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भारतीय इतिहास के 10 झूठ जिन्होंने समाज को तोड़ा...

हमें फॉलो करें भारतीय इतिहास के 10 झूठ जिन्होंने समाज को तोड़ा...
हम यहां इस झूठ की बात नहीं करेंगे:- यूरोपवासी आर्यवंशी, भारत की सभ्यता सर्वाधिक प्राचीन नहीं, भारत के आदि मानव जंगली और मांसाहारी थे, भारत में ऐतिहासिक सामग्री का अभाव, भारत के राजवंशों के वर्णन अतिरंजित है, यूनानियों का सेंड्रोकोट्टस ही चन्द्रगुप्त मौर्य है, भारतीय काल-गणना अतिरंजित और अवैज्ञानिक, भारत कभी एक राष्ट्र के रूप में रहा ही नहीं, अंग्रेजों ने ही एकछत्र शासन किया।
चित्र : सारंग क्षीरसागर

भारतीय इतिहास के ऐसे कई रहस्य अभी उजागर होना अभी बाकी हैं, जो इतिहास में नहीं पढ़ाए जाते या कि जिनके बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। दरअसल, भारत के इतिहास को फिर से लिखे जाने की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में पाठ्यपुस्तकों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह या तो अधूरा है या वह सत्य से बहुत दूर है। यह भी कहा जा सकता है कि वह एकतरफा लिखा गया इतिहास है। दरअसल, इतिहास जैसा है उसे वैसा ही प्रकट किया जाना चाहिए। यहां हम यह नहीं कह रहे हैं कि हम जो बता रहे हैं वह सत्य है या कि हम एक झूठ को स्थापित करने का कार्य कर रहे हैं। यहां सिर्फ सवाल उठाए जा रहे हैं जिनके उत्तर कभी संस्तुष्ट करने वाले नहीं रहे।
 
जिस देश के लोग अपने इतिहास को अच्छे से नहीं जानते या जिस देश के लोग अपने इतिहास को लेकर भ्रम की स्थिति में रहते हैं उनमें कभी भी अपने देश के प्रति वैसे भक्ति नहीं रहेगी, जैसी होना चाहिए। उस देश में मतभेद इस स्तर पर बढ़ते हैं कि वे मनभेद और हिंसा तक फैल जाते हैं। जिस राजनीतिज्ञ को अपने देश के समाज और इतिहास की अच्छे से जानकारी नहीं होगी तो स्वाभाविक रूप से ही वह समाज में प्रचलित धारणा या अफवाह को ही सच मानकर कार्य करेगा जिससे समाज में असंतोष ही फैलेगा।
 
हालांकि यहां लिखी गई बातें सत्य ही हो यह जरूरी नहीं, लेकिन इस पर खुले दिमाग से और सभी साक्ष्य और स्रोत के साथ विचार-विमर्श किया जाए तो निश्चित ही कम से कम यह समझ तो बढ़ेगी ही कि सबसे जरूरी है वह भारतीयता जो सदियों से चली आ रही परंपरा की पोषक है। हम किसी भी धर्म, जाति या समाज के हों लेकिन हम भारतीय हैं यह तो तय है और जो हिस्सा भारत से अलग हो गया वह भी सदियों से भारतीय थे और हैं, यह भी तय है। वे भले ही अपने पूर्वजों के इतिहास को नष्ट करके एक नए सिद्धांत को गढ़ लें लेकिन इससे वे भी ज्यादा समय तक जिंदा रहेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। स्थानीय इतिहास को नष्ट करने वाले उन विचारधारा और लोगों के गुलाम होते हैं जो उन पर लादी जाती रही है। अंतत: गुलाम बनाने वाले वे लोग गुलामों के इतिहास के साथ गुलामों को भी नष्ट करने के उपाय खोज ही लेते हैं।
 
भारत पिछले सैंकड़ों सालों से गुलाम और दीनहीन रहा इसके बारे में अब लोग जानना नहीं चाहते कि गुलामी के काल में क्या क्या हुआ जिसके परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं। यह सही है कि अतीत के बुरे वक्त को भुलकर नए भविष्य को गढ़ना चाहिए लेकिन यह भी उतना ही सही है कि जो लोग अतीत से सीख नहीं लेते वह अपना भविष्य बिगाड़ लेते हैं। वर्तमान को जानकर लगता है कि हमने अतीत से सीख नहीं ली। खैर...
 
आओ जानते हैं इतिहास पहला झूठ...

वास्को डी गामा ने भारत की खोज की?
गोवा में एक जगह है जिसे वास्को डी गामा के नाम से जाना जाता है। सचमुच भारत खोया हुआ था और जिसके बारे में दुनिया कुछ नहीं जानती थी। क्या वास्को डी गामा के पहले भारत में कोई विदेशी नहीं आया था? और क्या भारत कोई ऐसी चीज है जिसे खोजा जाए? हजारों वर्ग किलोमीटर के भू भाग को वास्को डी गामा ने खोज लिया। क्या आपको यह हास्यापद नहीं लगता? यह ऐसा ही है कि आप अपने पड़ोसी के घर को खोज लें और दुनिया में इतिहास प्रसिद्ध हो जाएं।
 
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हालांकि आजकल पढ़ाया जाता है कि भारत के समुद्री मार्ग की वास्को डी गामा ने खोज की थी। सचमुच यह हद दर्जे की मूर्खता है कि भारतीय बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है कि वास्को डी गामा ने भारत की खोज की। पढ़ाया यह जाना चाहिए कि वास्को डी गामा ने योरप को पहली बार भारत तक पहुंचने का समुद्री मार्ग बताया। दरअसल, पहले यूरोपी देशों के लिए भारत एक पहेली जैसा था। यूरोप अरब के देशों से मसाले, मिर्च आदि खरीदता था लेकिन अरब देश के कारोबारी उसे यह नहीं बताते थे कि यह मसाले वह पैदा किस जगह करते हैं। यूरोपीय इस बात को समझ चुके थे कि अरब कारोबारी उनसे जरूर कुछ छुपा रहे हैं।
 
