द्वितीय मनु स्वारोचिष की कथा-3
हिन्दू धर्म के उत्तम पुरुष
मनु वह है जिन्होंने हिंदू धर्म को समय-समय पर व्यवस्थित किया। वेदों के ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। मानव जाति को एक नई दिशा दी। देश और समाज को सभ्य बनाया, विकसित किया और तकनीक दी। अब तक कुल 7 मनु हुए हैं। प्रस्तुत है दूसरे मनु स्वारोचिष के जन्म की कथा। सृष्टि के आदिकाल में 'स्वारोचिष' नामक द्वितीय मनु हुए थे जिनके जन्म की कथा इस प्रकार है-अरुणास्पद नगर में वरण नदी के तट पर एक ब्राह्मण रहता था। उनके मन में संपूर्ण धरती की पैदल भ्रमण करने की इच्छा जाग्रत हुई।एक दिन उनके आवास स्थान पर मंत्र और औषधियों का जानकार आया जिसने औषधियों के चमत्कार का वर्णन किया। औषधि वर्णन को सुनकर ब्राह्मण ने आदरपूर्वक कहा कि आप अपने मंत्र और औषधि से मुझ पर भी ऐसी कृपा करें, क्योंकि मेरे हृदय में पृथ्वी भ्रमण की अभिलाषा है।यह सुनकर औषधि और मंत्र के जानकार उस अतिथि ने ब्राह्मण को एक पादलेप औषधि दी और उसने जिन दिशा में भ्रमण को कहा, उस दिशा को अभिमंत्रित भी कर दिया और ब्राह्मण देव उस दिशा में भ्रमण को निकल पड़े। यह पादलेप लगाकर वह ब्राह्मण पैदल चलते हुए हिमालय पहुंच गए।हिमालय पर उनके पैरों के दबाव से बर्फ पिघलने लगी, जिससे दिव्य औषधि से बनाया गया उनका पादलेप धुल गया। इस कारण उनकी चाल-ढाल ढिली पड़ गई और वे स्वयं को थका हुआ भी महसूस करने लगे। वे घर से बहुत दूर निकल आए थे और अब घर लौटने की चिंता सताने लगी, लेकिन पादलेप धुल चुका था, क्योंकि उसीके बल पर वह मिलों की दूरी कुछ ही समय में पैदल तय कर लेते थे।उन्होंने सोचा कि अब यहां रुकने का कोई अर्थ नहीं। रुकने से धर्म-कर्मानुष्ठान की हानी हो जाएगी और इस हिम क्षेत्र में अग्निहोत्र कर्म भी नहीं हो सकता। यह सोच-विचार कर वह ब्राह्मण हिमालय पर चक्कर लगाने लगे। उसी समय एक दिव्य अप्सरा जिसका नाम 'वरूथिनी' था, ने उन्हें देख लिया। ब्राह्मण को देखते ही उस अप्सरा के मन में अनुराग उत्पन्न हो गया। उधर उस ब्राह्मण ने जब वरूथिनी को देखा तो उसके पास आकर कहने लगे, तू कौन है और यहां क्या कर रही है? यदि तुम यहां की जानकार तो मुझे उपाय बताओ कि मैं कैसे यहां से निकलकर अपने घर चला जाऊं। किसी भी प्रकार से तुम मुझे इस हिमालय से निकालो, मैं तुम्हारा ऋणि रहूंगा।वरूथिनी बोली- हे ब्राह्मण देव में मौलीकुमार हूं, मेरा नाम वरूथिनी है। मैं तो आपके दर्शन मात्र से कामातुर हो चुकी हूं। आप यहां जब मेरे साथ रहेंगे तो माल्य, परिधान, भोज्यपदार्थ, कुटी आदि सभी की व्यवस्था कर दूंगी। यह क्षेत्र बहुत ही सुंदर और रमणीय है। यह भूमि देवभूमि है यहां रहने से यौवनकाल की अवधि बढ़ जाती है। ऐसा कहकर वरूथिनी ने 'कृपा करें, कृपा करें' कहते हुए ब्राह्मण को आलिंगन बद्ध कर लिया।...शेष अगले पन्ने पर।
ब्राह्मण ने कहा कि वरूथिनी यदि तुम मुझे सचमुच प्रेम करती हो तो मुझे यह उपाय बताओ की मैं यहां से निकल कर अपने घर कैसे पहुंच जाऊं। लेकिन वरूथिनी ने कहा कि भगवन आप विश्वास रखें आप यहां से अपने घर अवश्य वापस चले जाएंगे, लेकिन कुछ दिनों तक आप मेरे साथ रहकर विषयभोगों का आनंद लें। लेकिन ब्राह्मण ने कहा कि एक द्विज के लिए यह सब क्लेशकारक है। मैं ऐसा नहीं कर सकता।
