्फ व खाड़ी लगभग समानार्थी शब्द हैं। अरब की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी का नाम ज्यादा प्रसिद्ध है।
अग्ले पन्ने पर जानिए हिन्दू शास्त्रों अनुसार समुद्र या सागर के बारे में..
हिन्दू शास्त्रों में समुद्र को 7 भागों में बांटा गया है- लवण का सागर, इक्षुरस का सागर, सुरा का सागर, घृत का सागर, दधि का सागर, क्षीर का सागर और मीठे जल का सागर। सूरा या दधि सागर का अर्थ यह नहीं की दही या सूरा का सागर। दरअसल यह उनके जैसा दिखने वाला सागर होता है। आनने सागरे देखें होंगे तो आपको इसका अंजादा होगा।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में समुद्र का वर्णन कई बार सुनने को मिलता है। समुद्र मंथन की कहानी बहुत प्रचलित है। देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था और उसमें से 14 प्रकार के रत्न निकले थे। उससे पहले वराह कल्प की शुरुआत में भगवान वराह ने धरती पर से समुद्र का जल हटाकर धरती को रहने लायक जगह बनाई थी।
दूसरी ओर हम सुनते और पौराणिक साहित्य में पढ़ते आए हैं कि समुद्र में जलपरियां होती हैं, हाथी और घोड़े भी होते हैं। शेषनाग भी समुद्र में ही रहता है। समुद्र में कहीं पर एक नागलोक भी हैं, जहां आधे मानव रूप में नाग रहते हैं। यह भी सुना है कि समुद्र में ही 7 पाताल लोक भी हैं।
कितने हैं समुद्र?
हिन्दू धर्मानुसरा पहले एक ही समुद्र था, फिर 3 हो गए और फिर 7 हो गए और अब कई हैं। हिन्दू धर्मानुसार प्रत्येक कल्प में धरती की स्थिति और प्रकृति अलग अलग थी। वैस पुराणों में 30 कल्पों का जिक्र मिलता है, लेकिन प्रमुख रूप से पांच कल्प माने गए हैं। जो महत कल्प, हिरण्य कल्प, ब्रह्म कल्प, पद्म कल्प और वराह कल्प है।
महत् कल्प में काल के बाद प्रलय हुई थी तो सभी कुछ नष्ट हो गया। लेकिन पुराणकार मानते हैं कि इस कल्प में विचित्र-विचित्र और महत् (अंधकार से उत्पन्न) वाले प्राणी और मनुष्य होते थे। संभवत: उनकी आंखें नहीं होती थीं। हिरण्य गर्भ कल्प कल्प में धरती का रंग पीला था इसीलिए इसे हिरण्य कहते हैं। हिरण्य के 2 अर्थ होते हैं- एक जल और दूसरा स्वर्ण। माना जाता है कि तब स्वर्ण के भंडार बिखरे पड़े थे।
ब्रह्मकल्प में मनुष्य जाति सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) की ही उपासक थी। क्रम विकास के तहत प्राणियों में विचित्रताओं और सुंदरताओं का जन्म हो चुका था। इस काल का ऐतिहासिक विवरण हमें ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है। पद्मकल्प में 16 समुद्र थे। पुराणकारों अनुसार यह कल्प नागवंशियों का था। धरती पर जल की अधिकता थी और नाग प्रजातियों की संख्या भी अधिक थी। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) व किरात जातियां थीं और कमल पत्र पुष्पों का बहुविध प्रयोग होता था। सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की नारियां पद्मिनी प्रजाएं थीं। तब के श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति आज के श्रीलंका जैसी नहीं थी। इस कल्प का विवरण हमें पद्म पुराण में विस्तार से मिल सकता है।
वराहकल्प : वर्तमान में चल रहे वराह कल्प में धरती जल में ही डूब गई थी। धरती पर से जल हटाने के लिए इस कल्प में विष्णु ने वराह रूप में 3 अवतार लिए- पहला नील वराह, दूसरा आदि वराह और तीसरा श्वेत वराह। इस कल्प में भगवान वराह और ऋषि मुनियों के अथक प्रयास से सात समुद्र हो गए।
जम्बू द्वीप के समुद्र : पृथ्वी के मध्य में जम्बू द्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन का बतलाया गया है। जम्बू द्वीप की आकृति सूर्यमंडल के सामान है। वह उतने ही बड़े खारे पानी के समुद्र से घिरा है। जम्बू द्वीप और क्षार समुद्र के बाद शाक द्वीप है, जिसका विस्तार जम्बू द्वीप से दोगुना है। वह अपने ही बराबर प्रमाण वाले क्षीर समुद्र से, उसके बाद उससे दोगुना बड़ा पुष्कर द्वीप है, जो दैत्यों को मदोन्मत्त कर देने वाले उतने ही बड़े सुरा समान समुद्र से घिरा हुआ है।
जम्बूद्वीप चित्र साभार यूट्यूब
उससे परे कुश द्वीप की स्थिति मानी गई है, जो अपने से पहले द्वीप की अपेक्षा दोगुना विस्तार वाला है। कुश द्वीप को उतने ही बड़े विस्तार वाले दही समान के समुद्र ने घेर रखा है। उसके बाद क्रोंच नामक द्वीप है; जिसका विस्तार कुश द्वीप से दोगुना है, यह अपने ही सामान विस्तार वाले घी समान समुद्र से घिरा है। इसके बाद दोगुना विस्तार वाला शाल्मलि द्वीप है; जो इतने ही बड़े ईख रस समान समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाद उससे दोगुने विस्तार वाले गोमेद (प्लक्ष) नामक द्वीप है; जिसे उतने ही बड़े रमणीय स्वादिष्ट जल के समुद्र ने घेर रखा है।