ये कारोबारी अरब के उस पार पूर्वी देशों से ज्यादा परिचित नहीं थे। जहां तक सवाल भारत का है तो इसके एक ओर हिमालय की ऐसी श्रंखलाएं हैं जिसे पार करना उस दौर में असंभव ही था। भारत के दूसरी ओर तीन ओर से भारत को समुद्र ने घेर रखा था। ऐसे में यूरोप वासियों के लिए भारत पहुंचने के तीन रास्ते थे। पहला रशिया पार करके चीन होते हुए बर्मा में पहुंचकर भारत में आना जोकि अनुमान से कहीं ज्यादा लंबा ओर जोखिम भरा था। दूसरा रास्ता था अरब और ईरान को पार करके भारत पहुंचना। लेकिन यह रास्ता अरब के लोग इस्तेमाल करते थे और वे किसी अन्य को अंदर घुसने नहीं देते थे। तीसरा रास्ता समुद्र का था जिसमें चुनौती देने वाला सिर्फ समुद्र ही था। 
 
ऐसे में एक ऐसे देश के समुद्री मार्ग को खोज करने यूरोप के नाविक निकल पड़े जिसके बारे में सुना बहुत था लेकिन देखा नहीं। इन नाविकों में से एक का नाम क्रिस्टोफर कोलंबस था जो कि इटली के निवासी थे। भारत का समुद्री मार्ग खोजने निकले कोलंबस अटलांटिक महासागर में भम्रित हो गए और अमेरिका की तरफ पहुंच गए। कोलंबस को लगा कि अमेरिका ही भारत है। इसी कारण वहां के मूल निवासियों को रेड इंडियंस के नाम से जाना जाने लगा। कोलंबस की यात्रा के करीब 5 साल बाद पुर्तगाल के नाविक वास्को डा गामा जुलाई 1498 में भारत का समुद्री मार्ग खोजने निकले। वास्को डी गामा ने समुद्र के रास्ते कालीकट पहुंचकर यूरोपावासियों के लिये भारत पहुंचने का एक नया मार्ग खोज लिया था।
 
20 मई 1498 को वास्को डा गामा कालीकट तट पहुंचे और वहां के राजा से कारोबार के लिए हामी भरवा ली। कालीकट में 3 महीने रहने के बाद वास्को पुर्तगाल लौट गए। कालीकट अथवा 'कोलिकोड' केरल राज्य का एक नगर और पत्तन है। वर्ष 1499 में भारत की खोज की यह खबर फैलने लगी। वास्को डी गामा ने योरप के लुटेरों, शासकों और व्यापारियों के लिए एक रास्ता बना दिया था। इसके बाद भारत पर कब्जा जमाने के लिए योरप के कई व्यापारी और राजाओं ने कोशिश की और समय-समय पर वे आए और उन्होंने भारत के केरल राज्य के लोगों का धर्म बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुर्तगालियों की वजह से ब्रिटिश लोग भी यहां आने लगे। अंतत: 1615 ई. में यह क्षेत्र ब्रिटिश अधिकार में आया। 1698 ई. में यहां फ्रांसीसी बस्तियां बसीं। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच के युद्ध के काल में इस क्षेत्र की सत्ता बदलती रही।
 
1503 में वास्को पुर्तगाल लौट गए और बीस साल वहां रहने के बाद वह भारत वापस चले गए। 24 मई 1524 को वास्को डी गामा की मृत्यु हो गई। लिस्बन में वास्को के नाम का एक स्मारक है, इसी जगह से उन्होंने भारत की यात्रा शुरू की थी। दरअसल, 1492 में नाविक राजकुमार हेनरी की नीति का अनुसरण करते हुए किंग जॉन ने एक पुर्तगाली बेड़े को भारत भेजने की योजना बनाई, ताकि एशिया के लिए समुद्री मार्ग खुल सके। उनकी योजना मुसलमानों को पछाड़ने की थी, जिनका उस समय भारत और अन्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार पर एकाधिकार था। एस्टावोडिगामा को इस अभियान के नेतृत्व के लिए चुना गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वास्को द गामा ने उनका स्थान लिया। 8 जुलाई 1497 को वास्को द गामा चार जहाजों के एक बेड़े के साथ लिस्बन से निकले थे। वास्को द गामा के बेड़े के साथ तीन दुभाषिए भी थे जिसमें से दो अरबी बोलने वाले और एक कई बंटू बोलियों का जानकार था। बेड़े में वे अपने साथ एक पेड्राओ (पाषाण स्तंभ) भी ले गए थे जिसके माध्यम से वह अपनी खोज और जीती गई भूमि को चिन्हित करता था। 

अगले पन्ने पर इतिहास का दूसरा झूठ...

भारत के इतिहास की शुरुआत सिंधु घाटी से होती है?
इतिहास में दो बातें प्रचारित की जाती है। पहली यह की भारतीय इतिहास की शुरुआत सिंधु घाटी की सभ्यता से होती है। दूसरी यह की सिंधु घाटी के लोग द्रविड़ थे अर्थात वे आर्य नहीं थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह दोनों ही बातें झूठ है। भारतीय इतिहास की शुरुआत को सिंधु घाटी की सभ्यता या फिर बौद्धकाल से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। कुछ इतिहासकार इसे सिकंदर के भारत आगमन से जोड़कर देखते हैं। बौद्ध काल या सिंधु घाटी सभ्यता के काल को प्राचीन भारत के इतिहास का काल मानना उचित नहीं। दरअसल, यह भारत के प्राचीन काल का अंतिम हिस्सा था।
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यदि हम मेहरगढ़ संस्कृति और सभ्यता की बात करें तो वह लगभग 7000 से 3300 ईसा पूर्व अस्तित्व में थी जबकि सिंधु घाटी सभ्यता 3300 से 1700 ईसा पूर्व अस्तित्व में थी। प्राचीन भारत के इतिहास की शुरुआत 1200 ईसापूर्व से 240 ईसा पूर्व के बीच नहीं हुई थी। यदि हम धार्मिक इतिहास के लाखों वर्ष के प्राचीन इतिहास को न भी मानें तो संस्कृ‍त और कई प्राचीन भाषाओं के इतिहास के तथ्‍यों के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास की शुरुआत लगभग 13 हजार ईसापूर्व हुई थी अर्थात आज से 15 हजार वर्ष पूर्व।
 
उक्त 15 हजार वर्षों में भारत ने जहां एक और हिमयुग देखा है तो वहीं उसने जलप्रलय को भी झेला है। उस दौर में भारत में इतना उन्नत, विकसित और सभ्य समाज था जैसा कि आज देखने को मिलता है। इसके अलावा ऐसी कई प्राकृतिक आपदाओं का जिक्र और राजाओं की वंशावली का वर्णन है जिससे भारत के प्राचीन इतिहास की झलक मिलती है।  
 
सिंधु-सरस्वती सभ्यता : वर्तमान शोध से पता चलता है कि सिंधु और सरस्वती नदी के बीच जो सभ्यता बसी थी वह दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध सभ्यता थी। यह वर्तमान में अफगानिस्तान से भारत तक फैली थी। प्राचीनकाल में जितनी विशाल नदी सिंधु थी उससे कई ज्यादा विशाल नदी सरस्वती थी। 
 
शोधानुसार यह सभ्यता लगभग 9,000 ईसा पूर्व अस्तित्व में आई थी और 3,000 ईसापूर्व उसने स्वर्ण युग देखा और लगभग 1800 ईसा पूर्व आते-आते यह लुप्त हो गया। कहा जाता है कि 1,800 ईसा पूर्व के आसपास किसी भयानक प्राकृतिक आपदा के कारण एक और जहां सरस्वती नदी लुप्त हो गई वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के लोगों ने पश्‍चिम की ओर पलायन कर दिया। पुरात्ववेत्ता मेसोपोटामिया (5000- 300 ईसापूर्व) को सबसे प्राचीन बताते हैं, लेकिन अभी सरस्वती सभ्यता पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
 
अगले पन्ने पर इतिहास का तीसरा झूठ...
 

सिकंदर ने पोरस को हरा दिया था?
यह झूठ है या सच इसकी फिर से खोज की जानी चाहिए। यदि इसमें भ्रम है तो इस भ्रम को ही यथावत इतिहास में पढ़ाया जाना चाहिए। अर्थात दोनों ही तरह की मान्यता को उजागर किया जाना चाहिए। चाणक्य का साथी क्या पोरस महान नहीं था? आज लोग कहते हैं कि जो जीता वही सिकंदर। 
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महान सम्राट पोरस को हराकर बंधक बनाकर जब सिकंदर के सामने पेश किया गया तो सिकंदर ने पूछा- 'तुम्हारे साथ क्या किया जाए तो पोरस ने कहा- 'मेरे साथ वो व्यवहार करो, जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।' सचमुच यह एक अच्छा वाक्य है लेकिन क्या इसमें सचाई है? क्या यह यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर को महान बनाने के लिए नहीं लिखा?
 
सिकंदर और पोरस के युद्ध के बारे में संपूर्ण जानकारी हेतु आगे क्लिक करें.. सिकंदर नहीं, पोरस महान था
 
पुरु का नाम यूनानी इतिहासकारों ने 'पोरस' लिखा है। इतिहास को निष्पक्ष लिखने वाले प्लूटार्क ने लिखा- 'सिकंदर सम्राट पुरु की 20,000 की सेना के सामने तो ठहर नहीं पाया। आगे विश्व की महानतम राजधानी मगध के महान सम्राट धनानंद की सेना 3,50,000 की सेना उसका स्वागत करने के लिए तैयार थी जिसमें 80,000 घुड़सवार, 80,000 युद्धक रथ एवं 70,000 विध्वंसक हाथी सेना थी। उसके क्रूर सैनिक दुश्मन के सैनिकों को मुर्गी-तीतर जैसा काट देते हैं।
 
क्या सिकंदर (अलक्षेन्द्र) एक महान विजेता था? ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है और पश्चिम जो कहता है दुनिया उसे आंख मूंदकर मान लेती है। मगर ईरानी और चीनी इतिहास के नजरिए से देखा जाए तो यह छवि कुछ अलग ही दिखती है।'
 
सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली, जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था, जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए। अब यह कहां होगा की बर्बर तो वे लोग थे जो आक्रमणकारी थे।
 
अजीब लगता है ‍जबकि भारत में सिकंदर को महान कहा जाता है और उस पर गीत लिखे जाते हैं। उस पर तो फिल्में भी बनी हैं जिसमें उसे महान बताया गया और एक कहावत भी निर्मित हो गई है- 'जो जीता वही सिकंदर'। ...यदि सचमुच ही भारतीयों ने पश्चिम नहीं, भारतीय इतिहासकारों को पढ़ा होता तो वे कहते... 'जो जीता वही पोरस'। लेकिन अंग्रेजों की 200 वर्षों की गुलामी ने अंग्रेज भक्त जो बना दिया है।
 
सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने सौतेले व चचेरे भाइयों का कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिन्हासन पर बैठा था। अपनी महत्वाकांक्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। यूनान के मकदूनिया का यह राजा सिकंदर कभी भी महान नहीं रहा। यूनानी योद्धा सिकंदर एक क्रूर, अत्याचारी और शराब पीने वाला व्यक्ति था। 
 
इतिहासकारों के अनुसार सिकंदर ने कभी भी उदारता नहीं दिखाई। उसने अपने अनेक सहयोगियों को उनकी छोटी-सी भूल से रुष्ट होकर तड़पा-तड़पाकर मारा था। इसमें उसका एक योद्धा बसूस, अपनी धाय का भाई क्लीटोस और पर्मीनियन आदि का नाम उल्लेखनीय है। क्या एक क्रूर और हत्यारा व्यक्ति महान कहलाने लायक है? गांधार के राजा आम्भी ने सिकंदर का स्वागत किया। आम्भी ने भारत के साथ गद्दारी की।
 
प्रसिद्ध इतिहासकार एर्रियन लिखते हैं, जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकंदर ने उनको कोड़े लगवाए और उनकी नाक-कान कटवा डाले। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसने अंत में उनकी हत्या करवा दी। उसने अपने गुरु अरस्तू के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहीं किया।
 
एक बार किसी छोटी-सी बात पर उसने अपने सबसे करीबी मित्र क्लीटोस को मार डाला था। अपने पिता के मित्र पर्मीनियन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था उसने उनको भी मरवा दिया। सिकंदर की सेना जहां भी जाती, पूरे के पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता और बच्चों को भालों की नोक पर टांगकर शहर में घुमाया जाता था।
 
ऐसा क्रूर सिकंदर अपने क्या, महान सम्राट पोरस के प्रति उदार हो सकता था? यदि पोरस हार जाते तो क्या वे जिंदा बचते और क्या उनका साम्राज्य यूनानियों का साम्राज्य नहीं हो जाता?
 
इतिहास में यह लिखा गया कि सिकंदर ने पोरस को हरा दिया था। यदि ऐसा होता तो सिकंदर मगध तक पहुंच जाता और इतिहास कुछ और होता। लेकिन इतिहास लिखने वाले यूनानियों ने सिकंदर की हार को पोरस की हार में बदल दिया।
 
हारे हुए सिकंदर का सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए यूनानी लेखकों ने यह सारा झूठा जाल रचा। स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशी विद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात का उल्लेख किया है कि मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं। ऐसे विवरणों के कारण ही सिकंदर को महान समझा जाने लगा और पोरस को एक हारा हुआ योद्धा, जबकि सचाई इसके ठीक उलट थी। सिकंदर को हराने के बाद पोरस ने उसे छोड़ दिया था और बाद में चाणक्य के साथ मिलकर उसने मगध पर आक्रमण किया था।
 
यूनानी इतिहासकारों के झूठ को पकड़ने के लिए ईरानी और चीनी विवरण और भारतीय इतिहास के विवरणों को भी पढ़ा जाना चाहिए। यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर के बारे में झूठ लिखा था, ऐसा करके उन्होंने अपने महान योद्धा और देश के सम्मान को बचाया।
 
जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखते हैं- 'सिकंदर अभिमानी, उद्दंड, अत्यंत क्रूर और हिंसक था। वह स्वयं को ईश्वर के समान समझता था। क्रोध में आकर उसने अपने निकटतम मित्रों और सगे-संबंधियों की हत्या की और महान नगरों को उसके निवासियों सहित पूर्णतः ध्वस्त कर दिया।'
 
अगले पन्ने पर इतिहास का चौथा झूठ...
 

आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे?
इतिहास के ज्यादा जानकार यह पूछ सकते हैं कि क्या इतिहास को फिर से लिखना उचित है? देश के इतिहास का आधार और औचित्य क्या होना चाहिए? और यह कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों को सच बताना क्या इतिहास है? उनके लिये जवाब यह है कि वे क्यों तनख में उल्लेखीत मूसा के निष्क्रमण को और बाइबल की जल प्रलय के मिथक को सच मानते हैं?...दरअसल, मिथक पूर्णत: सत्य नहीं होते, लेकिन वे असत्य भी नहीं होते।
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यह विडंबना है या कि भरतीय लोगों की मूर्खता कि आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया गया है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं है। संभवत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश होगा जहां के लोग खुद के ही भारतीय होने पर संदेह करते हैं। यह संदेह उनके दिमाग में एक या दो दिन में नहीं डाला गया। यह सैंकड़ों साल की गुलामी और मैकाले की शिक्षा का परिणाम है। मैकाले की अवैध संतानों ने हमें बताया कि हम आर्य हैं, हम बाहर से आए हैं। लेकिन कहां से आए हैं उसका कोई उन्होंने सटीक जवाब नहीं दिया। कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया। मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है। विश्‍वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों (मूर्ख) को इन सवालों का जवाब देना है। सवाल पूछने वाले को पहले लताड़ना है, उसे बुद्धिहिन घोषित करना है और फिर इतिहास के मूल प्रश्‍नों पर पर्दा डाला देना है।
 
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है। इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है। यह ऐसे खानाबदोश लोग थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी थी। मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे, सभ्य और सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे। यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है। यह थ्योरी मैक्स मूलर ने जानबूझकर गढ़ी थी। मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली। अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए। कोई एक जगह होती, तो और बात थी। यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे। इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा। अब सवाल यह पैदा हो गया कि यदि इस सभ्यता को हिन्दू या आर्य सभ्यता मान लिया गया तो फिर आर्यन इन्वेजन थ्योरी का क्या होगा। ऐसे में फिर धीरे धीरे यह प्रचारित किया जाने लगा कि सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य।
 
जब अंग्रेजों और उनके अनुसरणकर्ताओं ने यह देखा कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो विश्वस्तरीय शहरी सभ्यता थी। इस सभ्यता के पास टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? वह भी ऐसे समय जबकि ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोनिशान भी नहीं था।..तो उन्होंने एक नया झूठ प्रचारित किया। वह यह कि सिंधु सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों अलग अलग सभ्यता है। सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य। आर्य तो बाहर से ही आए थे और उनके काल सिंधु सभ्यता के बाद का काल है। इस थ्योरी को हमारे यहां के वामी इतिहासकारों ने जमकर प्रचारित किया।
 
यह बहुत बहुत प्रचारित किया जाता है कि आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां के द्रविड़ लोगों को दास बनाया। पहले अंग्रेजों ने भी फिर हमारे ही इतिहाकारों ने इस झूठ का प्रचारित और प्रसारित किया। आर्य को उन्होंने एक जाति माना और द्रविड़ को दूसरी। इस तरह विभाजन करके उन्होंने भारत का इतिहास लिखा। दरअसल, विदेशी विभाजन में ही विश्वास रखते थे। उन्हीं का अनुसारण करने वाले हमारे देश में आज लाखों लोग हैं।
 
महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7।3
अर्थात : आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। 
 
आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्‍वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्‍वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। नयी खोज के अनुसार आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा।
 
फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में भारतीयों के डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित एक अनुसंधान हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।
 
शोधकार्य में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं। 
 
शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है। उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, दलित, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं।
 
इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाए जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं। जो लोग आर्य और दस्यु को अलग अलग बानते हैं उन्हें बाबासाहब आम्बेडकर की किताब 'जाती व्यवस्था का उच्चाटन' (Annihilation of caste) को अच्छे से पढ़ना चाहिए।
 
नीचे लिखा गया लेख सरिता झा द्वारा लिखा गया और डॉयचे वैले से साभार है...
 