तब वरूथिनी ने प्रार्थना की और कहा की मैं आपके बगैर मर जाऊंगी आप मुझे जीवनदान दें। लेकिन ब्राह्मण देव किसी भी तरह से नहीं माने और वह खुद ही वहां से रास्ता ढूंढने चले गए और फिर अपने घर पहुंच गए।
एक गांधर्व था जिसका नाम 'कलि' था जो उसी देवभूमि पर रहता था। वह वरूथिनी को बहुत चाहता था, लेकिन वरूथिनी ने उसके प्रस्ताव को कई बार ठुकरा दिया था। कलि ने वरूथिनी को उदास और दीन-हीन देखा तो सोच- न मालूम वरूथिनी किस मुनि के शाप से ऐसी मुरझा सी गई है। फिर उसने अपनी योग माया से जान लिया की वरूथिनी का यह हाल किसी ब्राह्मण देव के कारण है तो कलि के मन में वरूथिनी को प्राप्त करने की युक्ति सुझी और वह ब्राह्मण का भेषधरकर वरूथिनी के पास पहुंच गया। वरूथिनी ने उसे देखकर कहा 'कृपा करो ब्राह्मण देव, कृपा करो और वह पुन: आलिंगनबद्ध हो गई।
ब्राह्मण भेषरूप गांधर्व ने कहा कि क्या करू यहां रहने से मेरे ब्राह्मण कर्म और अनुष्ठान की हानि होती है, लेकिन तू ऐसी बात कह रही है तो मैं तो धर्मसंकट में फंस गया हूं। अब मैं जैसा कहता हूं वैसा करो तभी हमारा प्रेम मिलन हो पाएगा। वरूथिनी ने कहा- तुम मुझ पर कृपा करो। तुम जो कहोगे वैसा ही मैं करूंगी। मैं तुम्हारे वश में ही रहूंगी।
क्षद्म गांधर्व ने उसके साथ रहना शुरू किया और समय बीतने पर वरूथिनी गर्भवती हो गई। वरूथिनी के गर्भ से एक पुत्र ने जन्म लिया जो सूर्यके समान देदीप्यमान था। इसीलिए वह 'स्वरोचिष' नाम से प्रसिद्ध हुआ।
स्वरोचिष ने विद्याधर इंदीवर की कन्या मनोरमा के साथ विवाह किया। उसके बाद वह अपनी धर्म पत्नी मनोरमा के साथ उस उद्यान में गया, जहां उसकी दोनों सखियां कलावती और विभावरी- जो पहले सुंदर कन्या थी, लेकिन मुनी शाप से कुष्ठ और क्षय से पीड़ित पड़ी थी। आयुर्वेद और चमत्कारिक चमत्कारिक औषधि के जानकार 'स्वरोचिष' ने दोनों कन्याओं को उक्त रोग से मुक्त कर निरोगी बना दिया। तब उन दोनों ने प्रसंन्नता पूर्वक 'स्वरोचिष' को समर्पित कर दिया तथा पद्मिनी विद्या और भूतप्राणियों की बोली बोलने तथा समझने की शक्ति प्रदान की। दोनों से उन्हें तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
कुछ समय बाद धनुर्धर स्वरोचिष वन में विहार करने गए जहां एक मृगी ने उन्हें आलिंगनबद्ध करने के लिए निवेदन किया। आलिंगन करते ही वह मृगी देवांगना में बदल कर कहने लगी देवताओं ने मुझे आपनी स्त्री रूप में नियुक्त किया है। आप मुझसे एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करें जो भूर्लोक का स्वामी हो।
तदनंतर उस देवांगना के गर्भ से एक दिव्य पुत्र उत्पन्न हुआ। स्वरोचिष का पुत्र होने से उसका नाम स्वारोचिष मनु नाम रखा गया। इनका समय ही स्वारोचिष मन्वन्तर कहलाता है, जो द्वितीय मन्वन्तर है। स्वारोचिष मनु के कुल नौ पुत्र थे। स्वारोचिष मनुके किम्पुरुष आदि पुत्र उन दिनों भूमण्डल के राजा थे।
स्वारोचिष मनु के उस समय के देवता 'पारावत' और 'तुषित' नाम से प्रसिद्ध थे। ऊर्जस्तम्ब, सुप्राण, दन्त, निऋषभ, वरीयान्, ईश्वर और सोम- ये उस मन्वन्तरमें सप्तर्षि थे।