जम्बू द्वीप के मध्यभाग में मेरु पर्वत है, यह ऊपर से नीचे तक एक लाख योजन ऊंचा है। सोलह हजार योजन तो यह पृथ्वी के नीचे तक गया हुआ है और चौरासी हजार योजन पृथ्वी से ऊपर उसकी ऊंचाई है। मेरु के शिखर का विस्तार बत्तीस हजार योजन है। उसकी आकृति प्याले के सामान है। वह पर्वत तीन शिखरों से युक्त है, उसके मध्य शिखर पर ब्रह्माजी का निवास है, ईशान कोण में जो शिखर है, उस पर शंकरजी का स्थान है तथा नैऋत्य कोण के शिखर पर भगवान विष्णु की स्तिथि है।
मेरु पर्वत के चारों ओर चार विष्कम्भ पर्वत माने गए हैं। पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में सुपार्श्व तथा उत्तर में कुमुद नामक पर्वत है। इनके चार वन हैं जो पर्वतों के शिखर पर ही स्थित हैं। पूर्व में नंदन वन, दक्षिण में चैत्र रथ वन, पश्चिम में वैभ्राज वन और उत्तर में सर्वतोभद्र वन है। इन्हीं चरों में चार सरोवर भी हैं। पूर्व में अरुणोद सरोवर, दक्षिण में मान सरोवर, पश्चिम में शीतोद सरोवर तथा उत्तर में महाह्रद सरोवर है। ये विष्कम्भ पर्वत पच्चीस पच्चीस हजार योजन ऊचे हैं। इनकी चोड़ाई भी हजार हजार योजन मानी गई है। मेरुगिरी के दक्षिण में निषध, हेमकूट और हिमवान- ये तीन मर्यादा पर्वत हैं। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई दो हजार योजन मानी गई है। मेरु के उत्तर में भी तीन मर्यादा पर्वत हैं- नील, श्वेत और श्रंग्वान। मेरु से पूर्व माल्यवान पर्वत है और मेरु के पश्चिम में गंधमादन पर्वत है। ये सभी पर्वत जम्बू द्वीप पर चारों ओर फैले हुए हैं। गंधमादन पर्वत पर जो जम्बू का वृक्ष है, उसके फल बड़े बड़े हाथियों के समान होते हैं। उस जम्बू के ही नाम पर इस द्वीप को जम्बू द्वीप कहते हैं।
संदर्भ : हिन्दू ग्रंथ विष्णु पुराण, जैन ग्रंथ 'जंबूद्वीप्प्रज्ञप्ति'
समुद्र और प्राचीन भारतीय : भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। प्राचीन भारतीर लोगों ने समुद्र में यात्रा करने के लिए सर्वप्रतम नौका का निर्माण किया था। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। भारत में नौवहन की कला और नौवहन का जन्म 6,000 वर्ष पहले सिंध नदी में हुआ था। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उदग्म संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्कृत शब्द नवगति से उत्पन्न हुआ है। शब्द नौसेना भी संस्कृत शब्द नोउ से हुआ।
हिन्दू ग्रन्थों में अदिति के पुत्र वरुण देव को समुद्र का देवता माना गया है। ऋगवेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं। ऋग्वेद में नौका द्वारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख मिलते हैं। एक सौ नाविकों द्वारा बड़े जहाज को खेने का उल्लेख भी मिलता है। ऋगवेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ साथ भारत के दोनों महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर कहा जाता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तरित तथा आरामदायक भी थीं।
ऋगवेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इस के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्त्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोड़ों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।
संस्कृत ग्रंथ ‘युक्तिकल्पत्रु’ में नौका निर्माण का ज्ञान है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रंथ में नौका निर्माण की विस्तरित जानकारी है जैसे किस प्रकार की लकड़ी का प्रयोग किया जाए, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो। उस को किस प्रकार सजाया जाए ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पत्रु में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियां भी निर्धारित की गई हैं।
जहाज का आविष्कार : कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1. 25. 7, 1. 48. 3, 1. 56. 2, 7. 88. 3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है।
ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में भारत अभियान से लौटते समय सिंकदर महान् के सेनापति निआर्कस (Nearchus) ने अपनी सेना को समुद्रमार्ग से स्वदेश भेजने के लिये भारतीय जहाजों का बेड़ा एकत्रित किया था। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में निर्मित सांची स्तूप के पूर्व तथा पश्चिमी द्वारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य जहाजों की प्रतिकृतियां भी हैं।
भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है। भगवान राम ने यमुना पार करने के लिए नौका का ही उपयोग किया था। भगवान श्रीकृष्ण का अपने सखा और बलराम के साथ सरस्वती नदी में नौका के माध्यम से मथुरा से द्वारिका पहुंचने का उल्लेख मिलता है।