इसी तरह का एक अनुसंधान भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी किया था। उनके इस साझे आनुवांशिक अध्ययन अनुसार उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं है। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।
 
सीसीएमबी के वरिष्ठ विश्लेषक कुमारसमय थंगरंजन का मानना है कि आर्य और द्रविड़ सिद्धांतों के पीछे कोई सचाई नहीं है। वे प्राचीन भारतीयों के उत्तर और दक्षिण में बसने के सैकड़ों या हजारों साल बाद भारत आए थे। इस शोध में भारत के 13 राज्यों के 25 विभिन्न जाति-समूहों से लिए गए 132 व्यक्तियों के जीनों में मिले 500,000 आनुवांशिक मार्करों का विश्लेषण किया गया।
 
इन सभी लोगों को पारंपरिक रूप से छह अलग-अलग भाषा-परिवार, ऊंची-नीची जाति और आदिवासी समूहों से लिया गया था। उनके बीच साझे आनुवांशिक संबंधों से साबित होता है कि भारतीय समाज की संरचना में जातियाँ अपने पहले के कबीलों जैसे समुदायों से बनी थीं। उस दौरान जातियों की उत्पत्ति जनजातियों और आदिवासी समूहों से हुई थी। जातियों और कबीलों अथवा आदिवासियों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके बीच के जीनों की समानता यह बताती है कि दोनों अलग नहीं थे।
 
इस शोध में सीसीएमबी सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ तथा एमआईटी के विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीनकालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का मिश्रण है। इस मिश्रण में उत्तर भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल नॉर्थ इंडियन) और दक्षिण भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल साउथ इंडियन) का योगदान रहा है। पहली बस्तियाँ आज से 65,000 साल पहले अंडमान द्वीप और दक्षिण भारत में लगभग एक ही समय बसी थीं। बाद में 40,000 साल पहले प्राचीन उत्तर भारतीयों के आने से उनकी जनसंख्या बढ़ गई। कालान्तर में प्राचीन उत्तर और दक्षिण भारतीयों के आपस में मेल से एक मिश्रित आबादी बनी। आनुवांशिक दृष्टि से वर्तमान भारतीय इसी आबादी के वंशज हैं। अध्ययन यह भी बताने में मदद करता है कि भारतीयों में जो आनुवांशिक बीमारियाँ मिलती हैं वे दुनिया के अन्य लोगों से अलग क्यों हैं। 
 
लालजी सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत भारतीयों में जो आनुवांशिक विकार हैं, इस शोध से यह जानने में मदद मिल सकती है कि ऐसे विकार जनसंख्या विशेष तक ही क्यों सीमित हैं। उदाहरण के लिए पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, तिरुपति और चित्तूर के निवासियों में स्नायविक दोष और मध्य भारत की जनजातियों में रक्ताल्पता की बीमारी ज्यादा क्यों होती है। उनके कारणों को इस शोध के जरियए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
 
शोधकर्ता अब इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूरेशियाई अर्थात यूरोपीय-एशियाई निवासियों की उत्पत्ति क्या प्राचीन उत्तर भारतीयों से हुई है। उनके अनुसार प्राचीन उत्तर भारतीय पश्चिमी यूरेशियाइयों से जुड़े हैं। लेकिन प्राचीन दक्षिण भारतीयों में दुनियाभर में किसी भी जनसंख्या से समानता नहीं पाई गई। हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि भारतीय पहले यूरोप की ओर गए थे या फिर यूरोप के लोग पहले भारत आए थे।
 
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तुर्क सम्राट जलालुद्दीन अकबर महान था?
इतिहास में पढ़ाया जाता है कि अकबर महान था। इतिहासकार ठाकुर रामसिंह शेखावत के अनुसार देश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना आजाद को भारतीय संस्कृति का ज्ञान नहीं था। उनके एवं उनके बाद बने मुस्लिम शिक्षामंत्रियों के इशारे पर योजनाबद्ध तरीके से इतिहास में काफी फेरबदल किया गया। रामसिंह अंग्रेज इतिहास बिनसेंट स्मिथ का हवाला देते हुए अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हैं कि सारंगपुर विजय के बाद मुगल सिपहसालार आसफ खां ने अकबर को चिट्ठी लिखी थी कि मालवा और निमाड़ को हिन्दूविहीन कर दिया गया है। इस चिट्ठी का उल्लेख स्मिथ की पुस्तक में है।
 
शेखावत कहते हैं कि अकबर के लिए पहली बार महान शब्द का संबोधन एक पुर्तगाली पादरी ने किया था। अकबर इतना क्रूर था कि आत्मसमर्पण करने वाले लोगों को भी मौत के घाट उतार देता था, जो इस्लाम कबूल नहीं करते थे। वे कहते हैं कि टीवी और ‍फिल्मों में अकबर और जोधाबाई के प्रेम प्रसंग दिखाए जाते हैं, जबकि हकीकत में जोधा से अकबर की शादी ही नहीं हुई थी। उसका भाई यानी भारमल का बेटा भूपत उसका डोला अकबर के खेमे में छोड़ गया था। शेखावत कहते हैं कि अबुल फजल ने भी एक जगह उल्लेख किया है कि जोधा को एक बार ही आगरा के महल से बाहर निकलने दिया गया, जब उसका भाई भूपत अकबर को बचाते हुए मारा गया था।
 
अकबर के बारे में संपूर्ण जानकारी..
अपने गुरु का हत्यारा अकबर 'महान'  
हिन्दुस्तानी परंपरा में गुरु को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। बैरम खां न सिर्फ अकबर का संरक्षक था, बल्कि उसका गुरु भी था और उसने मुगल साम्राज्य को भारत में फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी। मगर उसका हश्र क्या हुआ। अकबर ने बैरम खां को बुरी तरह मारा था। बैरम खां ने जीवनभर हुमायूं की और 18 वर्ष तक अकबर की सेवा की थी। अकबर ने उसकी सुंदर पत्नी को उससे छीना और उस पर राजद्रोह के झूठे आरोप लगाए। दरअसल, बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, औरंगजेब ने उत्तर और मध्य भारत में कत्लेआम कर भारतीय जनता को मुसलमान बनाया और उन्हें अपनों के खिलाफ ही खड़ा कर दिया।
 
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शिवाजी लूटेरे और पहाड़ी चूहे थे?
हमारे कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शिवाजी धोकेबाज, लूटेरे और पहाड़ी चुहे थे? ऐसा कहने वाले इतिहाकार तो मर गए और अब कुछ गिने-चुने ही हैं जो ऐसा कहने की हिम्मत नहीं रखते। दरअसल, ऐसे इतिहासकारों का उद्देश्य रहा है कि ढूंढ-ढूंढ कर भारत के गौरव को नष्ट, भ्रष्ट और भ्रमित किया जाए। आप सोचिये, जिनके गुरु समर्थ रामदास, जिनकी ईष्ट और कुलदेवी तुलजा भवानी और जिनकी मां परम धार्मिक प्रवृत्ति की थी वे कैसे लुटेर और चुहे हो सकते हैं। चलिये ये बात छोड़ भी दें तो जरा उनका जीवन परिचय भी अच्छे से पढ़ लेते। 
 
भारत के वीर सपूतों में से एक श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में सभी लोग जानते हैं। बहुत से लोग इन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं तो कुछ लोग इन्हें मराठा गौरव कहते हैं, जबकि वे भारतीय गणराज्य के महानायक थे। उन पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है जो कि सच नहीं है। सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे तथा अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। उन्होंने विदेशी लोगों से भारत की भूमि की रक्षा की थी। मुगल विदेशी थे। तुर्क थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है। 
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धोकेबाज नहीं थे शिवाजी : शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी ने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं। इस घटना के आधार पर लोग शिवाजी को धोकेबाज कहते हैं जबकि धोका तो अफजल खां करने वाला था।
 
गुरिल्ला युद्ध के अविष्कारक : दरअसल, शिवाजी चारों और से अपने दुश्मनों से घिरे हुए थे। उनके लिए शक्ति से कहीं ज्यादा नीति की जरूत भी थी। ऐसे में शिवाजी ने ही भारत में पहली बार गुरिल्ला युद्ध का आरम्भ किया। उनकी इस युद्ध नीती से प्रेरित होकर ही वियतनामियों ने अमेरिका से जंगल जीत ली थी। इस युद्ध का उल्लेख उस काल में रचित 'शिव सूत्र' में मिलता है। गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पार्श्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं। उनकी इसी नीति के कारण विरोधियों ने उन्हें पहाड़ी चुहा घोषित कर दिया।
 
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श्रीराम और श्रीकृष्ण कभी हुए नहीं?
जिस भी ऐतिहासिक घटना को नकारना हो उसे 'माइथोलॉजी' करने भर से उसके प्रति लोगों में संदेह उत्पन्न हो जाता है। अंग्रेजी का 'माइथोलॉजी' शब्द 'मिथ' से बना है। मिथ का अर्थ है- जो घटना वास्तविक न हो अर्थात कल्पित या मनगढ़ंत ऐसा कथानक जिसमें लोकोत्तर व्यक्तियों, घटनाओं और कर्मों का सम्मिश्रण हो। अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन ज्ञान-राशि, जिसमें पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं, को 'मिथ' कहा है अर्थात उनकी दृष्टि में इन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है, वह सब कुछ कल्पित है। इन्हीं अंग्रेजों का अनुसार किया हमारे यहां के जेएनयू में बैठे इतिहाकारों और मैकाले की संतानों ने।
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वास्तव में तो पाश्चात्य विद्वानों ने 'मिथ' के अंतर्गत वह सभी भारतीय ज्ञान-राशि सम्मिलित कर दी, जिसे समझने में वे असमर्थ रहे या कि जिसे वे जानबूझकर समझना नहीं चाहते थे। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण पढ़िये- भारत के प्राचीन इतिहास में जलप्लावन की एक घटना का वर्णन आता है। इसमें बताया गया है कि इस जल प्रलय के समय 'मनु' ने अगली सृष्टि के निर्माण के लिए ऋषियों सहित धान्य, औषधि आदि आवश्यक सामग्री एक नाव में रखकर उसे एक ऊंचे स्थान पर ले जाकर प्रलय में नष्ट होने से बचा लिया था। यह प्रसंग बहुत कुछ इसी रूप में मिस्र, यूनान, दक्षिण-अमेरिका के कुछ देशों के प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। अन्तर मात्र यह है कि भारत का 'मनु' मिस्र में 'मेनस' और यहूदी और यूनान परंपरा में 'नूह' हो गया। किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा इस ऐतिहासिक 'मनु' को 'मिथ' बना दिया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं...
 
माइथोलॉजी कहकर प्रचारित कर इस धारणा को बढ़ावा देने का मकसद यह है कि इससे भारत के लोग अपने धर्म, संस्कृति और इतिहास से कट जाएंगे। फिर उनके पास किस धर्म और संस्कृति को महान मानने के विकल्प होंगे? निश्चित ही यह सभी भलिभांति जानते हैं। इसीलिए भारत के इतिहास में महाभारत काल, रामायण काल आदि को शामिल नहीं किया जाता। इन्हें मिथक मानकर हटा दिया गया है, जबकि भारतभर में बिखरे पड़े सबूत चीख-चीख कर कहते हैं कि महाभारत हुई थी। श्रीराम और श्रीकृष्ण हुए थे।
 
रामायण पर आधारित शोधानुसार 5114 ईसा पूर्व भगवान राम का जन्म हुआ था। राम एक ऐतिहासिक महापुरुष थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। वाल्मीकि के अनुसार श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी तिथि एवं पुनर्वसु नक्षत्र में जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में थे तब हुआ था। इस प्रकार सूर्य मेष में 10 डिग्री, मंगल मकर में 28 डिग्री, ब्रहस्पति कर्क में 5 डिग्री पर, शुक्र मीन में 27 डिग्री पर एवं शनि तुला राशि में 20 डिग्री पर था। (बाल कांड 18/श्लोक 8, 9)।
 
शोधकर्ता डॉ. वर्तक पीवी वर्तक के अनुसार ऐसी स्थिति 7323 ईसा पूर्व दिसंबर में ही निर्मित हुई थी, लेकिन प्रोफेसर तोबयस के अनुसार जन्म के ग्रहों के विन्यास के आधार पर श्रीराम का जन्म 7130 वर्ष पूर्व अर्थात 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व हुआ था। उनके अनुसार ऐसी आका‍शीय स्थिति तब भी बनी थी। तब 12 बजकर 25 मिनट पर आकाश में ऐसा ही दृष्य था जो कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित है। ज्यातादर शोधकर्ता प्रोफेसर तोबयस के शोध से सहमत हैं। इसका मतलब यह कि राम का जन्म 10 जनवरी को 12 बजकर 25 मिनट पर 5114 ईसा पूर्व हुआ था। -संदर्भ : (वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता: सरोज बाला, अशोक भटनाकर, कुलभूषण मिश्र)
 
श्रीकृष्ण का जन्म : जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे, कृष्ण इनके पास बैठकर इनके प्रवचन सुना करते थे। अब आप कृष्ण को नकार देंगे तो ऐसे बहुत सी बातों को भी नकारना होगा जो भारत और जैन धर्म के इतिहास से जुड़ी हुई है। दरअसल, 3112 ईसा पूर्व हुए भगवान श्रीकृष्ण एक राजनीतिक, आध्यात्मिक और योद्धा ही नहीं थे वे हर तरह की विद्याओं में पारंगत थे। भगवान श्रीकृष्ण से धर्म का एक नया रूप और संघ शुरू होता है। श्रीकृष्ण ने धर्म, राजनीति, समाज और नीति-नियमों का व्यवस्थीकरण किया था।
 
हिंदू मान्यता अनुसार विष्णु ने आठवें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के अट्ठाईसवें द्वापर में आठवें अवतार श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में जन्म लिया था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के सात मुहूर्त निकल गए और आठवां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न में हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में ईसा से लगभग 3200 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ। ज्योतिषियों अनुसार उस समय शून्य काल (रात 12 बजे) था। ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग 1500 ई.पू. माना जाता है, जो कि अनुचित है। हिंदू काल गणना अनुसार आज से लगभग 5129 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। 119 वर्ष की उम्र में श्रीकृष्ण ने देह छोड़ दी।
 
महाभारत युद्ध : विश्व इतिहास में महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध के नाम से जाना जाता है। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने एक बाण लगने के कारण देह छोड़ दी थी।
 
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विक्रमादित्य कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं : विक्रमादित्य को इतिहास से काट देने के पीछे एक बहुत बड़ा षड़यंत्र था। पहला षड़यंत्र यह कि अकबर से महान कोई नहीं हो सकता इस बात को स्थापित करने के लिए कुछ इतिहास पुरुषों को इतिहास से काटना जरूरी था।  जबकि अकबर ने अशोक महान और विक्रमादित्य की हर बातों का अनुसाण किया था। भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य के इतिहास को नहीं पढ़ाया जाता है।
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विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से (12 फरवरी 2016) 2287 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
 
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में भी वर्णन मिलता है। नौ रत्नों की परंपरा उन्हीं से शुरू होती है।
 
विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे, जबकि मुगलों और अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि उस काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।
 
देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। 
 
अन्य सम्राट जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगा है : यथा श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि। दरअसल, आदित्य शब्द देवताओं से प्रयुक्त है। बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को 'विक्रमादित्य उपाधि' दी जाने लगी। विक्रमादित्य के पहले और बाद में और भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
 
एक विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।
 
पल्‍लव राजा ने पुलकेसन को परास्‍त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्‍य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्‍यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्‍त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्‍य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्‍य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्‍ता पलट दिया। उसने महाराष्‍ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्‍य की स्‍थापना की, जो राष्‍ट्र कूट कहलाया।
 
विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद 'विक्रमादित्य पंचम' सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।
 
विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।
 
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सरस्वती नदी का कोई अस्तित्व नहीं?
यह झूठ भी प्रचारित किया जाता रह है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व नहीं रहा। वेदों में उल्लेखीत सरस्वती नदी का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा यह बात पिछले कुछ वर्षों तक मान्य थी। इस धारणा की सत्यता को जांचने का कभी प्रयास नहीं किया गया। पाश्चाय विद्वानों ने जो लिख और कह दिया वही भारतीय इतिहासकारों के अनुसार पत्थर की लकीर की तरह रहा। अधिकतर इतिहासकार भारत के इतिहास की पुख्ता शुरुआत सिंधु नदी की घाटी की मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकालीन सभ्यता से मानते थे लेकिन अब जबसे सरस्वती नदी की खोज हुई है, भारत का इतिहास बदलने लगा है। अब माना जाता है कि यह सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कई हजार वर्ष पुरानी है।
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ऋग्वेद की ऋचाओं में कहा गया है कि यह एक ऐसी नदी है जिसने एक सभ्यता को जन्म दिया। इसे भाषा, ज्ञान, कलाओं और विज्ञान की देवी भी माना जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं को इस नदी के किनारे बैठकर ही लिखा गया था, लेकिन इस नदी के अस्तित्व को इसलिये नकारा जाता है कि इसे भारतीय हिन्दू सभ्यता की महानता का एक नया अध्याय खुलेगा। महाभारत में सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन है। इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय है। 
 
संपूर्ण जानकारी हेतु पढ़ें: क्या सचमुच भारत में बहती थी सरस्वती नदी?
 
