Festival Posters

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

आत्मवान बनो: वेद

Advertiesment
हमें फॉलो करें आत्मा

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

सत्, चित्त और आनंद
शरीर, इंद्रियाँ, मन, अहंकार, अंत:करण ये सब अविद्या के कार्य हैं अर्थात भौतिक हैं और ये सब जीवात्मा को घेरे रहते हैं तथा उसे सीमित या व्यक्तिनिष्ठ जीव बनाते हैं। साक्षित्व से आत्मा शरीर और मन से उपजने वाली वस्तु और विचार से मुक्त हो जाता है। साक्षित्व ही वेदांत का मार्ग है। इसीलिए वेद और वेदांत कहते हैं कि आत्मवान बनो।
 
श्लोक : ''यदाप्नोति यदादते यच्चात्ति विषयानिह।
यच्चास्य संततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते।।-कठ उप. (शंकर भाष्य)
भावार्थ : आत्मा जगत के सरे पदार्थों में व्याप्त है (आप्नोति), सारे पदार्थों को अपने में ग्रहण कर लेता है (आदत्ते), सारे पदार्थों का अनुभव करता है (अत्ति) और इसकी सत्ता निरंतर बनी रहती है, इसलिए इसे आत्मा कहा जाता है।
 
आत्मा को चेतन, जीवात्मा, पुरुष, ब्रह्म स्वरूप, साक्षित्व आदि अनेक नामों से जाना जाता जाता है। आत्म तत्व स्वत: सिद्ध और स्वप्रकाश है। प्रत्येक मनुष्‍य को अपनी आत्मा अर्थात खुद के होने का अनुभव होता है। 
 
मैं हूँ' यह ज्ञान होना ही आत्मा के होने को स्वत: सिद्ध करता है। यह संशय या आलोचना का विषय नहीं है और न ही आप अपने 'होने' को 'नहीं होना' सिद्ध कर सकते हो क्योंकि जो सिद्ध करता है वह स्वयं आत्मा है। अर्थात स्वयं के होने का बोध ही आत्मा है और जैसे-जैसे यह बोध गहराता है वह ज्ञानी से बढ़कर आत्मवान हो जाता है।
 
साक्षीभाव : शरीर, इंद्रियाँ, मन, अहंकार, बुद्धि और अंत:करण यह सब प्रकृति के कार्य या हिस्से हैं और भौतिक हैं, नश्वर हैं। यह सब आत्मा को घेरे रहते हैं, इसी से आत्मा सीमित और व्यक्तिनिष्ठ है। इस प्रकृति तत्व के घेरे की वजह से ही द्वंद्व, दुविधा और कष्‍ट तथा भटकाव है। किंतु इसमें जो शुद्ध चैतन्य प्रकाशित हो रहा है वही आत्मा है। जो पुरुष साक्षीभाव में स्थित है तथा जिसे अपने होने का सघन बोध है, वह धीरे-धीरे आत्मज्ञान प्राप्त कर मुक्त होने लगता है।
 
प्राणवानों में श्रेष्ठ ‍बुद्धिमान होता है और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ आत्मवान होता है और जो ब्रह्म (ईश्वर) को जानने में उत्सुक है वह ब्राह्मण कहा जाता है, लेकिन जिसने ब्रह्म को जान ही लिया, उसे ब्रह्मज्ञानी कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।
 
आत्मा का स्वरूप : उपनिषदों में आत्मा के संबंध में विशद विवेचन दिया गया है। आत्मा के स्वरूप का विवेचन भी विशद है। वेदांत में आत्म चैतन्य के उत्तरोत्तर उत्कृष्ट चार स्तर निर्दिष्ट हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय या शुद्ध चैतन्य। आत्मा अपने मूल स्वरूप में शुद्ध चैतन्य है।
 
शुद्ध चैतन्य का अर्थ की उक्त स्थिति में वह न तो जाग्रत है, न स्वप्न में है और न ही सु‍षुप्ति में। तीनों ही स्थितियों से परे पूर्ण जागरण या शुद्ध चैतन्य हो जाता ही आत्मा का मूल स्वरूप है।
 
आत्मा का ज्ञान : आत्मा के संबंध में उपनिषदों में गहन गंभीर विवेचन दिया गया है। आत्मा के पदार्थ से बद्ध होने और मुक्ति होकर पुन: बद्ध होने का विवरण और उसकी पदार्थ से पूर्ण ‍मुक्ति का मार्ग भी बताया गया है। आत्मवान बनने का अर्थ है कि पदार्थ के बगैर इस अस्तित्व में स्वयं के वजूद को कायम करना। यही सनातन धर्म का लक्ष्य है। यही मोक्ष ज्ञान है।
 
कॉफीराइट वेबदुनिया

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi