पराजयो वा मृत्युर्वा श्रेयान् मृत्युर्न निर्जय:।
विजितारयो ह्येते शस्त्रोपसर्गान्मृतोपमा:।।
अर्थात : जिसने अस्त्र डाल दिए हों, आत्मसमर्पण कर दिया, वे सभी शत्रु विजित ही हैं, वे मृत के समान ही हैं- अश्वत्थामा
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महाभारत में द्रोण पुत्र अश्वत्थामा एक ऐसा योद्धा था, जो अकेले के ही दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था। कौरवों की सेना में एक से एक योद्धा थे। पांडवों की सेना हर लिहाज से कौरवों की सेना से कमजोर थी लेकिन फिर भी कौरव हार गए। महाभारत युद्ध के बाद जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक अश्वत्थामा भी थे। अश्वत्थामा को संपूर्ण महाभारत के युद्ध में कोई हरा नहीं सका था। वे आज भी अपराजित और अमर हैं।
पांडवों की सेना में जहां विष्णु अवतार श्रीकृष्ण थे तो वहीं कौरवों की सेना में रुद्र का अंशावतार अश्वत्थामा थे। लेकिन कौरवों के बीच अश्वत्थामा के लिए कोई खास जगह नहीं थी। दुर्योधन की नजर में मामा शकुनि और कर्ण महान थे।
महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद जब कुरुक्षेत्र के मैदान में दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में था तब भगवान श्रीकृष्ण उससे मिलने पहुंचे। श्रीकृष्ण को देख दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को दुख और क्रोधवश बहुत खरी-खोटी सुनाई। जब दुर्योधन चुप हो गया तब श्रीकृष्ण ने उसकी युद्ध में की गई उन गलतियों के बारे में बताया, जो वह नहीं करता तो महाभारत के युद्ध में उसकी ही विजय होती।
अगले पन्ने पर भगवान श्रीकृष्ण की तरह ही शक्तिशाली था अश्वत्थामा...
दुर्योधन अश्वत्थामा की शक्ति को नहीं पहचान पाया। रुद्रांश अश्वत्थामा को अजर-अमर होने का वरदान था। वह भी भगवान श्रीकृष्ण के समान ही 64 कलाओं और 18 विद्याओं में पारंगत था। अश्वत्थामा ने युद्ध कौशल की शिक्षा केवल अपने पिता से ही नहीं ली थी बल्कि उन्होंने युद्ध कौशल की शिक्षा परशुराम, दुर्वासा, व्यास, भीष्म, कृपाचार्य आदि महापुरुषों से भी ली थी।
माना जाता है कि कृपाचार्य अकेले ही एक समय में 60,000 योद्धाओं का मुकाबला कर सकते थे लेकिन उनके भानजे (कृपाचार्य की बहन कृपी अश्वत्थामा की बहन थी) अश्वत्थामा में इतना सामर्थ्य था कि वह एक समय में 72,000 योद्धाओं को अकेले मार सकता था।
अगले पन्ने पर जानिए वो कौन-सी गलती थी, जो दुर्योधन ने की थी...
कुरुक्षेत्र में लड़े गए युद्ध में कौरवों के सेनापति पहले दिन से दसवें दिन तक भीष्म पितामह थे, वहीं ग्याहरवें से पंद्रहवें दिन तक गुरु दोणाचार्य ने यह जिम्मेदारी संभाली। लेकिन द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति बनाया। यही दुर्योधन की महाभारत के युद्ध में सबसे बड़ी गलती थी। इस एक गलती के कारण उसे युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा।
यदि दुर्योधन कर्ण की बजाय सोलहवें दिन अश्वत्थामा को सेनापति बनाता तो युद्ध का परिणाम कुछ और होता, क्योंकि अश्वत्थामा स्वयं भगवान शिव के अंशावतार थे, जो समस्त सृष्टि के संहारक हैं। लेकिन कहा जाता है कि दुर्योधन अपने मित्र-प्रेम के कारण इतना अंधा हो गया था कि अश्वत्थामा और कृपाचार्य अमर हैं, यह जानते हुए भी उसने कर्ण को सेनापति चुना। ऐसे में दुर्योधन ने अश्वत्थामा की जगह कर्ण को सेनापति का पद देकर महाभारत के युद्ध में सबसे बड़ी भूल की थी।
अगले पन्ने पर जब अंत में दुर्योधन ने अश्वत्थामा को बनाया सेनापति...
युद्ध के अठारहवें दिन दुर्योधन ने रात्रि में उल्लू और कौवे की सलाह पर अश्वत्थामा को सेनापति बनाया था। उस एक रात्रि में ही अश्वत्थामा ने पांडवों की बची लाखों सेनाओं, पुत्रों और गर्भ में पल रहे पांडवों के पुत्रों तक को मौत के घाट उतार दिया था। अश्वत्थामा के इस नरसंहार के बाद पांडवों में विरक्ति का भाव आ गया था। वे जीतकर भी हार गए थे। उनका सब कुछ नष्ट हो गया था। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 3,000 वर्षों तक कोढ़ी के रूप में रहकर भटकने का शाप दे दिया था।
यदि दुर्योधन पहले ही अश्वत्थामा को सेनापति बना देता तो वह खुद भी नहीं मरता और पांडवों पर जीत भी दर्ज कर चुका होता, हालांकि यह काम अश्वत्थामा ने युद्ध की समाप्ति पर किया था। जब अश्वत्थामा द्वारा किए गए इस नरसंहार का पता दुर्योधन को चला था तो उसने सुकून की सांस ली।