एक फ्रेंच प्रोटो-हिस्टोरियन माइकल डैनिनो ने नदी की उत्पत्ति और इसके लुप्त होने के संभावित कारणों की खोज की है। वे कहते हैं कि ऋग्वेद के मंडल 7वें के अनुसार एक समय पर सरस्वती बहुत बड़ी नदी थी, जो कि पहाड़ों से बहकर नीचे आती थी। अपने शोध 'द लॉस्ट रिवर' में डैनिनो कहते हैं कि उन्हें बरसाती नदी घग्घर नदी का पता चला। कई स्थानों पर यह एक बहुत छोटी-सी धारा है लेकिन जब मानसून का मौसम आता है, तो इसके किनारे 3 से 10 किलोमीटर तक चौड़े हो जाते हैं। इसके बारे में माना जाता है कि यह कभी एक बहुत बड़ी नदी रही होगी। यह भारत-तिब्बत की पहाड़ी सीमा से निकली है।
 
उन्होंने बहुत से स्रोतों से जानकारी हासिल की और नदी के मूल मार्ग का पता लगाया। ऋग्वेद में भौगोलिक क्रम के अनुसार यह नदी यमुना और सतलुज के बीच रही है और यह पूर्व से पश्चिम की तरह बहती रही है। नदी का तल पूर्व हड़प्पाकालीन था और यह 4 हजार ईसा पूर्व के मध्य में सूखने लगी थी। अन्य बहुत से बड़े पैमाने पर भौगोलिक परिवर्तन हुए और 2 हजार वर्ष पहले होने वाले इन परिवर्तनों के चलते उत्तर-पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में से एक नदी गायब हो गई और यह नदी सरस्वती थी।
 
डैनिनो का कहना है कि करीब 5 हजार वर्ष पहले सरस्वती के बहाव से यमुना और सतलुज का पानी मिलता था। यह हिमालय ग्लेशियर से बहने वाली ‍नदियां हैं। इसके जिस अनुमानित मार्ग का पता लगाया गया है, उसके अनुसार सरस्वती का पथ पश्चिम गढ़वाल के बंदरपंच गिरि पिंड से संभवत: निकला होगा। यमुना भी इसके साथ-साथ बहा करती थी। कुछ दूर तक दोनों नदियां आसपास बहती थीं और बाद में मिल गई होंगी। यहां से यह वैदिक सरस्वती के नाम से दक्षिण की ओर आगे बढ़ी और जब यह नदी पंजाब और हरियाणा से निकली तब बरसाती नदियों, नालों और घग्घर इस नदी में मिल गई होंगी।
 
पटियाला से करीब 25 किमी दूर दक्षिण में सतलुज (जिसे संस्कृत में शतार्दू कहा जाता है) एक उपधारा के तौर पर सरस्वती में मिली। घग्घर के तौर पर आगे बढ़ती हुई यह राजस्थान और बहावलपुर में हाकरा के तौर आगे बढ़ी और सिंध प्रांत के नारा में होते हुए कच्छ के रण में विलीन हो गई। इस क्षेत्र में यह सिंधु नदी के समानांतर बहती थी। 
 
इस क्षेत्र में नदी के होने के कुछ और प्रमाण हैं। इसरो के वैज्ञानिक एके गुप्ता का कहना है कि थार के रेगिस्तान में पानी का कोई स्रोत नहीं है लेकिन यहां कुछ स्थानों पर ताजे पानी के स्रोत मिले हैं। जैसलमेर जिले में जहां बहुत कम बरसात होती है (जो कि 150 मिमी से भी कम है), यहां 50-60 मीटर पर भूजल मौजूद है। इस इलाके में कुएं सालभर नहीं सूखते हैं। इस पानी के नमूनों में ट्राइटियम की मात्रा नगण्य है जिसका मतलब है कि यहां आधुनिक तरीके से रिचार्ज नहीं किया गया है। स्वतंत्र तौर पर आइसोटोप विश्लेषण से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि रेत के टीलों के नीचे ताजा पानी जमा है और रेडियो कार्बन डाटा इस बात का संकेत देते हैं कि यहां कुछेक हजार वर्ष पुराना भूजल मौजूद है। आश्चर्य की बात नहीं है कि ताजे पानी के ये भंडार सूखी तल वाली सरस्वती के ऊपर हो सकते हैं।
 
सेटेलाइट चित्र : यह 6 नदियों की माता सप्तमी नदी रही है। यह 'स्वयं पायसा' (अपने ही जल से भरपूर) औरौ विशाल रही है। यह आदि मानव के नेत्रोन्मीलन से पूर्व काल में न जाने कब से बहती रही थी। एक अमेरिकन उपग्रह ने भूमि के अंदर दबी इस नदी के चित्र खींचकर पृथ्वी पर भेजे। अहमदाबाद के रिसर्च सेंटर ने उन चित्रों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला की शिमला के निकट शिवालिक पहाड़ों से कच्छ की खाड़ी तक भूमि के अंदर सूखी किसी नदी का तल है। जिसकी चौड़ाई कहीं कहीं 6 मिटर है।
 
उनका यह भी कहना है कि किसी समय सतलुज और यमुना नदी इसी नदी में मिलती थी। सेटेलाइट द्वारा भेजे गए चित्रों से पूर्व भी बहुत भूगर्भ खोजकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं। राजस्थान के एक अधिकारी एन.एन गोडबोले ने इस नदी के क्षेत्र में विविध कुओं के जल का रासायनिक परीक्षण करने पर पाया था कि सभी के जल में रसायन एक जैसा ही है। जबकि इस नदी के के क्षेत्र के कुओं से कुछ फलांग दूर स्थित कुओं के जलों का रासायनिक विश्‍लेषण दूसरे प्रकार का निकला। केन्द्रीय जल बोर्ड के वैज्ञानिकों को हरियाणश और पंजाब के साथ साथ राजस्थान के जैसलमेर जिले में सरस्वती नदी की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं। 
 
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मनुस्मृति और रामचरित मानस दलित विरोधी है?
आचार्य डॉ. संजय देव कहते हैं कि मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है। 
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क्या है मनुवाद : जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या? महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है। 
 
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मनुस्मृति कितनी पुरानी और क्या यह असली है?
वर्ण कैसे बदल गया जातिवाद में?
 
मनुस्मृति : समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
 
जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।
 
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है। 
 
मनुस्मृति में दलित विरोध : मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।  
 
मनु कहते हैं- ‘जन्मना जायते शूद्र:’ अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
 
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद) 
अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग। 
 
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
 
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
  
ब्राह्मणवाद की हकीकत : ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया।
 
हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष? 
 
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
 
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है। 
 
पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है : पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं। 
 
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।
 
(वैदिक विद्वान आचार्य संजय देव से वृजेन्द्रसिंह झाला की बातचीत पर आधारित) 
 

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